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में स्तुति
वाङ्मय
मुक्ति तो वह शक्ति है जो जीव को शिवत्व और सिद्धत्व की आभा से दैदीप्यमान बनाती है । अर्हत् परमात्मा के मांगलिक वचनों से आत्मा का कालुष्य क्षीण होता है, कषाय जन्म अशांति दूर होती है और विकारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। एक विकार हीन आदर्श का स्वरूप सामने रहने से रागद्वेष जन्य विकारों का शमन होता है और मनुष्य की आत्मा आध्यात्मिक विकास के सोपान पार करने लगती है ।
३.
जैन
जिन भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म का नाम जैन धर्म है। जैन धर्म का आदर्श है - जिनेन्द्र । भूतविजेता जैसे इन्द्रादिक देव प्रसिद्ध हैं और उन्हें ब्राह्मण परम्परा में उपास्य पद प्राप्त है वैसे ही श्रमण संस्कृति के जो आत्म विजेता हुए वे 'जिन' नाम से प्रख्यात थे। 'जिन' शब्द किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है, यह उस आध्यात्मिक शक्ति का संबोधक शब्द है जिसमें व्यक्ति ने राग-द्वेष या प्रियता - अप्रियता की स्थिति से अपने आपको उपरत कर लिया है। अर्हत्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीर्थंकर - ये सब 'जिन' शब्द के ही पर्याय हैं । इन्हें देवाधिदेव भी कहते हैं । इस प्रकार णमो अरंहताणं - यह गुणात्मक आदर्श है जैन धर्म का । व्यक्ति स्वयं सम्यक् ज्ञानी, सम्यक् दर्शनी और सम्यक् चारित्री बने - यही इसकी उपासना है । इसके प्राचीन नाम आर्हत् धर्म, निर्ग्रन्थ धर्म एवं श्रमणधर्म रहे हैं । इस अवसर्पिणी काल में जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर हुए हैं; प्रथम भगवान ऋषभ और चौबीसवें भगवान महावीर । वर्तमान में जैन धर्म की परम्परा का संबंध भगवान महावीर के साथ है।
जैन धर्म गुणों का उपासक
भारतीय संस्कृति और उसमें भी मुख्यतया जैन संस्कृति अध्यात्म की संस्कृति है । यहाँ भोग और भौतिक सुखों की नहीं, त्याग और संयम की महत्ता रहती है। भारतीय संस्कृति में आत्मविधा को प्रथम प्रवर्त्तक 'ऋषभ' माने गये हैं ।
जैन वाङ्मय में स्तुति / २३