Book Title: Laghuprabandhsangrah
Author(s): Jayant P Thaker
Publisher: Oriental Research Institute Vadodra

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Page 79
________________ 52 As stated above, the Dharadhvansa-prabandha of PPS (p. 23)also contains the main story of the present prabundha, wherein a special motive is mentioned for Ja ya simha's visit to Kanti. It will be more usef the relevant portion here than to give a summary or even an English rendering of the same, so that the reader may be enabled to compare its wording with that of LPS. Passage no. 47 runs thus : मालवमण्डले उज्जयिनी पुरी अपरा धारा । तत्र राजा यशोवर्मा । इतश्च पत्तने श्रीजयसिंहदेवः । मालवं जेतुं प्रयाणमकरोत् । समीपभमौ गतः प्रतिज्ञामकरोत्-यद्धारा लात्वा भोक्ष्ये। इतो धारायां गव्यूति ५ मध्येऽयोमयाः क्षुरिकाः क्षिप्ता: सन्ति । प्रतोल्यो दत्ताः । कपाटेषु योजितेषु सम्मुखानि नाराचानि । तत्र गजस्याप्यवकाशो नास्ति । धाराया: प्रत्यासन्नैरपि भवितुं न शक्यते । अथ सिद्धराजप्रधानः कणिकाया धारा कृता। तस्या भने ५०० परमारा युद्ध्वा मृताः । द्वादशवार्षिके विग्रहे सिद्धनाथे खिन्ने बर्बरको वेताल: प्राह-देव ! यदि यशःपटहः करी किराडूवास्तव्यो जेसलपरमारस्तत्र प्रेष्यते, गजारूढेन तेन धारा गृयते अन्यथा न। राज्ञोक्तम्- स करी कास्त ? । कान्त्यां मदनब्रह्मनृपतेरस्ति । जयसिंहदेवस्तु कियता परिकरेण तत्र गतः । वर्षाकालोऽस्ति । पुर्या द्वारे स्थितः । मांइदेवमत्रिणो मिलितः। आदिश्यतां कार्यम् । नृपदर्शनमवलोक्यते । नृपो महानवम्यां विना दर्शन न ददाति | जयसिंहदेवः स्थितः । इतो गाढे धर्मेऽभिजायमाने नृप उपरितनभूमौ आकाशे प्राप्तः । पुरमवलोक्य पुराद् बहिर्दृशं ददौ। मदनकपटै : कृष्णान् चतुरकान् दृष्ट्वा प्राह-अरे ! पूरे किमिदं दृश्यते । देव ! गूर्जरत्रानृपतिर्देवदर्शनार्थी प्राप्तोऽस्ति । अरे ! नृपो न किन्त्वेष कबाडी । य एवंविधे वर्षाकाले भ्राम्यति । आकार्यताम् | जयसिंहदेवस्तूपायनमादायाययौ । श्रीमदनब्रह्मेण राज्ञा सत्कृतः। आगमनकारणं पृष्टम् । राज्ञोक्तम्यशःपटहः करी विलोक्यते । किमर्थम् ? | देव! तेन विना द्वादशवार्षिको विग्रहो न भज्यते । राज्ञोक्तम्-गजानानयत । जनैरुक्तम्-प्रसिद्धानां मध्ये स नास्ति । सिद्धराजः कृष्णवदनो जातः । इत एकेनाधोरणेनोक्तम्- देव ! स यशःपटहः करी । तं समानाय्यत । नृपेणोक्तम् -यद्यमुना कार्य सरति तदा गृहाणान्येपि हस्त्यश्वादयः । देव ! पूर्णमनेनैव । राजा[ज्ञा]* परिधाप्य करिणं दत्त्वा चोक्तम्-अतः परं विग्रहो न कार्य: । यत: स्वल्पायुषि जीवलोके राज्यस्य सौख्यं नानुभूयते तत्तस्य को गुणः। नृपस्तु [ नृपेण तु]* धारायां गत्वा सगौरबं जेसलपरमार आहूतः। The following points are brought out by the above comparison : In The king is named differently in all the four accounts. The subsequent depiction of his character as a Närikunjara' indeed offers significance to the name Madana bhrama, or even Madana b rahman, which would mean that the name Madana var man might be a later revision. The fact, however, appears to be quite different. Madana var man was his real name, It is observed that sometimes the repha or the syllable r is not only pronounced but also written down by scribes in a wrong way, as going with the previous consonant. Thus varma' वर्म] or barma' [बर्म]-there being an adheda or non-difference between 'v' [व] and 'b' []-would become brama [ब्रम]. Now another scribe, while copying down the Ms., could not make out this brama [ ब्रम] and regarded it as a wrong spelling of brahma [ब्रह्म]. This gave the king an altogether new name viz. Madana b rahman! Still another copyist considered this 'brama' [ब्रम] as a wrong spelling of bhrama [भ्रम] due to * These corrections in square brackets are inserted by the present editor. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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