Book Title: Jivan Vigyana aur Jain Vidya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 86
________________ अनुप्रेक्षा . . . 77 साम्प्रदायिक वैमनस्य मनुष्य जन्मना मनुष्य का शत्रु नहीं है। एक ही पेड़ की दो शाखाएं परस्पर विरोधी कैसे हो सकती हैं ? फिर भी यह कहा जाता है कि धर्म-सम्प्रदाय मनुष्यों में मैत्री स्थापित करने के लिए प्रचलित हुए हैं। उनमें जन्मना शत्रुता नहीं है, फिर मैत्री स्थापित करने की क्या आवश्यकता हुई ? मैं फिर इस विश्वास को दोहराना चाहता हूं कि मनुष्य मनुष्य में स्वभातः शत्रुता नहीं है। वह निहित स्वार्थ वाले लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है। उसे मिटाने का काम धर्म-सम्प्रदायों ने प्रारम्भ किया, किन्तु आगे चलकर वे स्वयं निहित स्वार्थ वाले लोगों के घिर गए और मनुष्य को मनुष्य का शत्रु मानने के सिद्धांत की पुष्टि में लग गये। इस चिन्तन के आधार पर मुझे लगता है कि साम्प्रदायकि समस्या का मूल भी अहं और स्वार्थ को छोड़कर अन्यत्र नहीं खोजा जा सकता। इसलिए साम्प्रदायिक वैमनस्य की समस्या को सुलझाने के लिए भी अहं और स्वार्थ का विसर्जन बहुत आवश्यक है। साम्प्रदायिक एकता हिन्दुस्तान सम्प्रदाय-निरपेक्ष जनतन्त्री राष्ट्र है। यह दुनिया का सबसे बडा जनतन्त्र है। यहां पर व्यक्ति वाणी, लेखन, विचार-प्रकाश और धार्मिक उपासना करने में स्वतन्त्र है। यहां विवधि भाषाएं, विविध जातियां और विविध धर्म-सम्प्रदाय हैं। किन्तु इन विधिताओं के होने पर भी सब एक हैं। वे एक इस अर्थ में हैं कि वे सब भारतीय हैं। वे भारत की पवित्र मिट्टी में जन्मे हैं और उसी में उन्हें मरना है। साम्प्रदायिक विग्रह से वह पवित्र मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है और व्यक्ति का मन अपवित्र होता है, इसलिए साम्प्रदायिक एकता पर विशेष बल दिया जाए। - साधना और सम्प्रदाय का परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह प्रश्न भी काफी जटिल है। सम्प्रदायों का जन्म तो इसलिए हुआ था कि साधना में वे साधकों का सहयोग करें। किन्तु कालान्तर में सांप्रदायिक अभिनिवेश बढ़ता गया, उसमें साधना पक्ष गौण होता गया और एक-दूसरे से उत्कृष्ठ दिखाने का मनोभाव मुख्य होता गया। साम्प्रदायिक कट्टरता ने कलह के बीज बोये और जन-जन में प्रेम की भावना भरने वाला धर्म फूट और संघर्ष का कारण बन गया। आज लोगों का मानस पुनः प्रबुद्ध हो रहा है। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि सम्प्रदाय अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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