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अनुप्रेक्षा
कटु बात लग सकती है, अव्यावहारिक बात लग सकती है, किन्तु हम इस सचाई को झुठला नहीं सकते ।
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हम अकलेवन की सचाई को न भूलें । वह चाहे कटु हो, चाहे अव्यावहारिक हो । जो इस सत्य को समझ लेता है वह सत्य और शांति को उपलब्ध हो सकता है, दुःखों से बच सकता। एक बहुत बड़ा सूत्र है मनोबल को बढ़ाने का - 'एकला चलो। '
अक्रियता का अनुभव
एकत्व सचाई है । किन्तु मनुष्य ने इसको झुठलाने का जितना प्रयत्न किया और उतना प्रयत्न शायद किसी और दिशा में नहीं किया। झुठलाने का प्रयत्न निरन्तर चलता रहा और वह चलते-चलते आज इस बिन्दु पर पहुंच गया कि समाज ही परम सत्य या ध्रुव सत्य बन गया। आदमी ने मान लिया कि समाज ही अन्तिम सम्त है, व्यक्ति तो समाज का एक पुर्जा मात्र है। एक महायंत्र का छोटासा पुर्जा है व्यक्ति । इसके अतिरिक्त व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है । इस मान्यता ने व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को ही समाप्त कर डाला । व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी कुठाराघात हुआ । क्या व्यक्ति का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं
? क्या व्यक्ति समाज का एक पुर्जा मात्र है ? जब व्यक्ति समाज का पुर्जा ही है तब फिर समाज के द्वारा जो प्राप्त होता है उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । किन्तु कठिनाई यह है कि समाज से जो उपलब्ध होता है उसे व्यक्ति सहर्ष स्वीकार नहीं करता। तत्काल उसका मानसिक तनाव बढ़ जाता है । वह भीतर में अनुभव करता है । मैं व्यक्ति हूं। मेरी स्वतंत्र सत्ता है । मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है। एक ओर स्वतंत्र अस्तित्व की बात मन से निकलती नहीं और दूसरी ओर सामुदायिकता का सघन सूत्र उसके सिर पर थोपा जाता है। इन दोनों स्थितियों के बीच सारे तनाव बढ़ते चले जाते हैं ।
तनावों से बचने का ही उपाय है- अक्रियता की अवस्था का निर्माण । ध्यान से अक्रियता की अवस्था का निर्माण होता है । समुदाय में रहते हुए अकेलेपन के अनुभव करने से भी इस अवस्था का निर्माण होता है। 'मैं अकेला हूं, शेष सब संयोग हैं।' सयोगों को अपना अस्तित्व मानना सक्रियता है । उन्हें अपने अस्तित्व से भिन्न देखना, अनुभव करना, अक्रियता है ।
महावीर ने छह महीने तक एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया था। अकेले व्यक्ति को यदि तीन महीने तक एक कोठरी में बंद कर दें और वह यह
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