Book Title: Jivan Vigyana aur Jain Vidya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 85
________________ 76 जीवन विज्ञान-जैन विद्या गया। उसका शरीर ताजा का ताजा है। न सिकुड़न, न कुछ और, पूरा-का-पूरा चेहरा। किन्तु केवल प्राण नहीं रहा। वह हड्डियों का मात्र ढांचा बचा। चैतन्य उड़ गया। तो बिना सत्य के, बिना निश्चय के और बिना अध्यात्म के संगठन और संघ मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाएगा। उसमें प्राण नहीं रहेगा, उसमें तेजस्विता नहीं रहेगी, उसमें चैतन्य नहीं रहेगा। ___इन दोनों वृत्तियों की सापेक्षता हमारा मार्ग बन सकती है। न अकेला व्यक्ति मार्ग बन सकता है और न कोरा समाज मार्ग बन सकता है। दोनों का योग ही हमारे विकास की यात्रा का मार्ग बन सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का चरण और आगे बढ़ता है तो वहां ज्ञान और क्रिया का समन्वय होता है। किसने कहा दर्शन जीया नहीं जा सकता। मैं सोचता हूं जो दर्शन जीया नहीं जा सकता, वह हवाई उड़ान होता है, आकाशी कल्पना होती है, यथार्थ नहीं होता। वही दर्शन वास्तविक हो सकता है जो जीया जा सकता है। वह आदर्श किसी काम का नहीं, जो व्यवहार में न आ सके और वह व्यवहार किसी काम का नहीं, जो आदर्श तक न पहुंचाया जा सके। आदर्श और व्यवहार दोनों का योग होना चाहिए। आचार्य श्री तुलसी ने धर्म को युग की वेदी पर खड़ा कर दिया, जिससे सारे सम्प्रदाय लाभान्वित हुए हैं। आचार्यश्री जब दक्षिण यात्रा पर थे तब लोगों ने कहा-हमारे यहां अनेक आचार्य आए हैं, पर मानवता की बात करने वाले पहले आचार्य आप आए हैं। सब धर्मगुरु अपने-अपने संम्प्रदाय की बात करते हैं, परन्तु संप्रदाय से दूर रहकर मानवता की बात करने वाले पहले आचार्य आप हैं। वहां कोई भी जैन नहीं था, फिर भी नहीं लगता था कि वे जैन नहीं हैं। . धर्म के क्षेत्र में आचार्य श्री ने क्रांति की है। उन्होंने अपने शिष्यों में निष्पक्षता व तटस्थता की बात जंचा दी, जिससे उनमें सम्प्रदाय की बू नहीं आ सकती। दर्शन के क्षेत्र में भी नए मूल्यों को प्रस्तुत किया है। लाखों-लाखों लोगों से सम्पर्क बना है। इस दिशा में आचार्यश्री और उनके शिष्यों ने भगीरथ प्रयत्न किया है। परिणाम यह आया कि जो नजदीक थे वे दूर हो गये और जो दूर खड़े थे वे निकट आ गए। आप जानते हैं, महापुरुष कभी लकीर पर नहीं चलते। परम्परा का अनुगमन करने वाले सब होते हैं, परन्तु परम्परा में अपना योग देकर उसको विकसित करने वाले बिरले ही होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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