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होना निर्जरा का फल नहीं है वह निर्जरा के सहवर्ती बंधने वाले पुण्य कर्मों का परिणाम हैं। जैन-दर्शन की मान्यता है कि जहाँ निर्जरा होती है वहां पुण्य का बंध भी होता है। उस पुण्य बंध के कारण ही उपासक अयाचित और अनायास प्रासंगिक लाभों से भी लाभान्वित हो जाता है। इसलिए अर्हत् भक्ति का उद्देश्य है-आत्मा का निर्मलीकरण और उसकी चरम परिणति है-मोक्ष पद की प्राप्ति। उसके प्रासंगिक फल हैं-यश की प्राप्ति, लक्ष्मी का वरण करना, स्वर्ग का मिलना, आरोग्य का पाना, दारिद्रय, भय एवं विपदाओं का नष्ट होना आदि।
महाकवि धनञ्जय इसी बात का समर्थन करते हुए 'विषापहार स्तोत्र' में लिखते हैं
उपैति भक्त्या सम्मुख सुखानि, त्वयिस्वभावाद विमुखश्च दुःखम्।
सदावदातद्युतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवाभवासि ॥
हे भगवन! तुम तो निर्मल दर्पण की तरह स्वच्छ हो। स्वच्छता तुम्हारा स्वभाव है। जो तुम्हें निष्कपट भाव से देखता है, वह सुख पाता है और जो कपट भाव से देखता है, वह दुःख पाता है। ठीक ही है दर्पण में कोई अपना मुँह सीधा करके देखता है तो उसका मुँह सीधा दिखता है और जो अपना मुँह टेढ़ा करके देखता है, उसे टेढ़ा दिखता है किंतु दर्पण न किसी का मुँह टेढ़ा करता है और न ही सीधा। इसी प्रकार राग-द्वेष रहित परमात्मा न किसी को दुःख देते हैं और न सुख, वह तो प्रकृतिस्थ है। बहुत यथार्थ और मार्मिक कहा गया है
हम खुदा थे, गर न होता दिल में कोई मुद्दा ।
आरजुओं ने हमारी, हमको बंदा कर दिया ॥ भगवान महावीर ने कहा-"धम्मो शुद्धस्स चिट्ठई"४ धर्म का निवास शुद्ध हृदय में है। चित्त शुद्धि के अभाव में परमात्मा का अवतरण, दर्शन असंभव है। जब हम लोगस्स का प्रथम पद उच्चरित करते हैं तब अर्हत् स्वरूप के चिंतन से हमारे हृदय में शत्रुता रहितता के भाव (न हम किसी के शत्रु हैं न कोई हमारा शत्रु है) उभरते हैं। जब हम शक्रस्तव के 'अभयदयाणं' की गहराई में प्रवेश करते हैं तब हमारे चित्त में प्रवाहित अशत्रता की भावना हमारे भीतर निर्भयता का संचार करती है। जब कोई शत्रु ही नहीं तो भय किससे? शांति भी अभय की सहचरी है क्योंकि निर्भयता के समय मन व मस्तिष्क की उद्विग्नता, तनाव आदि समाप्त हो जाते हैं। आधुनिक-वैज्ञानिक इन क्षणों में अल्फा तरंगों की उत्पत्ति मानते हैं, जो चित्त को शांत बनाने के साथ-साथ परिपार्श्व के वातावरण में भी शांति का संचार करती है। जब हम “णमो सिद्धाणं" "सिद्धा सिद्धिं ममदिसंतु" पद के स्वरूप पर तन्मय
जैन वाङ्मय में स्तुति / २७