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का वही स्थान है, जो वैदिक परंपरा में वेदों का, बौद्ध परंपरा में त्रिपिटक का, ईसाई परंपरा में बाईबिल का और इस्लाम परंपरा में कुरान का है ।
स्तुति अर्थ और स्वरूप
अदादिगणीय 'ष्टुभ् स्तुतौ' धातु से 'स्त्रियां क्तिन्' से भाव में 'क्तिन' प्रत्यय करने पर 'स्तुति' शब्द निष्पन्न होता है । 'स्तवनं स्तुतिः' अर्थात् स्तवन या प्रशंसा, स्तोत्र, इडा, नुति आदि है । " विभिन्न कोष ग्रंथों में भी स्तुति शब्द के अर्थ पर प्रकाश डाला गया है। आचार्य शंकर के मत में भगवत्गुण संकीर्तन ही स्तुति है । विष्णुसहस्रनाम भाष्य में 'स्तुवन्तः शब्द का अर्थ 'गुण संकीर्तनम् कुर्वन्तः ' किया है।" स्तुति में अपने उपास्य के प्रति विविध गुणों का संकीर्तन या गायन किया जाता है ।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने भगवान जिनेश्वर से विद्यमान गुणों के उत्कीर्तन को स्तुति, स्तवन और स्तोत्र कहा है
सारा पुण थुई - थोम गंभरपयत्थ विरइया जे । सब्भूयगुण कित्तणरूवा खलु ते जिणाणं तु ॥
अर्थात् सारे आगमों का सार स्वरूप गंभीर पदार्थ से विरचित, प्रभु के विद्यमान गुणों का उत्कीर्तन स्तुति स्तोत्र होता है । जैसे रत्न ( औषधि - विशेष) रोगी के विभिन्न रोगों - ज्वर, शूल आदि को शांत कर देता है, समाप्त कर देता है-उसी प्रकार भाव - रत्न-रूप स्तुति स्तोत्र कर्म-रूप- ज्वर का विनाश कर देता है । एक आचार्य ने स्तोत्र के षड्विध लक्षणों का निर्देश किया है
नमस्कारस्तथाशीश्च सिद्धान्तोक्तिः पराक्रमः ।
विभूतिः प्रार्थना चेति षडविधं स्तोत्र लक्षणम् ॥
अर्थात् नमस्कार, आशीष, सिद्धांतानुसार कथन, शूरवीरता, विभूति और प्रार्थना - इन छह प्रकार के लक्षणों से युक्त स्तोत्र होता है । "
उपर्युक्त व्युत्पत्तियों, परिभाषाओं एवं लक्षणों के निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि अदृश्य सत्ता या प्राकृतिक विभूतियों के ज्ञान से उनके प्रति पूज्य भाव या श्रद्धा होने के कारण भक्त भक्ति भावना पूर्वक हृदय से उन्हीं के विविध गुणों का संगापन करने लगता है ।
स्पष्ट है कि स्तुति में ज्ञान और भाव- इन दोनों तत्त्वों की प्रधानता रहती है । स्तोता ज्ञान से जानकर पूर्ण श्रद्धा भाव से समर्पित हो जाता है । अंग्रेजी कवि टेनीसन के शब्दों में- 'जगत जिसकी कल्पना करता है, उससे कहीं अधिक महान
अध्यात्म, स्तवन और भारतीय वाङ्मय - २ / ११