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अनुप्रेक्षा पुरुष और पौरुष
1. मनुष्य अपने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं है । अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है ।
2. राजा देव नहीं, ईश्वर का अवतार नहीं है वह मनुष्य है, उसे देव मत कहो, संपन्नमनुष्य कहो।
3. ग्रंथ मनुष्य की कृति है । पहले मनुष्य, फिर ग्रन्थ ।
4. विश्व की व्यवस्था शाश्वत द्रव्यों के योग या परस्परापेक्षिता से स्वतः संचालित है ।
5. मनुष्य अपने ही कर्त्तव्य से उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करता है ।
6. मनुष्य भाग्य या कर्म के यंत्र का पुर्जा नहीं है । समाज की भूमिका में स्वावलंबन का अर्थ यह नहीं होता कि मनुष्य दूसरों का सहयोग ले नहीं । उसका अर्थ यही होना चाहिए कि मनुष्य अपनी शक्ति का संगोपन न करे, जिस सीमा तक अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सके तथा विलासी जीवन को उच्च और श्रमरत जीवन को हेय न माने ।
विलास और आराम के प्रति मनुष्य का झुकाव सहज ही होता है और इस धारणा से उसे पुष्टि मिल जाती है कि श्रम करने वाला छोटा होता है । परावलंबी जीवन का यही आधार है।
स्वावलंबन (अपनी श्रम-शक्ति) का अनुपयोग और परावलंबन (दूसरों की श्रम-शक्ति) का उपयोग शोषणपूर्ण जीवन का आरंभ बिंदु है। शोषण अनैतिकता की जड़ है। अणुव्रती चाहता है कि समाज में शोषण न रहे। अतः उसके लिए यह प्राप्त होता है कि वह स्वावलंबन या श्रम की भावना को जन-जन तक पहुंचाए। स्व-निर्भरता
एक राजकुमार दीक्षित हो रहा था। माता-पिता ने कहा-'कुमार ! तुम बड़े सुकुमार हो, बहुत कोमल हो। तुम दीक्षित हो रहे हो। तुम्हें ज्ञात नहीं है, शरीर में बीमारी पैदा हो जाएगी हो सकती है, तो चिकित्सा नहीं करा सकोगे। बीमारी पैदा होने पर क्या करोगे?'
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