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से परमात्मा बनाने का महापथ है, राजमार्ग है। यह जीवन को सुंदर और सफल बनाने का प्रबल साधन है। आचार्य सोमचंद्र के शब्दों में
पापं लुम्पति दुर्गतिं दलयति व्यापादयत्यापदं, पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति निरोगताम्। सौभाग्यं विदधाति, पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः,
स्वर्ग यच्छति निर्वृतिं च रचयत्यर्चाहतां निर्मिता ॥ अर्हतों को की जाने वाली अर्चा (भाव पूजा, गुणोत्कीर्तन, पर्युपासना आदि) पापों का नाश करती है, दुर्गति का निवारण करती है, आपदाओं को विनष्ट करती है, पुण्य का संचय करती है, लक्ष्मी का विस्तार करती है, निरोगता को पुष्ट करती है, सौभाग्य को बनाए रखती है, प्रीति को पल्लवित करती है, यश को उत्पन्न करती है, स्वर्ग को देती है और मोक्ष रचना करती है।
संदर्भ १. श्रीमद्भागवत् की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. २६३ २. उत्तराध्ययन, २६/१५ ३. सूत्रकृतांग, प्रथम श्रुत स्कंध अध्ययन, ६ ४. नंदी, प्रकरण १, १.३, समवायांग ५. आवश्यक, ६/११
आवश्यक, २/१ ७. नंदी, प्रकरण १, ४-१७, २२ ८. पाणिनी अष्टाध्यायी, ३.३ ६४ श्रीमद्भागवत् की स्तुतियों का समीक्षात्मक ६. अमरकोश, १.६.११
अध्ययन पृ. १, २, से उद्धृत १०. विष्णु सहस्रनाम,
श्लोक ४.५ पर शंकर भाष्य - ११. महाप्रज्ञ का रचना संसार, पृ. ३८४ १२. अप्पाणं शरणं गच्छामि, पृ. १०४ १३. साखी ग्रंथ, १३/८६, पृ. १८६ १४. रामचरित मानस, ६/१२२ (क) १५. मिले मन भीतर भगवान १६. आवश्यक नियुक्ति, १२१५ १७. उत्तराध्ययन, २६/११ १८. से २१; उत्तराध्ययन, २६/१५, ६०, ६१, ६२ २२. भक्तामर, श्लोक-६ २३. सिंदूर प्रकर, जिन पूजा प्रकरणम्, श्लोक-६
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२२ / लोगस्स-एक साधना-१