Book Title: Jivan Vigyana aur Jain Vidya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या श्वास को बाहर निकालें। पुनः श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएं। जितना पीछे ले जा सकें, ले जाएं। इस स्थिति में आराम से श्वास को जितना रोक सकें, रोकें, फिर फुफ्कार करते हुए मुख से श्वास छोड़े। सीने और मुख को भूमि पर ले आएं। शिथिलता की मुद्रा में आएं। स्वास्थ्य पर प्रभाव भुजंगासन का यह विशिष्ट प्रकार है। इसे वैज्ञानिक भुजंगासन कहा जाता है। भुजंगासन के पहले प्रकार में हाथों को सीने से एक फुट दूर रख कर अभ्यास करते हैं। उससे सीने और फेंफड़े को पूरा फैलने का अवसर मिलता है। हंसली, पंसली और तनुपट के विस्तार से श्वास को छोड़ते हैं तब पूरी मात्रा में प्रश्वास होता है। श्वास और प्रश्वास के इस क्रम में प्राणवायु का ग्रहण अधिक होता है और अशुद्ध वायु का निष्कासन पूरी तरह हो जाता है। जिससे रक्त का शोधन भलीभांति होता है। यह मेरुदण्ड को विशेष रूप से प्रभावित करता है। पहले प्रकार से रीढ़ की अन्तिम कशेरुका तक खिंचाव पड़ता है जिससे कमर का दर्द दूर होने लगता है। दूसरे और तीसरे प्रकार के मध्य और ऊपर के मनके और कन्धे का भाग विशेष रूप से प्रभावित होता है। पूरे पृष्ठ भाग की मांसपेशियों पर खिंचाव और शिथिलीकरण से, वे स्वस्थ और शक्तिशाली बनती हैं। भुजंगासन के इस क्रम को करते समय श्वास भरते हुए, सर्वप्रथम मुख, कन्धे को आधा फुट ऊपर उठाकर, फुफ्कारते हुए रेचन (श्वास छोड़ना) करते हैं। पुनः उसी अवस्था में पूरक (श्वास भरना) करते हुए भुजंगासन करते हैं। इससे फेफड़ों के कोष्ठकों को अधिक प्राण-वायु प्राप्त होती है। उनकी ग्राह्य शक्ति सुव्यवस्थित होने लगती है। भुजंगासन में मेरुदण्ड, कन्धे, गर्दन और मुख पर विशेष खिंचाव पड़ता है। जिससे इनके अवयवों को प्रचुर मात्रा में रक्त मिलता है। जिससे ये शक्तिशाली बनते हैं। पेड़ से लेकर आमाशय का हिस्सा भी प्रभावित होता है। पेट की क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन तंत्र, विसर्जन तंत्र पर सम्यक् दबाव डालता है, जिससे पाचन क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन ठीक होने से मल का विसर्जन ठीक होने लगता है। पैर के अंगूठे से ले के भाग की मांसपेशियों पर खिंचाव आने से या शक्ति विकसित होती और घुटने का दर्द भी इससे सहज ही दूर होने लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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