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आत्म-साक्षात्कार की उत्कृष्ट भावना भी परिलक्षित होती है। अध्यात्म मनीषी जयाचार्य की चौबीसी का पर्यालोचन करने से ऐसा अनुभव होता है कि जयाचार्य का अर्हत भगवन्तों के प्रति उत्कृष्ट कोटि का समर्पण था। वर्तमान में आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी, सूर, मीरा, तुलसी, गांधीजी आदि व्यक्तियों की कृतियों का सैंकड़ों विद्वान मूल्यांकन कर रहे हैं, क्यों? कारण स्पष्ट है कि उन्होंने जो लिखा वह प्रज्ञा की आँख से लिखा, केवल विद्वता के आधार पर नहीं। यही कारण है कि आज भी वे स्तुतियां, वे भजन जीवन्त, जागृत, प्रेरक एवं जन-जन के कंठों में अनुगुंजित हैं। २. साक्षात्कार की उत्कृष्ट अभिलाषा
साक्षात्कार की उत्कृष्ट अभिप्सा होते ही अन्तःप्रेरणा से स्तुति का स्वर मुखरित होता है, यथा-तुझ मिलवा मुझ उन उमह्यो', जीवन धन सब कुछ म्हारा पांचू परमेष्ठी प्यारा, देव तुम्हारा पुण्य नाम मेरे मन में रम जाए' म्हारै मन मंदिर में प्रभु महावीर है-इत्यादि। वास्तव में भाव और हृदय की शुद्धि सबसे बड़ी पवित्रता है और वही प्रत्येक कार्य में उत्कृष्टता का हेतु है। यह उपास्य के प्रति समर्पित परम रसमयी स्तुतियों के द्वारा ही संभव है।
३. एकाग्रता
अनुभव की बात है कि चंचल पानी में प्रतिबिम्ब साफ नहीं आता। फोटो लेने के लिए केमरा और फोटो खिंचवाने वाला-दोनों की स्थिरता का मूल्य होता है। इसी प्रकार मन में इष्ट को प्रतिबिम्बित करने के लिए एकाग्रता/स्थिरता परम आवश्यक है। स्तोत्र के मूल शब्द तो प्रभावोत्पादक होते ही हैं परन्तु एकाग्रता से उनका प्रभाव सहस्रगुणित हो जाता है। जिस प्रकार सूर्य की बिखरी किरणों को यंत्र आदि में केन्द्रित कर दिया जाये तो उससे रसोई बनाई जा सकती है वैसे ही मन की बिखरी शक्ति को ध्यान, स्वाध्याय, जप, स्तुति आदि सम्यक् साधनों द्वारा केन्द्रित करने पर आत्म-शक्ति का अद्भुत तेज प्रकट होता है।
दिल्ली का घटना प्रसंग है। आचार्यश्री महाश्रमणजी जब युवाचार्य थे तब कुछ युवकों से पूछा-नमस्कार महामंत्र की माला फेरते हो। युवकों का उत्तर नकारात्मक था। युवाचार्यश्री ने नहीं फेरने का कारण पूछा तो उत्तर मिला मन एकाग्र नहीं रहता, इसलिए माला नहीं फेरते हैं। युवाचार्य प्रवर ने कहा-इस बहाने माला कब तक नहीं फेरोगे? मन को एकाग्र करने के लिए श्वास को आलंबन बना लो। एक श्वास में पूरा नमस्कार महामंत्र बोलने से एक सौ आठ श्वास में पूरी
४८ / लोगस्स-एक साधना-१