________________
विद्या का वेत्ता होना आवश्यक भी कहा गया है।
चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रभाचन्द्र द्वारा लिखित प्रभा चरित्र एक इसी कोटि का ग्रंथ है, जिसमें मंत्र विद्या निष्णात प्रभावापन्न आचार्यों का वर्णन है। पूर्वगत मंत्र-विद्या और उत्तरवर्ती मंत्र-साहित्य के बीच में हम कतिपय प्राकृत ग्रंथों के नाम पाते हैं, जिनमें सिद्ध प्राभृत, योनि प्राभृत, निमित्त प्राभृत तथा विद्या प्राभूत के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये सब वर्तमान में अप्राप्य हैं, केवल योनि प्राभृत ही अंशतः प्राप्य है।
जैन परम्परा में यद्यपि प्राचीन साहित्य स्वल्प मात्रा में उपलब्ध था। फिर भी अनेक रूपों में उसका विकास होता गया। परिणामस्वरूप नमस्कार कल्प, लोगस्स, कल्प, शक्र स्तुति कल्प, उवसग्गहर स्तोत्र कल्प, तिजय पहुत कल्प, भक्तामर कल्प, कल्याण मंदिर कल्प, ऋषिमंडल कल्प व मंत्र भी निर्मित हुए। वर्धमान विद्या कल्प, हींकार कल्प आदि का भी बहुत प्रचलन हुआ। आचार्य के लिए सूरिमंत्र की उपासना का एक विशेष क्रम रहा। ये कल्प विघ्न निवारणार्थ अचूक उपाय माने गये हैं।
भक्तामर स्तोत्र मंत्र गर्भित स्तोत्र है। इसमें मंत्राक्षरों की ऐसी संयोजना है कि स्तोत्र जप से सारा काम अपने-आप हो जाता है। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भक्तामर के कई कल्प तैयार किये। इसके प्रत्येक श्लोक की विधि, मंत्र तथा तंत्र निर्मित हुए। इसके साथ अनेक मंत्रों का विकास, उनको सिद्ध करने के उपाय
और लाभों का विस्तार से वर्णन उपलब्ध हैं। आदिनाथ भगवान की स्तुति में निर्मित यह एक शक्तिशाली, चमत्कारिक एवं प्रभावशाली स्तोत्र है। निर्जरा की विशुद्ध भावना से उच्चरित यह स्तोत्र महाप्रभावशाली रहा है।
आचार्य भद्रबाहु ध्यान के पुरस्कर्ता एवं अनेक विद्याओं के पारंगत आचार्य थे। उन्होंने उपद्रव निवारणार्थ संघ के निवेदन पर 'उवसग्गहर स्तोत्र' की रचना की। उससे उपद्रव शांत हो गया। स्तोत्र प्रमुख रूप से दो प्रकार के होते हैं१. पाठ सिद्ध २. साधना सिद्ध ___ पाठ सिद्ध होने के कारण ‘उवसग्गहर स्तोत्र' का पाठ करते ही अधिष्ठाता देव उपस्थित हो जाता और विघ्न निवारण कर देता। फिर किसी कारण वश उस देव के निवेदन पर आचार्य भद्रबाहु ने स्तोत्र के कुछ पद्य निकाल दिये, जिसके कारण देव का साक्षात् आना बंद हो गया पर विघ्न निवारण का प्रभाव ज्यों का त्यों बना है।
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्यश्री मज्जयाचार्य ने अपने जीवन काल में अनेकों बार विघ्न निवारणार्थ स्तुतियों की रचना की और उनसे लाभान्वित भी हुए। आज
जैन वाङ्मय में स्तुति / ३१