Book Title: Karm Darshan
Author(s): Kanchan Kumari
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ सुचिण्ण कम्मा, सुचिण्ण फला भवंति। दुचिण्ण कम्मा, दुचिण्ण फला भवंति।।' अच्छे कर्म का फल अच्छा होता है। बुरे कर्म का फल बुरा होता है। आगमों में उपरोक्त सूत्रों के अतिरिक्त सैकड़ों-हजारों सूत्र कर्म शब्द के अभिन्नार्थक मिल जाएंगे। उन सभी को इस लघुकाय में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। जैन योग के पुनरोद्धारक आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने 'कर्मवाद' नामक पुस्तक में शास्त्रीय कर्म सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग विवेचन किया है। यह ग्रन्थ जन साधारण से लेकर उच्चकोटि के मूर्धन्य विद्वानों में भी समादृत है। प्रेरणा स्रोत-गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी सुजानगढ़ में स्थित रामपुरिया हवेली का प्रसंग है। हम कुछ साध्वियां पूज्य गुरुदेव के उपपात में बैठी हुई थीं। प्रसंगवश गुरुदेव ने फरमाया—सभी साधुसाध्वियों को एक-एक विषय के प्रतिपादन में दक्षता हासिल करनी चाहिए। पास में बैठे श्रीमान् शुभकरणजी दसाणी ने कहा- 'गुरुदेव! अगर ऐसा होता है तो तेरापंथ के विकास में चार चांद लग जाएंगे।' पूज्य गुरुदेव ने मुझे भी कहा—'कंचन! तुम्हें भी किसी एक विषय में निष्णात बनने का लक्ष्य रखना है। तत्त्वज्ञान मेरी रुचि का विषय है। मैंने उसी दिन से यह संकल्प कर लिया कि मुझे तत्त्वज्ञान में आगे बढ़ना है और मैंने उस ओर सलक्ष्य प्रयास भी किया। तत्त्वज्ञान से संबंधित एक विषय है—कर्म। जब मैं स्वतंत्र रूप से सन् 2000 का चतुर्मास मुम्बई के लिए गई। वहाँ पहुँचते ही मेरे मानस पटल पर एक प्रश्न उभरा कि यहाँ तो विद्वान साधु-साध्वियों के चतुर्मास हुए हैं, उनके सामने मैं कुछ भी नहीं हूँ। मैंने पूज्य गुरुदेव का स्मरण करते हुए कहा कि-'प्रभो! मैं किस विषय पर प्रवचन करूँ? यहाँ के श्रावक तो अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं। तत्काल मुझे अदृश्य और अनायास मार्गदर्शन मिला कि तुझे कर्म पर बोलना है। तब से आज तक चतुर्मास के प्रारम्भ में, पर्युषण से पूर्व मेरे प्रवचन का विषय कर्मवाद रहता है। यह सब गुरुप्रसाद से ही सम्भव है। __जब मैंने सन् 2005 का अहमदाबाद चतुर्मास परिसम्पन्न कर पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के लाडनूं में दर्शन किये तो श्रद्धेय आचार्य प्रवर ने फरमाया 'कर्मवाद पर तुम्हारा अधिकार हो गया है। लोग तुम्हारी प्रवचन शैली से सन्तुष्ट हैं। 1. औपपातिक सूत्र-60 कर्म-दर्शन 9

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