Book Title: Jivan Vigyana aur Jain Vidya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान और जैन विद्या बी. ए. (पार्ट III) : तृतीय पत्र प्रायोगिक ज्जा समाक्खा जनविश्व तीलाइन जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या : [प्रयोग] तृतीय रखण्ड [अजमेर विश्वविद्यालय तथा जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं के पाठयक्रम के अन्तर्गत "जीवन विज्ञान और . जैन विद्या" विषय में बी. ए. के तृतीय खण्ड के तृतीय पत्र के लिए स्वीकृत निर्देशन युवाचार्य महाप्रज्ञ समाकलन मुनि महेन्द्र कुमार प्रेक्षा-प्राध्यापक डॉ. पी. एम. जैन प्राचार्य, आचार्य तुलसी अमृत महाविद्यालय, गंगापुर (राज.) जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं-३४१३०६ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISB No. 81-7195-026-4 प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं ३४१३०६ ( राजस्थान) © सर्वाधिकार सुरक्षित जैन विश्व भारती इंस्टीट्यूट, लाडनूं (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं - ३४१३०६ ( राजस्थान ) द्वितीय संस्करण :- १९९९ - मूल्य : २०.०० रुपये लेजर टाइप सेटिंग राजू ग्राफिक मुद्रक: अग्रवाल प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जयपुर, फोन : ५७२२०१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन आधुनिक उच्च शिक्षा में मूल्य परक शिक्षा की समाविष्टि हेतु देशव्यापी उच्चस्तरीय चिन्तन चल रहा है। भारत का योजना आयोग भी इस दिशा में सक्रिय पग उठाने की तैयारी कर रहा है। अब यह तथ्य लगभग सर्वसम्मत बन चुका है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त चारित्रिक शून्यावकाश (vacuum) को भरना अत्यन्त अपेक्षित ही नहीं, अनिवार्य है। अन्यथा उच्च शिक्षा पर होने वाले अरबों के राष्ट्रीय व्यय के औचित्य पर लगे प्रश्नचिह्न का कोई सन्तोषप्रद उत्तर नहीं दिया जा सकता। इस प्रकार मूल्यपरक शिक्षा को वरीयता की सूची में प्राथमिक स्थान प्राप्त हो रहा है, पर साथ ही उसकी क्रियान्विति की कठिनाइयां भी अपने आप में समस्या बनी हुई है। अजमेर विश्व विद्यालय ने "जीवन विज्ञान-जैन विद्या" के विषय को बी. ए. के पाठ्यक्रम में स्थान देकर इस समस्या का एक समाधान किया है। इस पाठ्क्रम के प्रत्येक खण्ड में १५० अंक सैद्धांतिक अध्ययन के लिए तथा ५० अंक प्रायोगिक अभ्यास के लिए निर्धारित है। सैद्धांतिक अध्ययन के लिए प्रत्येक वर्ष में दो प्रश्न पत्र रखे गए हैं और प्रायोगिक अध्ययन के लिए एक प्रश्न पत्र (तृतीय पत्र) निर्धारित है। यह स्पष्ट है कि प्रायोगिक अभ्यास के बिना चरित्र-निर्माण या जीवन-मूल्यों का विकास लगभग असम्भव है। इस दृष्टि से तृतीय पत्र का मूल्य पूर्व पत्रों की अपेक्षा अधिक है। जीवन विज्ञान-जैन विद्या के प्रथम दो पत्रों में ऐसे अनेक विषयों की सैद्धांतिक चर्चा हुई है जो मनोवैज्ञानिक, शरीर वैज्ञानिक या आध्यात्मिक विकास के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को स्पर्श करती हैं। उनके साथ सम्बन्धित अनेक प्रयोगों की जानकारी प्रस्तुत पुस्तक में हैं। कुल मिलाकर तीनों वर्षों का प्रायोगिक पाठ्यक्रम सैद्धांतिक पाठ्यक्रम में चर्चित विधियों की समग्र जानकारी प्रस्तुत कर देता है। प्रस्तुत पुस्तक बी. ए. के तृतीय खण्ड (अन्तिम वर्ष) के तृतीय पत्र के 'प्रायोगिक पाठ्यक्रम को समग्रता से अपने आप में समेटे हुए है। पाठ्यक्रम के अन्तर्गत छह अभ्यास क्रम रखे गए हैं १. योगासन ४. कायोत्सर्ग २. प्राणायाम ५. प्रेक्षाध्यान ३. योगिक क्रियाएं ६. अनुप्रेक्षा इन छ: अभ्यास-क्रमों के प्रारम्भिक प्रयोग प्रथम दो वर्षों में कर लेने के पश्चात् अब तृतीय वर्ष में विशिष्ट एवं कठिनतर प्रयोगों को स्थान दिया गया है। प्रत्येक प्रयोग की विधि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को सम्यग् समझे बिना विद्यार्थी अभ्यास नहीं कर सकता। इसलिए यह अपेक्षित है कि प्रस्तुत पुस्तक में प्रदत्त विधि को विद्यार्थी पहले भलीभांति समझ ले। तत्पश्चात् इसका नियमित अभ्यास करे। अभ्यास की नियमितता ही प्रयोग को अभीप्सित परिणाम तक पहुंचा सकती है। यह भी स्पष्ट है कि निरन्तर अभ्यास किए बिना न विद्यार्थी अपने निजी जीवन में लाभान्वित हो सकेगा, और न ही परीक्षा में अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकेगा। साथ ही यह अपेक्षा भी है कि विद्यार्थी इतना अच्छा अभ्यास कर ले कि वह दूसरों को भी प्रयोग कराने की क्षमता अर्जित कर ले। प्राध्यापक/प्रशिक्षक इस बात पर अवश्य ध्यान देंगे कि विद्यार्थी कक्षा में या घर पर सभी प्रयोगों का अभ्यास क्रमश: बढ़ाता रहे। साथ ही पाठ्यक्रम में प्रदत्त मूल्यांकनबिन्दुओं की दृष्टि से प्रयोगार्थ विद्यार्थी को तैयार करना होगा। इस अपेक्षा से निम्नलिखित बातों पर अवश्य ध्यान दें १. पूर्व पाठयक्रम का पुन:-पुन: अभ्यास चालू रखवाएं। २. प्रत्येक अभ्यास विद्यार्थी स्वयं कर सके और दूसरों को करवा सके, इस प्रकार का क्रम सतत चले। ३. विधि की शब्दावली को यथारूप कण्ठस्थ करवाएं। ४. निर्देश-शैली प्रभावशाली हो, आवाज स्पष्ट एवं उचारण शुद्ध हो। ५. प्रेक्टिकल-नोटबुक को नियमित तैयार करवाएं। प्रस्तुत-प्रस्तक में समाकलन के लिए हमारे प्रेरणा-स्रोत रहे हैं-अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी। इसके साथ प्रेक्षा-आविष्कर्ता युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का अमूल्य मार्गदर्शन भी मिला, जिससे समाकलन सुचारू रूप से सम्पन्न हुआ। आचार्य श्री और युवाचार्यश्री के चरणों में अपनी अन्तश्चेतना की समग्र श्रद्धाएं समर्पित कर रहे हैं। समाकलन में प्रयुक्त पुस्तकों एवं सामग्री के लिए हम युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं मुनिश्री किशनलालजी के कृतज्ञ हैं। आशा है, जीवन-विज्ञान के छात्र-वर्ग इस प्रस्तक का लाभ उठाकर अपने व्यक्तित्व सर्वागीण विकास के लिए उसका प्रयोग करेंगे। ३१ अक्टूबर, १९९२ मुनि महेन्द्र कुमार जैन विश्व भारती, पारसमल जैन लाडनूं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-17 अनुक्रम प्रायोगिक पाठ्यक्रम (क) आसन १. पवनमुक्तासन २. भुजंगासन ३. धनुरासन ४. सर्वांगासन ५. हलासन 18 20 20 ६. मत्स्यासन (ख) प्राणायाम १. भस्त्रिका २. केवल कुंभक प्राणायाम ३. कपालभाति प्राणायाम (ग) यौगिक शारीरिक क्रियाएं १. मस्तक २. आंख ३. कान ४. मुख एवं स्वरयंत्र ५. गर्दन 21 -32 21 23 26 26 27 ६. स्कन्ध 28 29 ७. हाथ ८. सीना और फेफड़े 29 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. कमर १०. पैर ११. घुटने एवं पंजे (घ) कायोत्सर्ग (दीर्घकालीन) (ड़) प्रेक्षाध्यान १. लेश्याध्यान २. लयबद्ध दीर्घश्वास ३. भावक्रिया एवं मानसिक जागरूकता ४. एकाग्रता के विविध प्रयोग ५. अवधान (स्मृति) के प्रयोग (च) अनुप्रेक्षा १. एकत्व २. अन्यत्व ३. कर्तव्यनिष्ठा ४. स्वावलम्बन ५. सम्प्रदाय- निरपेक्षता ६. धैर्य ७. अनासक्ति 30 30 31 10 12 8 8 8 7 7 33-35 36-45 36 38 38 42 43 46-87 46 DAUN 2 * 50 53 65 72 79 82 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या बी. ए. (तृतीय खंड) तृतीय प्रायोगिक पाठ्यक्रम अंक-५० (क) आसन: १. पवनमुक्तासन ४. सर्वांगासन २. भुजंगासन ५. हलासन ३. धनुरासन ६. मत्स्यासन (ख) प्राणायाम: १. भस्त्रिका २. केवल कुंभक ३. कपालभाति (ग) यौगिक क्रियाएं निम्नलिखित शरीरांगों की क्रियाएं१. मस्तक ७. हाथ २. आंख ८. सीना और फेफड़े ९. कमर ४. मुख एवं स्वरयंत्र १०. पैर ५. गर्दन ११. घुटने एवं पंजे ६. स्कन्ध (घ) कायोत्सर्ग (दीर्घकालीन): कायोत्सर्ग कराने का प्रशिक्षण (ड) प्रेक्षाध्यान: १. लेश्याध्यान । २. लयबद्ध दीर्घश्वास का अभ्यास। ३. कान Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. भावक्रिया एवं मानसिक जागरूकता का अभ्यास । ४. एकाग्रता के विविध प्रयोग (१) केवल दीर्घश्वास, (२) खेचरी मुद्रा के साथ दीर्घश्वास, (३) श्वास-र -संयम के साथ दीर्घश्वास । ५. अवधान (स्मृति) के प्रयोग - ( १ ) अंक- स्मृति २१ अंक तक संख्या का स्मरण रखना, (२) शब्द - स्मृति १० शब्दों तक शब्दों का स्मरण रखना । (च) अनुप्रेक्षा : १. एकत्व - अनुप्रेक्षा २. अन्यत्व - अनुप्रेक्षा ३. कर्त्तव्यनिष्ठा की अनुप्रेक्षा ४. स्वावलम्बन की अनुप्रेक्षा मूल्यांकन के बिन्दु १. आसन, प्राणायाम एवं यौगिक क्रियाओं में विधि, क्रिया, प्रभाव एवं लाभ का मूल्यांकन होगा। १५ अंक आधार पर । २. कायोत्सर्ग का मूल्यांकन – निर्देश - शैली में भाषा, उच्चारण एवं विधि-पाठ के ५ अंक मिनिट) ५. सम्प्रदाय-निरपेक्षता की अनुप्रेक्षा ६. धैर्य की अनुप्रेक्षा ७. अनासक्ति की अनुप्रेक्षा ३. प्रेक्षाध्यान एवं अनुप्रेक्षा (क) निर्देश - शैली (ख) प्रयोग (ग) लयबद्ध दीर्घश्वास (५ सेकण्ड रेचक, ५ सेकण्ड पूरक, अभ्यास की अवधि ५ १५ अंक (घ) एकाग्रता (मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की पद्धति पर मूल्यांकन) १५ अंक (ड़) स्मृति - परीक्षा १५ अंक (च) पर्यवेक्षण - अभिलेख ५ अंक ४. प्रेक्टिकल नोट बुक १० अंक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) आसन 1. पवनमुक्तासन __ भूमि पर लेटकर किये जाने वाले आसनों में पवन-मुक्तासन परिपूर्ण आसन है। पवनमुक्तासन अपने नाम से ही अपनी स्थिति सूचित कर रहा है कि पवन (वायु) की बाधाओं से व्यक्ति को मुक्त करता है। वायु का दोष केवल पेट में ही नहीं रहता अपितु सम्पूर्ण शरीर के जोड़ को प्रभावित करता है। विधि- पवनमुक्तासन में अपने अनुभव एवं प्रयोगों के परिणामों के. पश्चात् विधि में थोड़ा परिवर्तन किया गया है जिससे संपूर्ण शरीर के अवयव, मांसपेशियां एवं स्नायुओं से दूषित वायु का निरसन हो सके। ___अर्ध पवनमुक्तासन- जमीन पर पीठ के बल सीधे पैर फैलाकर लेटें। शरीर के प्रत्येक अंग एवं प्रत्येक स्नायुतन्त्र को शिथिलता का सुझाव दें। श्वास मंद-मंद लेते हुए चैतन्य के प्रति सजग बने रहें।। 1. धीरे-धीरे श्वास भरते हुए दाएं पैर को दाईं ओर ले जाएं। 2. श्वास छोड़ते हुए पैर को सीधा करें। 3. श्वास भरते हुए दाहिने घुटने को मोड़कर सीने से लगाएं। एड़ी को नितम्ब से सटाए रखें। 4. श्वास छोड़ते हुए हाथों से घुटने को बांधे और घुटने पर नाक लगाएं। 5. श्वास भरते हुए गर्दन को सीधा करें। सिर को भूमि पर ले आएं। 6. श्वास छोड़ते हुए हाथों का बन्धन छोड़ें। दाएं पैर को सीधा करें। इसी तरह बाएं पैर से भी किया जाए। यह अर्ध पवन-मुक्तासन है। पवनमुक्तासन की विधि 1. श्वास भरते हुए दोनों पैरों को बिना मोड़े सीधे दाईं ओर फैलाएं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. श्वास छोड़ते हुए दोनों पैरों को सीधा ले जाएं। 3. श्वास भरते हुए दोनों घुटनों को मोड़कर सीने से लगाएं। 4. श्वास छोड़ते हुए दोनों हाथों से घुटनों को बांधे और घुटनों के मध्य में नाक लगाएं। 5. श्वास भरते हुए गर्दन को सीधा करें। सिर को पीछे भूमि पर ले आएं। 6. श्वास छोड़ते हुए हाथों का बन्धन छोड़ें। दोनों पैर सीधे फैलाएं। Nird 1. श्वास भरते हुए दोनों पैरों को बिना मोड़े सीधे बाईं ओर फैलाएं। दोनों पैर जमीन से तीन अंगुल ऊपर उठाएं। 2. श्वास छोड़ते हुए दोनों पैरों को सीधा ले आएं। 3. श्वास भरते हुए दोनों घुटनों को मोड़कर सीने से लगाए। 4. श्वास छोड़ते हुए दोनों हाथों से घुटनों को बांधे और घुटने के मध्य नाक लगाएं। 5. श्वास भरते हुए गर्दन को सीधा करें। सिर को पीछे भूमि पर ले आएं। 6. श्वास छोड़ते हुए हाथों का बन्धन छोड़ें। दानों पैर सीधे फैलाएं, दोनों पैरों को जमीन से तीन अंगुल ऊपर रखें। कुछ क्षण श्वास रोकें, जितना आराम से रोक सकें, एक से चालीस तक जितनी गिनती गिन सकें, गिनें। फिर श्वास छोड़ते हुए पैरों को भूमि पर आने दें। शरीर को शिथिल छोड़ दें। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन उपर्युक्त पवनमुक्तासन का विशिष्ट प्रकार है। इसे सामान्यतः सरलता से भी किया जा सकता है। भूमि पर सीधे लेटकर श्वास लेते हुए दोनों घुटनों को मोड़कर सीने से लगाएं। दोनों हाथों से बदलते हुए नाक का स्पर्श करें। श्वास को छोड़ते हुए गर्दन और पैरों को सीधा करें। यह पवन-मुक्तासन का सरल प्रकार है। समय- एक मिनट में एक बार करें। तीन से पांच आवृत्ति प्रतिदिन करें। अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाएं। अभ्यास की स्थिरता के पश्चात् घुटनों से नाक लगाकर रुकने के समय को तीस सैकण्ड तक बढ़ाया जा सकता है। जमीन से तीन अंगुल पैरों को ऊपर रखकर सौ तक गिनती गिनें। एक, दो मिनट अथवा सौ तक गिनती की जा सकती है। ___सावधानी और निषेध- गर्दन, मेरुदण्ड में दोष या विकृति हो तो प्रशिक्षक के निर्देश बिना पवनमुक्तासन न करें। पवनमुक्तासन बैठकर, खड़े रहकर भी किया जा सकता है। जिनके घुटनों में दर्द अथवा चोट आई हुई हो वे बैठकर अथवा लेटकर ही करें। खड़े रहकर पवनमुक्तासन करने के लिए एक पैर मोड़कर घुटने को सीने से लगाएं। लेटकर पवनमुक्तासन करते समय जमीन पर मोटी दरी अथवा कई तह की कम्बल होनी जरूरी है। अन्यथा मेरुदण्ड के मनकों पर खरोंच और रगड़ से नुकसान होने की संभावना रहती है। स्वास्थ्य पर प्रभाव- पवनमुक्तासन पूर्ण आसन है। यह शरीर के विभिन्न अवयव को प्रभावित करता है। विशेषतया पेट के अवयव इससे सकिय और व्यवस्थित होते हैं। वायु दोषों को दूर करने के लिए यह आसन उपयोगी है। पेट में गैस बनने, अम्लता को दूर करने में यह उपयोगी आसन है। कूल्हे के जोड़ों को शिथिल बनता है। पेट की मांसपेशियों को सक्रिय बनाता है। सीना और फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं। कब्ज को ठीक करता है। अपान वायु की शुद्धि करता है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वायु, पित्त और कफ होते हैं। ये तीनों शरीर में सम रहते हैं तब स्वास्थ्य ठीक रहता है। इनकी विकृति के साथ शरीर में दोष उत्पन्न होने लगता है। पवनमुक्तासन त्रिदोष का शमन करता है। वायु के दोष-डकार, हिचकियां, पेट का शूल एवं शरीर के जोड़ों के दर्द को ठीक करता ग्रन्थितंत्र पर प्रभाव- पवनमुक्तासन से प्रभावित होने वाली प्रमुख ग्रन्थियां हैं- क्लोम (पेन्क्रियाज), गोनाड्स, एड्रिनल, थाइमस, थाइराइड । क्लोम ग्रन्थि विशेष प्रभावित होती है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या क्लोम ग्रन्थि- यह छः इंच लम्बी और चपटी मिर्च के आकार की ग्रन्थि है। इसका स्थान उदर गुहा में होता है। क्लोम ग्रन्थि का स्राव पित्त-नलिका में मिलकर स्निग्ध भोजन को पचाता है। पवनमुक्तासन से यह ग्रन्थि अपना कार्य सुचारू रूप से करने लगती है। एड्रिनल और गोनाड्स वायु की विकृति से उत्तेजित होते हैं। वायु की शुद्धि से इनकी उत्तेजना में अन्तर आता है। ब्रह्मचर्य की आराधना में सहयोग मिलता है। सीने के मध्य थाइमस ग्रन्थि होती है, घुटने के दबाव से इसके स्रावों का विकास होता है जिससे श्वेत कण अधिक मात्रा में बनने लगते हैं जिससे जीवनी शक्ति बढ़ती है। वे कीटाणुओं से सुरक्षा करते हैं। घुटनों पर नाक लगाने से थायराइड ग्रन्थि पर प्रभाव पड़ता है, जिससे उसके स्रावों पर नियन्त्रण होता है। ये स्राव शरीर के विकास और स्थूलता के ह्रास में सहयोगी बनते हैं। अनुभव के प्रकाश में - अपान वायु के विकार से उदासी, निराशा, जी मिचलाना, हिचकी, वायु गोला आदि ऐसी विकृतियां होती हैं जिससे व्यक्ति पीड़ित और परेशान होता है। उदर में कई बार भयंकर पीड़ा बढ़ती है। पवनमुक्तासन के प्रयोग से वायु दोष के शमन में सहयोग मिलता है। नियमित अभ्यास से पेट के विभिन्न विकार शामिल होते हैं। कोष्ठबद्धता दूर होती है। पेट में वायु के कारण आफरा आ जाता है। पवनमुक्तासन के तीन-चार आवृत्ति से वह काफी हल्का हो जाता है। वायुविजय के लिए यह आसन बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। पवनमुक्तासन का यह विशिष्ट प्रयोग साइटिका नर्व के दोषों को दूर करता है। घुटने के दर्द में भी फायदेमंद रहा है। आसन के पश्चात् पैर को सीधा रखकर भूमि से ऊपर रखकर कुछ समय तक रुकते हैं। इससे नाभि पुनः अपने स्थान पर लौट जाती है। संपूर्ण शरीर में शक्ति और प्राण का संचार होने लगता है। इसके अन्त में स्वल्प समय कायोत्सर्ग करने से अधिक लाभ व विश्राम मिलता है। लाभ- पवनमुक्तासन बहु आयामी आसन है। इससे शरीर के विभिन्न अंग अत्यधिक प्रभावित होते हैं। इससे संपूर्ण शरीर के एक-एक जोड़ में स्नायुतंत्र में निहित दोषों का निरसन होता है। वायु-विकृति को दूर करने की दृष्टि से इसका उपयोग महत्तवपूर्ण है। पाचनतंत्र को वह सुव्यवस्थित बनाता है। अपान की वृद्धि करता है। . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन 2. भुजंगासन भुजंग संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ 'सर्प' होता है। सर्प एक फुर्तीला प्राणी है। भुजंगासन करते समय व्यक्ति के शरीर की आकृति व स्थिति सर्प के सदृश जान पड़ती है, साथ ही भुजंगासन में श्वास छोड़ते समय मुख से सर्प के फुफ्कार की आवाज होती है, इसलिए भी इसे भुजंगासन कहा जाता है। भुजंगासन को सासन भी कहते हैं। विधिः भुजंगासन का पहला प्रकार सीने और पेट के बल भूमि पर लेटें। पैर के अंगूठे भूमि का स्पर्श करते हुए परस्पर सटे रहेंगे। दोनों हाथों की हथेलियां बगल की पसलियों से एक फुट दूर रहेंगी। श्वास को भरते हुए सीने और गर्दन को धीरे-धीरे आधा फुट के लगभग ऊपर उठाएं। मुख के सर्प की - तरह फुफकार करते हुए श्वास को बाहर फेंकें। श्वास को भरते हुए सीने और गर्दन को पूरा ऊपर उठाएं। इससे नाभि तक का भाग ऊपर उठ जाएगा। गर्दन को जितना पीछे ले जा सकते हैं ले जाएं। ऊपर आकाश को देखने का प्रयत्न करें। श्वास जितना आराम से रोक सकें, रोकें। पुनः फुफ्कार करते हुए श्वास का रेचन करें और गर्दन एवं सीना भूमि की ओर ले आएं। शिथिलता की मुद्रा में विश्राम करें। भुजंगासन का दूसरा प्रकार पहले की तरह सीने के बल भूमि पर लेटें। हाथ सीने से आधा फुट दूर रहें। श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को आधा फुट ऊपर उठाएं। फुफ्कार करते हुए मुंह से श्वास को बाहर निकालें। नाक से श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएं। आराम से, सहजता से श्वास जितनी देर रोक सकें, भीतर रोकें। पुनः फुफ्कार करते हुए श्वास छोड़ें। धीरे-धीरे सीने और गर्दन को भूमि पर ले आएं। शिथिलता की मुद्रा में आएं। भुजंगासन का तीसरा प्रकार सीने के बल लेटी मुद्रा में लेटें। हाथ शरीर के बगल में सटाएँ । नाक से श्वास भरते हुए सीने को आधा फुट ऊपर उठाएं। मुंह से फुफ्कार करते हुए Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या श्वास को बाहर निकालें। पुनः श्वास भरते हुए सीने और गर्दन को ऊपर उठाएं। जितना पीछे ले जा सकें, ले जाएं। इस स्थिति में आराम से श्वास को जितना रोक सकें, रोकें, फिर फुफ्कार करते हुए मुख से श्वास छोड़े। सीने और मुख को भूमि पर ले आएं। शिथिलता की मुद्रा में आएं। स्वास्थ्य पर प्रभाव भुजंगासन का यह विशिष्ट प्रकार है। इसे वैज्ञानिक भुजंगासन कहा जाता है। भुजंगासन के पहले प्रकार में हाथों को सीने से एक फुट दूर रख कर अभ्यास करते हैं। उससे सीने और फेंफड़े को पूरा फैलने का अवसर मिलता है। हंसली, पंसली और तनुपट के विस्तार से श्वास को छोड़ते हैं तब पूरी मात्रा में प्रश्वास होता है। श्वास और प्रश्वास के इस क्रम में प्राणवायु का ग्रहण अधिक होता है और अशुद्ध वायु का निष्कासन पूरी तरह हो जाता है। जिससे रक्त का शोधन भलीभांति होता है। यह मेरुदण्ड को विशेष रूप से प्रभावित करता है। पहले प्रकार से रीढ़ की अन्तिम कशेरुका तक खिंचाव पड़ता है जिससे कमर का दर्द दूर होने लगता है। दूसरे और तीसरे प्रकार के मध्य और ऊपर के मनके और कन्धे का भाग विशेष रूप से प्रभावित होता है। पूरे पृष्ठ भाग की मांसपेशियों पर खिंचाव और शिथिलीकरण से, वे स्वस्थ और शक्तिशाली बनती हैं। भुजंगासन के इस क्रम को करते समय श्वास भरते हुए, सर्वप्रथम मुख, कन्धे को आधा फुट ऊपर उठाकर, फुफ्कारते हुए रेचन (श्वास छोड़ना) करते हैं। पुनः उसी अवस्था में पूरक (श्वास भरना) करते हुए भुजंगासन करते हैं। इससे फेफड़ों के कोष्ठकों को अधिक प्राण-वायु प्राप्त होती है। उनकी ग्राह्य शक्ति सुव्यवस्थित होने लगती है। भुजंगासन में मेरुदण्ड, कन्धे, गर्दन और मुख पर विशेष खिंचाव पड़ता है। जिससे इनके अवयवों को प्रचुर मात्रा में रक्त मिलता है। जिससे ये शक्तिशाली बनते हैं। पेड़ से लेकर आमाशय का हिस्सा भी प्रभावित होता है। पेट की क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन तंत्र, विसर्जन तंत्र पर सम्यक् दबाव डालता है, जिससे पाचन क्रिया ठीक होने लगती है। पाचन ठीक होने से मल का विसर्जन ठीक होने लगता है। पैर के अंगूठे से ले के भाग की मांसपेशियों पर खिंचाव आने से या शक्ति विकसित होती और घुटने का दर्द भी इससे सहज ही दूर होने लगता है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन भुजंगासन संपूर्ण शरीर को प्रभावित करता है। पैर के नख से लेकर सिर की चोटी तक का भाग इससे स्वस्थ बनता है।' भुजंगासन परिपूर्ण आसन है। भुजंग सर्वभक्षी कहलाता है। सब कुछ खाकर उसे पचाने की क्षमता भजंग में होती है। जठराग्नि को प्रदिप्ति देने में भुजंगासन विलक्षण है। सामान्य भुजंगासन में श्वास भरकर गर्दन, मुख और सीने को ऊपर उठाते हैं। श्वास का रेचन करते हुए सीने, गर्दन को नीचे लाते हैं। यह प्रचलित भुजंगासन है। ग्रन्थितंत्र पर प्रभाव भुजंगासन से प्रभावित होने वाली प्रमुख ग्रन्थियां निम्न हैं-थायमस, थायराइड, पिच्यूटरी और गौण रूप से एड्रिनल, गोनाड्स।। थायमस- यह सीने के मध्य में स्थित है। इसके स्रावों से स्नायु-संवर्द्धन होता है। थायमस ग्रन्थि का स्राव समुचित न हो तो स्नायुओं का विकास भलीभांति नहीं हो सकता। व्यक्ति दुर्बल होने लगता है। स्नायु संस्थान को प्रभावित करने वाली इस ग्रन्थि का स्वस्थ रहना नितान्त अपेक्षित है भुजंगासन के समय जब हथेलियों पर उठकर सीने को सीधा करते है तब 'थायमस' पर समुचित दबाव पड़ता है। जिससे वह व्यवस्थित कार्य करने लगती है। गर्दन को मोड़कर ऊपर आकाश की ओर देखते हैं, तब 'थायराइड' ग्रन्थि पर सम्यक् रूप से दबाव और खिंचाव पड़ता है परिणामतः थाइराइड ग्रन्थि के स्राव व्यवस्थित होते हैं। जिससे व्यक्ति का शरीर व्यवस्थित रूप से विकसित होता है। आकाश की तरफ दृष्टि फैलाते समय पिच्यूटरी ग्रन्थि पर खिंचाव आता है, जिससे उसके हार्मोन' के स्राव पर प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की निर्णायक शक्ति प्रादुर्भूत होती है। गौण रूप से यह एड्रिनल, गोनाड्स पर भी अपना प्रभाव डालती है। जिससे क्रोध और काम का नियमन होता है। अनुभव के प्रकाश में _ 'स्नायु-दौर्बल्य' मनुष्य जाति की विकटतम समस्या है। स्नायुओं को शक्तिशाली बनाने वाली हमारी थायमस' ग्रन्थि के हार्मोन' हैं। भुजंगासन थायमस के हार्मोन्स को प्रभावित कर स्नायु-तंत्र को शक्तिशाली बनाता है। भुजंगासन करते समय पूरा श्वास-प्रश्वास होता है जिससे रक्त शोधन की प्रक्रिया सम्यक्तया होती है। मुखमंडल रक्ताभ बनने लगता है। नख से शिख तक स्नायु-तंत्र में खिंचाव आता है। उससे स्नायुओं मैं रुका हुआ मल दूर होता है और शक्ति का Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 जीवन विज्ञान - जैन विद्या संचार होने लगता है। भुजंगासन से शरीर में सौष्ठव एवं सौन्दर्य की अभिवृद्धि होती है। इसके नियमित अभ्यास से अपच, मुहांसे, स्नायुदुर्बलता आदि पर काबू पाया जा सकता है। सावधानी और निषेध मेरुदण्ड की कशेरुकाओं में कहीं दर्द या कठिनाई हो तो भुजंगासन प्रशिक्षक की अनुमति बिना न करें। 'हार्ट अटैक' अथवा हृदय दुर्बल हो तो भी भुजंगासन नहीं करना चाहिए। हर्निया का रोगी भी यह न करे । भुजंगासन को जल्दी-जल्दी न करें। श्वास-प्रश्वास को व्यवस्थित एवं नियमित रखें। भुजंगासन के पश्चात् पेट के बल लेटकर कायोत्सर्ग करने से आसन का लाभ अधिक मिलता है । भुजंगासन का विपरीत शलभासन भी किया जाना चाहिए। उसके पश्चात् शशंकासन करने से इसके गुणों में अभिवृद्धि हो जाती है । समय- भुजंगासन की तीन से पांच आवृत्ति करें। तीन से पांच मिनट तक । गर्दन सीने को तानकर उठाते हैं उस समय श्वास ग्रहण करते हैं। श्वास छोड़ते हुए भूमितल पर जाते हैं। साधना की दृष्टि से इस आसन के समय और आवृत्ति को बढ़ाया जा सकता है। लाभ- सीने को शक्ति प्रदान करता है। कोष्टबद्धता दूर करता है। भूख को जागृत करता है। 3. धनुरासन इस आसन में शरीर की आकृति धनुषाकार हो जाती है। इसलिए इसे धनुरासन कहा गया है। इस में मेरुदण्ड धनुष की तरह मोड़ लेता है, हाथ और पैर धनुष की प्रत्यञ्चा की तरह हो जाते हैं। विधि आसन पर पेट के बल लेटें । हाथ शरीर के समानान्तर फैला दें। दोनों घुटनों को मोड़ें। पैर नितम्ब पर टिकाएं। दोनों हाथों से पैरों के टखने दृढ़ता से पकड़ें। मुंह बंद रखें। पैरों को जमीन की ओर 1 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 आसन लाने की कोशिश करें। इससे सीना और जंघा तक का हिस्सा ऊपर उठेगा। मात्र नाभि के आस-पास का हिस्सा जमीन पर सटा रहेगा। शेष शरीर का भाग उठा रहेगा। एक सप्ताह के अभ्यास के बाद शरीर को आगे-पीछे धकेलें। जिससे पूरे शरीर की मांसपेशियों की मालिस होगी। समय एवं श्वास इसे आधे मिनट से लेकर तीन मिनट तक करें। पैरों को पकड़ते हुए खिंचाव देते समय श्वास भरें और आगे झूलते समय छोड़ें। स्वास्थ्य पर प्रभाव धनुरासन, शलभासन की तरह ही स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी है। मेरुदण्ड लचीला बनता है। गर्दन और कटि भाग पर आई हुई चर्बी दूर होने लगती है। गर्दन, कंधे, कटि और हाथों पर खिंचाव आने से ये अवयव स्वस्थ सुन्दर और सुदृढ़ बनते हैं। धनुरासन से सीना, फेफड़े शक्तिशाली और सुदृढ़ बनते हैं। धनुरासन से भुजंगासन और शलभासन के लाभ स्वतः मिल जाते हैं । पैर के पंजों से लेकर सिर तक इस आसन से शरीर प्रभावित होता है। मुख्यरूप से यकृत, प्लीहा, गुर्दे, अग्न्याशय एवं आंतों की कार्य शक्ति बढ़ती है शेष सभी अङ्गों की मांसपेशियां और स्नायु सशक्त बनते हैं। नाभि/ (धरण) के टलने से शरीर में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयां उत्पन्न होने लगती हैं। इससे नाभि अपने स्थान पर लौट आती है। शरीर स्वस्थ और चित्त प्रसन्न हो जाता है। ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव पेन्क्रियाज, एड्रिनल, थायमस और थायराइड ग्रंथियां प्रभावित होती हैं। पेन्क्रियाज से इन्सुलीन नामक हार्मोन का स्राव होता है। जिससे शरीर में शर्करा का संतुलन बना रहता है। इसके अभाव में मधुमेह (Diabetes) हो जाता है। मधुमेह से मुक्ति के लिए धनुरासन बहुत उपयोगी है। निषेध हर्निया, अल्सर, प्रोस्टेट, 'हार्ट ट्रबल' (हृदय रोग), उच्च रक्त चाप आदि व्याधियां हो तो धनुरासन न करें। जिसकी प्रोस्टेट ग्लैण्ड बढ़ी हुई हो वे व्यक्ति भी इस आसन को न करें। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या लाभ इससे मेरुदण्ड स्वस्थ, हाथ-पैर के स्नायु शक्ति-सम्पन्न बनते हैं। सीने और पेट के अवयवों की अच्छी मालिस हो जाती है। धरण (नाभि डिगने की गड़बड़ ठीक हो जाती है । मोटापा कम होता है । चर्बी घटती है, कब्ज दूर होती है । वात-रोग नष्ट हो जाता है । भूख बढ़ती है, रक्त के प्रवाह में संतुलन रहता M PA 4. सर्वांगासन सर्वांगासन अपने नाम के अनुरूप सम्पूर्ण अंग की क्रियाओं को ठीक करने वाला आसन है । सर्वांगासन शीर्षासन के समस्त लाभों को सहजता से समेट लेता है । मनुष्य पैर के बल चलता है, खड़ा होता है । इस प्रकार चलने और खड़े रहने से शरीर के अवयवों को नीचे की ओर झूलते रहना होता है । इस प्रयोग से शरीर के अवयव विपरीत स्थिति में हो जाते हैं । हृदय, फेफड़े, गुर्दे एवं अन्य अवयवों को कम श्रम करना पड़ता है । रक्त परिश्रमण में भी सहज गति आ जाती है, जिससे प्रत्येक अंग को प्रचुर मात्रा में रक्त और शक्ति प्राप्त होती है । विधि भूमि पर आसन बिछाकर पीठ के बल लेटें। हाथ शरीर के बराबर फैलाएं। हथेलियां भूमि पर रहे। श्वास भरते हुए पैरों को धीरे-धीरे ऊपर उठाएं, 90 डिग्री का कोण बनाएं। श्वास छोड़ें, कुछ सैकिण्ड ठहरें। श्वास भरते हुए कमर को उठाएं। हथेलियों से सहारा देते हुए कंधे पर शरीर को सीधा सम रेखा में उठाएं। शरीर, कोहनियों, कंधों और गर्दन पर टिक जाएगा। धड़ व पैरों को । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन सीधा रखें। श्वास-प्रश्वास सहज रहेगा। ठुड्डी कंठ-कूप से लगी रहेगी। दृष्टि पैर के अंगूठों पर टिकी रहेगी। कुछ समय तक इस अवस्था में रुकें। जब वापिस मूल स्थिति में आएं तब श्वास छोड़ते हुए शरीर को धीरे-धीरे 90 डिग्री के कोण तक लाएं। श्वास भरें कुछ देर रुकें एवं पुनः श्वास को छोड़ते हुए धीरे-धीरे पैरों को भूमि की ओर ले आएं। 'विपरीत करणी मुद्रा' भी सर्वांगासन के परिवार का ही आसन है। इस आसन में सीना और ठुड्डी में थोड़ा अन्तर रहता है। पीठ के बल लेटकर पैरों को सर्वांगासन की तरह ऊपर ले जाते हैं। हाथों को कटि भाग पर रख कर सहारा देते हैं। पैर सर्वांगासन की तरह सीधे नहीं रहकर पीछे के ओर झुके रहते हैं। इसमें ठुड्डी सीने से कुछ दूर रहती। विपरीत करणी मुद्रा के गुण और लाभ सर्वागासन के समान ही है। . स्वास्थ्य पर प्रभाव सर्वांगासन स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सर्वांगासन को आसनों में प्रधान कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सर्वांगासन से कंठमणि, कन्धे, हाथ, मस्तिष्क सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। सर्वांगासन को करते समय शरीर की स्थिति विपरीत हो जाती है। शरीर के मुख्य अवयव- हृदय, फेफड़ें, आमाशय, तिल्ली, लीवर, छोटी आंत, बड़ी आंत सभी विपरीत स्थिति में आ जाते हैं। कुछ अवयव हृदय से काफी दूर होते हैं। उनको शुद्ध एवं दूषित रक्त को इच्छित अंग तक पहुंचाने में कठिनाई होती है। मस्तक को रक्त पूरी मात्रा में मिलने लगता है जिससे उसकी शक्ति और कार्य-क्षमता में वृद्धि होती है। जालन्धर बन्ध इसमें सहज लग जाता है उससे थायराइड, पैराथायराइड से सम्बन्धित दोष दूर कर देता है। गर्दन, कंधा सीना, फेफड़ों के स्नायु मृदु और सुदृढ़ होते हैं। शरीर का विकास भी सन्तुलित होता है। स्वभाव में मधुरता आती है। ग्रन्थि-तन्त्र का प्रभाव सर्वांगासन ग्रन्थि-तन्त्र को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण आसन है। थायरायड, पैराथायराइड ग्रन्थियां इस आसन से सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। थायरायड, पैराथायराइड कंठ में स्थित महत्त्वपूर्ण ग्रंथियां है। थायरायड से निकलने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 जीवन विज्ञान-जैन विद्या वाला स्राव थायराक्सिन हार्मोन है। यह हार्मोन शरीर के विकास और ास का जिम्मेदार होता है थायरायड के स्रावों में कमी होने से व्यक्ति ठिगना रहता है, उसकी लम्बाई बढ़ नहीं पाती। सर्वांगासन के अभ्यास से थायराक्सिन के हार्मोन आवश्यकता के अनुरूप निकलने लगते हैं। विशुद्धि केन्द्र के विकास से कला, काव्य, वाणी और स्वरों की मधुरता उपलब्ध होती है। थायराक्सिन के स्रावों की कमी का सीधा प्रभाव स्वभाव पर होता है। व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा होने लगता है। मोटापा, बाल झड़ना, पेशियों की कमजोरी, आलस आदि बढ़ने लगते हैं। सर्वांगासन इन सब का सीधा समाधान देता है। स्वभाव में सहिष्णुता बढ़ने लगती है। बाल झड़ने रुक जाते हैं। पेशियों की शक्ति बढ़ने से आलस दूर होने लगता है। थायराक्सिन के स्रावों की अधिकता, चयापचय की क्रिया, ऊतकों द्वारा दहन क्रिया शरीर का तापक्रम, पसीना निकलने की क्रिया तीव्र मात्रा में होने लगती है । अनिद्रा, नेत्र गोलक बाहर आना, विकृत मुखाकृति होना आदि रोगों के लक्षण दिखाई देने लगते हैं । सर्वांगासन इन सबको संतुलित बनाता है जिससे व्यक्ति का शरीर, मन और भाव संतुलित बनने लगते हैं। पेराथायराइड ग्रथि से पेराथायराक्सिन हार्मोन निकलते हैं । इनके असंतुलन से कैलशियम, फासफोरस जैसे तत्त्वों की कमी हो जाती है । जिससे हड्डियों का विकास रुक जाता है । अधिक हार्मोन स्राव होने से भी इनका असंतुलन होने लगता है । शरीर की लम्बाई बढ़ने के कारण हड्डियाँ दुर्बल होने लगती है । हल्की-सी चोट से वे चूर-चूर हो जाती है । सर्वांगासन के प्रयोग से पेराथायराक्सिन का संतुलन बना रहता है । सामान्यरूप से पिच्यूटरी, पिनियल, हायपोथेलेमस ग्रन्थियां भी इस आसन से प्रभावी होती हैं । सर्वांगासन से सभी अंग और पूरा ग्रन्थि तंत्र प्रभावित होता है । सर्वांगासन से रक्त-संचरण तंत्र शक्तिशाली और स्वस्थ बनता है । जिसका परिणाम सम्पूर्ण शरीर को मिलता है । शरीर की सुघड़ता एवं सुन्दरता इससे बढ़ती है । सचमुच सर्वांगासन जीवनी-शक्ति को संतुलित बनाए रखने वाला महत्त्वपूर्ण आसन है। समय और सावधानी आधा मिनट से प्रारम्भ करें प्रति सप्ताह आधा-आधा मिनट बढ़ाएं । तीन मिनट पर अभ्यास को स्थिर करें । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 उच्च रक्त चाप एवं दिल की बीमारी वालों के लिए यह आसन वर्जित है । यकृत व तिल्ली के बढ़ जाने पर यह नहीं करना चाहिए । लाभ सर्वांगासन से सम्पूर्ण शरीर में रक्त का संचार एवं शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । वृद्धावस्था से पड़ने वाली झूर्रिया ठीक होने लगती है । स्मरणशक्ति विकसित होती है । मसूढ़ों और दांतों की मजबूती बढ़ती है । गर्दन, गला, सीना और उदर के विभिन्न अवयव स्वस्थ होते हैं । विशुद्धि चक्र का विकास, चुल्लिका ग्रन्थि सक्रिय, रक्त शुद्धि, मस्तक में प्रचुर मात्रा में रक्त का परिसंचरण होने से उसकी क्षमता का विकास होता है । टांसिल, दमा और खांसी आदि के लिए यह आसन अत्यन्त उपयोगी है । 5. हलासन इस आसन में शरीर की आकृति खेती करने वाले साधन - हल की तरह हो जाती है । इसलिए योगियों ने इसे हलासन की संज्ञा से अभिहित किया है । हलासन सर्वांगासन की श्रृंखला का आसान है । सर्वांगासन की स्थिति के पश्चात् पैरों को सिर की ओर ले जाकर भूमितल से स्पर्श करने पर हलासन निष्पन्न होता है । विधी आसन पर पीठ के बल लेटें। दोनो पैरो को मिलाएं। हाथ शरीर के बराबर फैले रहे । हथेलीयां भुमि को स्पर्श करे । श्वास भरते हुए पैरो को धीरेधीरे ऊपर उठाएं । ९० डिग्री का कोण बनाएं । श्वास छोडें । श्वास लेकर पैरो को सिर की ओर ले जाएं पैर सीधे रहे, अगुलीयां भुमी से स्पर्श करेगी । कमर का हिस्सा मुड़ा रहेगा । अब श्वाश-प्रश्वास सहज रहेगा । श्वास ले और धीरे से मूल मुद्रा में आएं कमर व कंधे को भुमि पर लाते हुए 90 डिग्री के कोण पर ले आएं । श्वास का रेचन करें । पुनः श्वास भरे । पैरो को सीधा रखें। रुक-रुककर धीरे-धीरे भुमितल पर आ जाए । श्वास छोड़ें, शरीर को शिथल करें । " स्वास्थ पर प्रभाव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख आसन है । हलासन से दुहरा लाभ पहुंचता है । इसको करते समय सर्वांगासन सहज ही हो जाता है । सर्वांगासन से होने वाले प्रभाव स्वतः इसमें हो जाते है । सर्वांगासन के पश्चात पैरो को जब 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .14 LABER भुमितल की ओर लाते है, तब सीना ,पीठ,कंधे ,पैर,कटि का भाग ,मेरूदंण्ड में विशेष खिंचाव आता हैं, जिससे रक्त का संचार सम्यग् रूप से होता है । इससे स्नायु शक्तिशाली और सुदृढ बनते है । कंठ का स्थान , पेट के विभिन्न अवयव इससे स्वस्थ होते हैं । टोंसिल की गांठो को यह ठीक करता है । सीना, हृदय और कंधे की मांसपेशियो की अच्छी मालीश होने से ये स्वस्थ रहते है । इसमें ठहरे हुए दोष दूर होते है । हलासन से पेट का जैसे-तैसे बढ़ना रुकता है । शरीर में स्फुर्ति और गतिशीलता का विकास होता है । चर्बी दुर होती है जिससे मोटापे में कमी आती हैं । । चुल्लिका ग्रन्थि पर विशेष दबाव पड़ता है । परिणामस्वरूप चयापचय व्यवस्थित होता है । विशुद्धि चक्र को प्रभावित करने से शरीर का संतुलन बनता हैं । मेरूदण्ड की मांसपेशियों के शक्तिशाली बनने से शरीर स्वस्थ रहता है। ग्रथितंत्र पर प्रभाव हलासन से गोनाड्स , एड्रिनल, थायमस, थायरायड और पेराथायरायड विशेष रूप से प्रभावित होती है । हलासन करते समय शरीर की जो आकृति बनती है वह उदर के भीतरी अवयव, गुर्दे, छोटी आंत, बड़ी आंत, पक्वाशय, आमाशय और तनुपट को प्रभावित करती है । कंठमणि, थायरायड, पिच्यूटरी और अग्नाशय, आमाशय को प्रभावित करती है । पिनीयल के हारमोनस संतुलित होने से व्यक्ति को काम, क्रोध, संवेग आदि से छुटकारा मिलता है, ये सहज सन्तुलित होने लगते हैं । सर्वांगासन में जो ग्रन्थियां प्रभावित होती हैं हलासन में भी वे ही ग्रन्थियां हैं। समय और सावधानी आधा मिनट से प्रारंभ करें । प्रति सप्ताह आधा-आधा मिनट बढ़ाएं । तीन मिनट तक अभ्यास को स्थिर बनाएं । आसन करते और वापिस लौटते समय शीघ्रता बिलकुल न करें । उच्च रक्तचाप, दिल के दर्द, स्लिप डिस्क हो गई हो तो उन्हें यह आसन नहीं करना चाहिए । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 15 लाभ इससे कमर, गर्दन, एवं पैरों की मालिश होती है । मेरुदण्ड लचीला और शक्तिशाली बनता है जिससे व्यक्ति स्वस्थ रहता है । शरीर के वजन को कम करने के लिए यह आसन उपयोगी है । इससे मधुमेह भी ठीक होता है । 6. मत्स्यासन सर्वांगासन, हलासन के तुरन्त पश्चात् मत्स्यासन किया जाता है । यह आसन मत्स्य मछली की आकृती से मिलती हैं । अतः इसे मत्स्यासन कहा गया हैं । इस आसन में पानी पर मत्स्य के सदृश स्थिर रहा जा सकता हैं । नाक पानी से ऊपर रहता है। अतः डुबने की स्थिति नहीं बनती । तैराक योगी इस आसन में घंटो पानी में पडें रहते है । विधिः पद्मासन की स्थिति में बैठे । लेटने की मुद्रा में आने के लिए हाथों की कुहनी को धीरे-धीरे पीछे ले जाएं । पीठ पीछे झुकेगी । कुहनियों के सहारे शरीर को टिकाते हुए लेटने की मुद्रा में आ जाऐ । हाथो की हथेलीयां कन्धो के पास स्थापित कर पीठ और गंदन को ऊपर उठाएं । मस्तक का मध्य भाग भुमि से सटा रहेगा । बाएं हाथ से हाथ वहां से उठाएं दाएं पैर का अंगुठा पकडें और दाएं हाथ से बाएं पैर का अंगुठा पकडें । कमर का हिस्सा भुमि से ऊपर रहेगा । आंख खुली रहेगी। स्वास्थ्य पर प्रभाव ___ मत्स्यासन मेरुण्ड को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण आसन है । सरल-सा दिखाई देने वाला यह आसन अपने में अनेकानेक विशेषताओ को समेटे हुए है । जिसके मेरुदण्ड के मन के ठीक काम नहीं कर रहे हों उनको इस आसन से अत्यधिक लाभ मिलता हैं । मेरुदण्ड स्वस्थ रहने से शरीर स्वस्थ रहता है। हलासन में जहां मेरुदण्ड आगे की। - Rs Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 1 ओर खिंचता है वहां मत्स्यासन में उसके विपरीत खिंचाव होता है जिससे मेरुदण्ड का संतुलन बनता है। गर्दन और कन्धे में ठहरे हुए दोषों को दूर करता है । स्कन्ध सुदृढ़ और शक्तिशाली बनते हैं । आसन में पेट के भीतरी अवयवों पर दबाव पड़ता है जिससे पाचक रस पर्याप्त मात्रा में बनते हैं और जठराग्नि को प्रदीप्त करते हैं । पेंक्रियाज स्वस्थ बनता है जिससे उसके स्राव बराबर होते हैं । इससे कफ का निवारण होता है । मत्स्यासन में किया गया पद्मासन विशेष रूप से शुक्र और डिम्बग्रंथियों को प्रभावित करता है । जिससे धातुक्षय, स्वप्नदोष आदि दूर होते हैं । इस कारण व्यक्ति कांतिमान और तेजस्वी भासित होने लगता है । सीना इससे फैलता है । फेफड़े के एक-एक कोष्ठ को यह स्वस्थ बनाता है । इससे दमा, श्वास, कास आदि की पीड़ा दूर होती है । गर्दन को पीछे की ओर मोड़ कर रखने से रक्त का प्रवाह मस्तिष्क की ओर अधिक मात्रा में होता है जिससे स्मरण शक्ति का विकास होता है । थायरायड और पेराथायरायड ग्रंथियों के स्राव में संतुलन होने से शरीर का संतुलित विकास होता है । आंखों को भृकुटि के मध्य स्थिर करने से विचारों की चंचलता दूर होती है । ग्रन्थि तंत्र पर प्रभाव गोनाड्स, एड्रीलन, थायमस, थायरायड, पेराथायरायड, पिट्यूटरी और हाइपोथेलेमस - सभी ग्रंथियों पर यह सम्यक् प्रभाव डालता है । जिससे उनके स्रावों में संतुलन और नियमितता आती है । व्यक्ति की कार्यक्षमता का विकास होता है । जो व्यक्ति अधिक समय तक बैठे-बैठे कुर्सियों पर काम करते हैं उन लोगों की शक्ति को बढ़ाने के लिए और तनाव दूर करने के लिए उपयुक्त आसन I 1 है । जो व्यक्ति मेरुदण्ड को लम्बे समय तक सीधा करके ध्यान नहीं कर सकता है वह इस आसन में गर्दन को सीधा रखकर, लंबे समय तक, लेटे-लेटे ही ध्यान कर सकता है । समय और श्वास यह आसन सर्वांगासन और हलासन का विपरीत आसन है । सर्वांगासन का पूर्ण लाभ मत्स्यासन करने से ही मिलता है । श्वास-प्रश्वास दीर्घ एवं गहरा रखें । जितना समय सर्वांगासन में लगाएं उसका आधा समय इसमें लगाएं । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसन लाभ ___ मत्स्यासन से गर्दन, सीना, हाथ, पैर, कमर की नाड़ियों के दोष दूर होते हैं । आंख और कान के रोगों से तथा टांसिल, सिरदर्द से मुक्ति मिलती है । इन अवयवों में रक्त अधिक मात्रा में पहुंचने से शक्ति मिलती है । इससे सीना चौड़ा होता है । श्वास-प्रश्वास गहरा लम्बा होने से प्राण-शक्ति का विकास होता है । शरीर में स्फूर्ति और स्थिरता आने लगती है । मन-शुद्धि होने से मन की एकाग्रता बढ़ती है । ब्रह्मचर्य में सहायक बनता है । कमर-दर्द, स्वप्नदोष, स्नायु-दुर्बलता, गर्दन के दर्द व शिरःशूल से मुक्ति मिलती है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) प्राणायाम 1. भस्त्रिका भस्त्रिका संस्कृत शब्द है । लोहार की घौकनी के लिए प्रयुक्त होता है । इस यंत्र से हवा को तेजी से लेते और छोड़ते है जिससे अग्रि को प्रदीप्त किया जाता है । इसी प्रकार श्वास-प्रश्वास को तेजी से लेना और छोड़ना भस्त्रिका प्राणायाम कहलाता है विधि पद्मासन या सुखासन की मुद्रा में ठहरें । दाहिने हाथ का संपुट बनाएं और नाक के आगे लगाएं जिससे दूसरों पर नाक की हवा और श्लेष्म के छींटे न गिरें । रेचन और पूरक बिना रुके गति से 4 से 10 बार करें। इसके पश्चात् पूरा रेचन करें, कुछ क्षण कुंभक करें, फिर दाएं नथूने से श्वास लें, पूरक करें, कुछ क्षण कुंभक करें, पुन: इसी प्रकार रेचन करें, तीन प्राणायाम से प्रारंभ करें । प्रतिदिन एक-एक बढ़ाकर इक्कीस तक ले जाएं । अधिक करने वालों को शिक्षक का निर्देष लेना चाहिए । भस्त्रिका के सामान्य प्रयोग में बिना कुंभक के जैसे श्वास-प्रश्वास आता है उसे तीव्र गति से लयबद्ध रूप से लोहार की धौंकनी की तरह श्वास प्रश्वास करना होता है । श्वास-प्रश्वास के दस से बीस बार ऐसा करने पर एक बार गहरा लंबा श्वास लेकर कुछ क्षण कुंभक करें । इस प्रकार पहले दिन एक प्राणायाम, फिर धीरे-धीरे ग्यारह प्राणायाम तक बढ़ाएं । केवल श्वास-प्रश्वास करते समय दोनों की सम स्थिति रहनी आवश्यक है । भस्त्रिका का एक प्रयोग अनुलोम-विलोम प्राणायाम क्रम से भी किया जा सकता है। श्वास लेते समय बाएं रंध्र का प्रयोग करें। दाए रंध्र को हाथ के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणायाम 19 अंगुष्ठक के बंद रखें। फिर अंगुष्ठक हटाकर रेचन करें। पुनः उसी नासिका छिद्र से पूरक करें। बाईं नासिका के छिद्र को अंगुष्ठक से बंद करें। बाई नासिका से रेचन करें। पुन: उसी नासिका के पूरक करें। इस प्रकार अनुलोम-विलोम क्रम से समवृत्ति प्राणायाम से भस्त्रिका का क्रम तीन मिनट से पांच मिनट तक करें । श्वास-प्रश्वास की तीव्र गति से, भस्त्रिका के भीतर चमड़ी पर घात प्रत्याघात होने से, वहां की चमड़ी की कोशिकाओं से रक्त भी कभी-कभी बाहर आने लगता है। यदि ऐसा हो तो नासिका में भी गौ के धृत की दो-चार बूंद डालने से नासिका की चमड़ी स्निग्ध हो जाती है जिससे रक्त एवं उष्मा शांत रहती है । भस्त्रिका का प्रयोग ग्रीष्म काल में सीमित ही करें क्योंकि उससे ऊष्मा बढ़ती है । लाभ भस्त्रिका से शक्ति - जागरण, व्याधि-नाश और नाड़ी शोधन होता है। चित्त की निर्मलता बढ़ती है। भूख अच्छी लगती है। अपच, मंदाग्नि के दोष दूर होते हैं । सूक्ष्म भस्त्रिका प्राणायाम सूक्ष्म भस्त्रिका प्राणायाम शक्ति जागरण के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। ज्ञान केन्द्र व शक्ति केन्द्र पर मन को नियोजित कर सूक्ष्म भस्त्रिका के द्वारा केन्द्रों को जागृत एवं शक्तिशाली बनाया जाता है जिससे शक्ति और ज्ञान आदि को प्रकट होने का अवसर प्राप्त होता है। सूक्ष्म भस्त्रिका में पूरक और रेचन की क्रिया केवल केन्द्रों पर ही की जा सकती है। इसमें श्वास - उच्छ्वास की क्रिया सूक्ष्म एवं त्वरित गति से होती है। विधि - पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि किसी का प्रयोग करें। गर्दन और सीने को सीधा रख शरीर को शिथिल छोड़ दें। धीरे-धीरे पूरक कर श्वास पूरा भरें । बायां हाथ घुटने पर स्थापित करें। दाएं हाथ की अंगुलियों को मोड़कर नाक के आगे रखें। बिना कुंभक किए नाक से तीव्रगति से रेचन करें। रेचन के समय ठहरें नहीं । बलपूर्वक मांसपेशियों को सिकोड़ते हुए श्वास-प्रश्वास करें। श्वासप्रश्वास की टकराहट हाथ की अंगुलियों पर लगेगी। इसके बाद पूरक, आभ्यन्तर कुंभक करें। उसके पश्चात् रेचन द्वारा श्वास को बाहर निकाल दें। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 समय बीस-पच्चीस बार ऐसी क्रिया करने के पश्चात् एक बार दीर्घ पूरक करें, रेचक कर पुन: वैसी ही सूक्ष्म भस्त्रिका की जाती है। इस क्रम को धीरे-धीरे अपनी क्षमतानुसार बढ़ाया जाता है। लाभ नाड़ी-शुद्धि, संतुलन, सक्रियता और तेजस्विता उत्पन्न होती है। ऊष्मा और प्राण-शक्ति बढ़ती है। इससे रोग क्षीण होते हैं । जीवन विज्ञान - जैन विद्या 2. केवल कुंभक प्राणायाम सहज प्राणायाम में पूरक और रेचक क्रिया के समय अकस्मात् बीच में ही रुकें। उस समय श्वास- उच्छ्वास जहां हो वहीं ठहरें, पूरक और रेचक की क्रिया आगे न करें। इससे मन की स्थिरता एवं शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम की समस्त प्रक्रिया को योग्य शिक्षक के निर्देशन में करने से उसके लाभकारी परिणाम शीघ्र प्राप्त होते हैं। 3. कपालभाति प्राणायाम कपालभति घेरण्ड संहिता में तीन प्रकार की बताई है: 1. वातक्रम कपालभाति । 2. व्युतक्रम कपालभाति । 3. शीतक्रम कपालभाति । वातक्रम : इडा / बाएं से वायु भरकर पिंगला / दाएं से बाहर निकालें, फिर दाहिने स्वर से पूरक कर बाएं से रेचन करें। इन दोनों क्रियाओं के करते समय शीघ्रता न करें। यह वातक्रम कपालभाति है । व्युतक्रमः श्वास की जगह पानी को दोनों नथूनों से खींचकर मुख से निकालने को व्युतक्रम कपालभाति कहा है। शीतक्रम : मुख से शीतकार करते हुए वायु को ग्रहण करें। दोनों नथूनों से निकाल दें। यह शीतक्रम कपालभाति है। वायु के स्थान पर पानी का उपयोग किया जा सकता है। जल नैति के प्रयोग के पश्चात् श्वास को धक्के से रेचन कर अंदर ठहरे हुए जल को बाहर निकाला जाता है। इसे भी कपालभाति कहा गया है। लाभ कफ दोष-निवृत्ति तथा कांति एवं मुखमण्डल की आभा का विकास। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौगिक शारीरिक क्रियाएं (ग) यौगिक शारीरिक क्रियाएं विश्व का श्रेष्ठतम और जटिलतम यदि कोई यंत्र हो सकता है तो वह मानव का शरीर है। मानव-शरीर की संरचना इस प्रकार से निर्मित हुई कि जिसे निरन्तर सक्रिय एवं व्यवस्थित बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक है। उसकी संपूर्ति यौगिक क्रिया करती है। शरीर की इस सक्रियता एवं स्वस्थता को बनाए रखकर ही साधना के परिणामों को प्राप्त कर सकते हैं। शरीर को सक्रिय और व्यवस्थित बनाने की दृष्टि से यौगिक शारीरिक क्रियाएं प्रेक्षा-प्रविधि का महत्त्वपूर्ण अंग है। देश, काल और समाज की परिस्थितियों से गजरते व्यक्तिके लिए यह कठिन होता जा रहा है कि वह योगासन और व्यायाम में अधिक समय लगा सके। किसी के पास समय का अभाव नहीं होता तो उसे स्थान की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बढ़ती शहरी सभ्यता ने मनुष्य के जीवन को प्रकृति से दूर कर दिया है। उसके पास शारीरिक श्रम करने के लिए न खेत है और न घूमने के लिए खुला मैदान है कि जहां शुद्ध प्राणवायु को ग्रहण कर वह स्वस्थता को उपलब्ध कर सके। उसे तंग बस्तियों में भीड़ भरे रास्तों से गुजरना होता है। आवास के लिए उसे छोटे-छोटे फ्लेटों में पूरे परिवार का गुजारा करना होता है। इससे भी अधिक आज व्यक्ति इतना अनियमित जीवन जीने लगा है कि चाहने के बावजूद भी योगासन, प्रेक्षा-ध्यान एवं ऐसी कोई अन्य प्रविधि के लिए अपने समय को लगा नहीं पाता। क्रियाओं का प्रभाव शारीरिक, मानसिक पीड़ाओं से ग्रस्त कुछ लोग इस अभ्यास क्रम की ओर प्रवृत्त होते हैं, किन्तु निरन्तरता बनाए रखना उनके लिए कठिन हो जाता है। समय के अभाव में आसनों के लाभ से वंचित न रहे, उनके लिए सूक्ष्म क्रियाएं आवश्यक हैं। यौगिक शारीरिक क्रियाएं शरीर और मन दोनों को स्वस्थ बनाती हैं। जो व्यक्ति शरीर की दृष्टि से रुग्ण वृद्ध अथवा अशक्त है, उसके लिए भी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 जीवन विज्ञान-जैन विद्या यौगिक शारीरिक क्रियाओं से सम्पूर्ण शरीर के सन्धिस्थलों में लचीलापन एवं कर्मजा शक्ति का विकास होता है। मांसपेशियों में स्फूर्ति तथा स्नायु-संस्थान में सक्रियता बढ़ती है। रक्त-संचार सुव्यवस्थित होने लगता है। मन प्रसन्न और चित्त प्रशान्त होने लगता है। जिससे प्रज्ञा प्रगट होती है। स्वस्थे चित्त बुद्धयः प्रस्फुरन्तिस्वस्थ चित्त में प्रज्ञा प्रगट होती है। यौगिक शारीरिक क्रिया मन, श्वास और काया के संयोग से जो क्रियाएं बनती हैं वे यौगिक क्रियाएं हैं। योग से उत्पन्न क्रियाओं को भी यौगिक क्रिया कहा गया है। 'योग' शब्द युनूंन्र् योगे से बना है जिसका तात्पर्य है जोड़ना, संधित होना। योग का दूसरा अर्थ युजङ् समाधौ धातु से बनता है जिसका अर्थ है समाधान करना। यौगिक क्रियाएं शरीर, श्वास और मन का समन्वय और समाधान प्रस्तुत करती हैं । यौगिक क्रियाओं से शरीर, श्वास और मन का संतुलन बनाने का प्रयास किया गया है। . शरीर के अवयवों को सक्रिय और प्राणवान बनाने के लिए तेरह यौगिक क्रियाओं का प्रणयन किया गया है। इनमें से मेरुदण्ड और पेट व श्वास की क्रियाओं का अभ्यास आप कर चुके हैं। मेरुदण्ड को लचीला बनाने के लिए उपयोगी एवं स्वभाव-परिवर्तन के लिए मेरुदण्ड की आठ क्रियाएं हैं। पेट और श्वास की दस क्रियाएं जहां पाचन-तंत्र को ठीक करती है वहां श्वास-प्रश्वास को दीर्घ एवं सम्यक् बनाती है। प्रेक्षाध्यान में यौगिक क्रियाओं से शरीर के प्रत्येक अवयव को साधना के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया गया है। जिससे साधक प्रेक्षाध्यान के प्रयोगों में सरलता से प्रवेश कर सके। यौगिक शारीरिक क्रियाओं की प्रविधि ___ यौगिक शारीरिक क्रिया की इस प्रविधि को प्रयोग में लाने के लिए कोई विशेष स्थान एवं व्यवस्था की अपेक्षा नहीं होती। केवल स्वच्छ और हवादार स्थान पर्याप्त होता है। इस पूरे प्रयोग को एक साथ करने में लगभग 15 मिनट लगते हैं। समयाभाव में इस प्रयोग को खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। यह अभ्यास मस्तक से लेकर पैर तक विभिन्न अवयवों पर क्रमशः ग्यारह क्रियाओं में पूर्ण होता है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौगिक क्रियाओं को प्रारम्भ करने से पूर्व अपने इष्ट को नमन करें । प्रेक्षा- ध्यान साधक का इष्ट है " अर्हं " अर्थात् अनंत शक्ति - संपन्न चैतन्य । अर्ह वन्दन के लिये वन्दना आसन में पंजों के बल ठहरें । विनम्रता से हाथ जोड़ें। श्वास भरें। 'वन्दे' कहते समय मेरुदण्ड सीधा रखें। अर्हम्. बोलते समय नीचे भूमि-तल पर मस्तक लगाएं। श्वास का पूर्ण रेचन करें। धीरे-धीरे पूरक करते हुए पूर्व अवस्था में आ जाए। इस क्रिया को तीन बार करें। इससे स्मृति विकसित होती है। दीर्घश्वास का अभ्यास बढ़ता है। पहली क्रिया - मस्तक के लिए मस्तक से प्रारम्भ होने वाली यह प्रथम क्रिया है। पैर के दोनों पंजे मिलाकर खड़े हों । दृष्टि सम्मुख रखें। हाथ जंघा से सटे हुए रहे। चित्त को मस्तक पर केन्द्रित करें । नौ बार श्वास-प्रश्वास करें । अनुभव करें कि मस्तिष्क के एवं प्राणमय बन रहे हैं । 'स्नायु सक्रिय ललाट, कनपटी और मस्तिष्क के स्नायुओं को खिंचाव देकर शिथिल छोड़ दें। यह मस्तिष्क की क्रिया है । इससे मस्तिष्क के दोषों का निरोध होता है। स्मृति एवं मस्तिष्क की शक्ति का विकास होता है । • 23 A दूसरी क्रिया- आंख के लिए आंखों की इस क्रिया में गर्दन सीधी और स्थिर रखें। क्रिया के समय गर्दन को किसी प्रकार की गति न दें। आंखों की इन क्रियाओं को सात भागों में विभाजित किया गया है Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 1. पूरक करते हुए आंखों के गोलकों को ललाट की ओर ले जाते हुए आकाश को देखें। रेचन करते हुए आंखों के गोलकों को नीचे की ओर लाते हुए पंजों की ओर देखें। इसकी पांच आवृत्ति करें। 2. पूरक करते हुए आंखों के गोलक को दायीं ओर ले जाएं। रेचन करते हुए गोलक को बायीं ओर ले जाएं । जितना पीछे की ओर देख सकें, देखें। इसकी पांच आवृत्ति करें। . 3. पूरक कर दोनों गोलकों को दाहिने कोण में ऊपर ले जाएं। रेचन करते हुए गोलकों को बाएं कोण में ले जाएं। यह तिरछी कोणात्मक क्रिया है। इसे पांच बार दुहराएं। 4. पूरक कर दोनों गोलक को बाएं कोण में ऊपर ले जाएं। रेचन कर गोलक को दाएं कोण में नीचे लाएं। पांच आवृत्ति करें। ____5. पूरक कर कुम्भक करें, आंखों के गोलको को गोलाकार दाएं से बाएं घुमाएं, पांच आवृत्ति करें। इसी क्रिया को बाएं से दाएं गोलाकार घुमाएं। 6. रेचन कर कुम्भक करें। आंखों को तेजी से टिमटिमाएं। पूरक करें तथा पुनः रेचन कर कुम्भक करें। तीव्रता से आंखों को टिमटिमाएं। 7. दोनों हथेलियों को परस्पर घर्षण कर गर्म करें। हल्के स्पर्श से Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 हथेलियों द्वारा आंखों पर मालिश करें। हथेलियों का संपुट बनाकर आंखों को हथेलियों से ऐसे ढकेँ, जिससे अन्दर सघन अंधेरा हो जाए आंखों को खुली रखकर अंधेरे में तेजी से टिमटिमाएं। अंगुलियों के छिद्रों से आते हुए प्रकाश को देखें। धीरे-धीरे अंगुलियों को ऐसे खोलते जाएं जिससे पूरा प्रकाश हो जाए । लाभ- आंखों के रोग दूर होते हैं। ज्योति बढ़ती है । मोतियाबिंद नहीं हो सकता है। आंखों की रोशनी बराबर बनी रहती है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 - Salt तीसरी क्रिया-कान के लिए कानों में तर्जनी (अंगुठे के पास वाली अंगुली) डालकर दाएं बाएं घुमाएं। कानों के बाहरी भाग को चारों तरफ से मालिश कर ऊपर-नीचे खीचें। हथेलियों से दोनों कानों को दबाकर अन्तर-ध्वनि सुनें। श्वास-प्रश्वास सामान्य रहेगा। । लाभ-कान संपूर्ण शरीर का प्रतिनिधि है। कान की इस क्रिया से अनेक रोग शान्त होते हैं। कान बहना ठीक होता है, सुनने की शक्ति का विकास होता है। आलस्य दूर होता है विवेक स्फुरित होता है। चौथी क्रिया- मुख एवं स्वरयन्त्र के लिए मुख में श्वास को पूरा भरें। जिससे कपोल (गाल) फूल जाएं। दो-तीन बार इस क्रिया को दोहराएं। दोनों तरफ से दांतों और जबड़ों को परस्पर सटाकर दबाएं। मुख को खोलें दाहिने हाथ की तीन अंगुलियों को दांतों के बीच से भीतर गले की ओर ले जाएं। आ ........ आ ...... आ ....... की ध्वनि करें। लाभ-कपोलों पर झुर्रियां नहीं उभरती। दांत की बीमारियां दूर होती है, आवाज साफ होती है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवी क्रिया-गर्दन के लिए (अ) श्वास को भरें। गर्दन को पीछे पीठ की ओर ले जाएं। आकाश की ओर देखें। श्वास को छोड़ते हुए ठुड्डी को सीने से लगाएं। इस क्रिया को पांच बार दोहराएं। (ब) रेचन करते हुए गर्द को दाएं कंधे की तरफ मोड़ें। दृष्टि पीछे की ओर ले जाएं। पूरक करें। फिर रेचन करते हुए बाएं कंधे की ओर मोड़ें। इस क्रिया को पांच बार दोहराएं। Vi • .......... www Ve 27 --- Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 (स) गर्दन को दायें-बायें दोनों ओर से गोल घुमाएं। विधि-पूरक हुए ठुड्डी को कंठ-कूप में लगाएं, आंखें बन्द रहे, दाहिने कंधे की ओर ठुड्डी का स्पर्श करते हुए पीठ की ओर गर्दन ले जाएं, बाएं कान को बाएं कंधे से छुते हुए ठुड्डी को कंठ-कूप में लगाएं, आंखें बन्ध कर लें। इस क्रिया को बायीं ओर भी दोहराएं। तीन-तीन आवृत्ति करें। (द) श्वास को भर कर सिर और गर्दन को दाहिनी और झुकाएं, कान कन्धे को स्पर्श करेंगे। सिर को सीधा कर रेचन करें । पूरक कर बायीं ओर सिर को झुकाएं, कान कंधे को स्पर्श करेंगे । सिर और गर्दन को सीधा कर रेचन करें। तीन आवृत्ति करें। लाभ-गर्दन का दर्द दूर होता है । आंखें और मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। छठी क्रिया-स्कन्ध के लिए (अ) पूरक करते हुए कंधों को उपर उठाएं । रेचन करते हुए कंधों को नीचे ले जाएं । मुट्ठी बन्द रखें । हाथ सीधे रहें । क्रिया को नौ बार दोहराएं । (ब) हाथों को मोड़कर अंगुलियों को कन्धे पर रखें । पूरक करे । तीन बार हाथों को ..... आगे-पीछे की ओर गोल घुमाएं । फिर रेचन करते हुए तीन बार हाथों को पीछे से आगे की ओर घुमाएं । लाभ-कंधों की शक्ति बढ़ती है । जोड़ों का दर्द दूर होता है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 सातवीं क्रिया-हाथों के लिए (अ) हाथों को सामने की ओर सीधा फैलाएं । पूरक करते हुए छोटी अंगुली से एक-एक अंगुली को सक्रिय करें । । (ब) रेचन करके फिर पूरक करें। हथेली एवं कलाई तक के भाग को पांच बार ऊपर नीचे करें तथा कलाई को गोल घुमाएं, हाथ सीधा रखें । (स) पांच बार कुहनियों को मोड़ें और सीधा करें । (द) अन्त में पूरे हाथ को सीधा करके गति से दाएं-बाएं घुमाएं । प्रत्येक क्रिया की पांच आवृत्ति करें। . लाभ- हाथों, अंगुलियों की शक्ति बढ़ती है । आठवीं क्रिया-सीने और फेफड़े के लिए श्वास को भरें हाथों को शेर के पंजे की तरह सामने की ओर झटके के साथ रेचन करते हुए फैलाएं । हाथों को पूरक करते हुए सीने की तरफ ऐसे लाएं जैसे कि पूरी ताकत से कोई रस्सा खींच रहे हो । फिर हाथों को सीने से कंधे तक फैलाएं । तीन बार करें। .. लाभ- सीने और फेफड़े की शक्ति बढ़ती है । र ब www.in Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 नवी क्रिया- कमर के लिए (अ) श्वास को भरें । हाथों को ऊपर ले जाएं । पेट को आगे की ओर तथा कंधों को पीछे ले जाएं । रेचन करते हुए आगे झुकें । ललाट से घुटनों का स्पर्श करने की कोशिश करें। हाथ-पैर के पंजों को स्पर्श करें या पार्श्व में रहे । श्वास भरते हुए हाथ । ऊपर उठे एवं पीछे झुकें । रेचन कर । फिर आगे झुकें । तीन बार इस क्रिया S को दोहराएं। (ब) रेचन करते हुए कटि भाग को बायीं ओर झुकाएं । बायां हाथ बाएं घुटने की ओर नीचे ले जाएं, दाएं हाथ को सिर पर होते हुए बायीं ओर लाएं। इस क्रिया को दायीं ओर झुक कर करें । इसकी तीन आवृत्ति करें। लाभ- कमर के दोष दूर होते हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 यौगिक शारीरिक क्रियाएं दसवीं क्रिया- पैरों के लिए पूरक करते हुए पैर के पंजों पर खड़े रहे । फिर रेचन करते हुए एड़ी को जमीन पर रख दें । पूरक करते हुए एड़ी पर खड़े रहे। . पंजे जमीन से ऊपर रहेंगे रेचन करते हुए पंजों को भूमि पर रखें । प्रत्येक क्रिया को पांच बार दोहराएं। लाभ- ऐडी का दर्द एवं पंजे के दोष का परिहार होता है । Minarumentill ग्यारहवीं क्रिया-घुटने एवं पंजों के लिए . (अ) दाएं घुटने को मोड़कर ऐड़ी से नितम्ब को पांच बार ताड़ित करें । ऐसा ही बाएं घुटने को मोड़कर करें। ____ (ब) फिर घुटनों की ढक्कनियों को पांच बार ऊपर नीचे करें । ___ (स) कटि पर हाथ रखें । दोनों पैरों के बीच एक फुट का अन्तर रखें । धीरेधीरे घुटनों को आगे सामने की ओर मोड़ें । रेचन करें पूरक कर ऊपर आएं । कमर, धड़, सिर सीधा रहे । इस क्रिया को पांच बार करें। (द) घुटनों को दायीं ओर मोड़ें रेचन करें । कमर को सीधा रखते हुए झुकें । फिर पूरक करें । घुटनों को बायीं ओर मोड़ें । रेचन करें । कमर को सीधा रखें । इसे तीन बार करें । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या 32 (इ) दोनों पंजों को मिलाकर खड़े रहें ।रेचन कर घुटनों को मोड़ें और दाएं-बाएं गोलाकार पांच बार घुमाएं । (ई) दाहिने पँर को पिंडली की ओर नीचे की ओर ... लाकर के पंजे को भूमि से थोड़ा ऊपर कर फिर नीचे मोड़ें । ऐसा ही दूसरे पैर से करें । . (उ) पैर की एक-एक अंगुली को सक्रिय करें । फिर दाएं से वाएं ओर बाएं से दाएं पैर को गोलाकार धुमाएं । ऐसा ही दूसरे पैर से करें । इसे तीन बार करें । लाभ- घुटने, पिण्डली, पंजे तथा अंगुलियों का दर्द दूर होता है । शक्ति का संचार होता है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) कायोत्सर्ग दीर्घकालीन [ कार्योत्यर्ग खडे रहकर, बैठकर और लेटकर तीनो मुद्राओं में किया जाता हैं । खड़े रहकर करना उत्तम कायोत्सर्ग, बैठकर करना मध्यम कायोत्सर्ग, लेटकर करना सामान्य कायोत्सर्ग है । 1. खडे रहकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा :- सीधे खडे रहें । दोनो हाथ साथल पर सटे रहें । दोनो पैरों के मध्य आधा फुट का फासला रहे । मेरुदण्ड और गर्दन सीधी रहे । सिर थोडा झुका हुआ । ठुड्डी छाती से चार अंगुल ऊपर हो । 1 2. बैठकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा :- सुखासन में बैठें । मेरुदण्ड और गर्दन को सीधा रखें । ठुड्डी छाती से चार अंगुल ऊपर हो । ब्रह्म मुद्रा- बांई हथेली नाभि के नीचे और दाहिनी हथेली बांई हथेली के ऊपर स्थापित करें । अंगुठे एक-दुसरे से सटे रहेंगे । 3. लेटकर कायोत्सर्ग करने की मुद्रा :- पीठ के बल लेटें । दोनो पैरों के मध्य एक फुट का फासाला रहे । दोनो हाथ शरीर के समानान्तर आधा फुट की दुरी पर रहें । हथेलीयां आकाश की तरफ खुली रखें । र्गदन और सिर शिथिल रहे । आँखे कोमलता से बन्द रहे । शरीर स्थिल रहे । I पहला चरण कायोत्सर्ग के लिए तैयार हो जाएं। कायोत्सर्ग का प्रारम्भ खड़े-खड़े होगा । लेटने जितने स्थान की व्यवस्था कर, खड़े-खड़े कायोत्सर्ग का संकल्प करें । "तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए ठामि काउसग्गं ।" "मैं शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त होने के लिए कायोत्सर्ग का संकल्प करता हूं।" (कायोत्सर्ग की अवधि निश्चित करने का निर्देश दें ।) (तीन मिनट) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 जीवन विज्ञान-जैन विद्या दूसरा चरण सीधे खड़े रहें। दोनों हाथ साथल से सटे रहें। एड़ियां मिली हुई, पंजे खुले रहें। श्वास भरते हुए हाथों को ऊपर की ओर ले जाएं। पंजों पर खड़े होकर पूरे शरीर को तनाव दें। श्वास छोड़ते हुए हाथों को साथल के पास ले आएं और शिथिलता का अनुभव करें। [इस प्रकार तीन आवृत्तियों द्वारा क्रमशः तनाव और शिथिलता की स्थिति का अनुभव कराएं।] (तीन मिनट) तीसरा चरण पीठ के बल लेटें। दोनों पैर मिले हुए हों। दोनों हाथों को सिर की ओर फैलाएं। जितना तनाव दे सकें, साथ में मूल बन्ध का प्रयोग करें। फिर शरीर को शिथिल छोड़ दें। [इस प्रकार तीन आवृत्तियों द्वारा क्रमशः तनाव और शिथिलता की स्थिति का अनुभव कराएं।] दोनों पैरों के मध्य में एक फुट का फासला रहे। हाथों को शरीर के समानान्तर आधा फुट की दूरी पर फैलाएं। कायोत्सर्ग की मुद्रा में आ जाएं, आंखें बन्द, श्वास मन्द। शरीर को स्थिर रखें। प्रतिमा की भांति अडोल रखें। पूरे कायोत्सर्ग काल तक पूरी स्थिरता। ......... प्रत्येक अवयव में सीसे की भांति भारीपन का अनुभव करें। (एक मिनट) प्रत्येक अवयव में रुई की भांति हल्केपन का अनुभव करें। (दो मिनट) चतुर्थ चरण श्वास मन्द और शांत । दाएं पैर के अंगूठे पर चित्त को केन्द्रित करें। शिथिलता का सुझाव दें-अंगूठे का पूरा भाग शिथिल हो जाए ....... अंगूठा शिथिल हो रहा है। अनुभव करें- अंगूठा शिथिल हो गया है। इसी प्रकार अंगुली, पंजा, तलवा, एडी, टखना, पिण्डली, घुटना, साथल तथा कटिभाग को क्रमशः शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। इसी प्रकार बाएं पैर के अंगूठे से कटिभाग तक प्रत्येक अवयव पर चित्त को केन्द्रित करें, शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। (सात मिनट) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग 35 पेडू का पुरा भाग, पेट के भीतरी अवयव-दोनों गुर्दे, बड़ी आंत, छोटी आंत, पक्वाशय, अग्न्याशय, आमाशय, तिल्ली, यकृत, तनुपट। .. ___ छाती का पूरा भाग-हृदय, दायां फेफड़ा, बायां फेफड़ा, पसलियां, पीठ का पूरा भाग-मेरुदण्ड, सुषुम्ना, गर्दन । दाएं हाथ का अंगूठा, अंगुलियां, हथेली, मणिबन्ध से कोहनी और कोहनी से कन्धा। इसी प्रकार बाएं हाथ के प्रत्येक अवयव पर चित्त को केन्द्रित करें। (तीन मिनट) कंठ, स्वर-यंत्र, ठुड्डी, होठ, मसूढ़े, दांत, जिह्म, तालु, दायां कपोल, बायां कपोल, नाक, दायीं कनपटी, कान, बांई कनपटी, कान, दायीं आंख, बायीं आंख, ललाट और सिर, प्रत्येक को शिथिलता का सुझाव दें और उसका अनुभव करें। (पांच मिनट) शरीर के प्रत्येक अवयव के प्रति जागरूक रहें। शरीर के चारों ओर श्वेत रंग के प्रवाह का अनुभव करें। शरीर के कण-कण में शांति का अनुभव करें। (दस मिनट) श्वेत प्रवाह में शरीर बहता जा रहा है। जैसे पानी की धारा में तिनका, लकड़ी का टुकड़ा अथवा शव बहता है उसी प्रकार शरीर को श्वेत प्राण के प्रवाह में बहने दें ........ बहने दें ............ अनुभव करें-शरीर बहता जा रहा है। पांचवा चरण _ पैर के अंगूठे से सिर तक चित्त और प्राण की यात्रा करें। (तीन बार सुझाव दें) अनुभव करें-पैर से सिर तक चैतन्य पूरी तरह से जागृत हो गया है। ........ प्रत्येक अवयव में प्राण का अनुभव करें। तीन दीर्घश्वास के साथ कायोत्सर्ग सम्पन्न करें। दीर्घ श्वास के साथ प्रत्येक अवयव में सक्रियता का अनुभव करें। बैठने की मुद्रा में आएं। शरण सूत्र का उच्चारण करें। "वंदे सच्चं" से कायोत्सर्ग संपन्न करें। (कोई व्यक्ति अगर कायोत्सर्ग सम्पन्न होने पर न लौटे तो उसका स्पर्श न करें, जगाएं भी नहीं। प्रशिक्षक स्वयं निरीक्षण करें।) (पांच मिनट) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ङ) प्रेक्षाध्यान 1. लेश्याध्यान प्रत्येक मनुष्य के शरीर के चारों ओर एक आभामंडल होता है। उसके रंग भाव-परिवर्तन के साथ बदलते रहते हैं। भाव और आभामंडल का गहरा संबंध है। हम भाव-शुद्धि के द्वारा आभामंडल को विशुद्ध बना सकते हैं। और आभामंडल की विशुद्धि से भाव की विशुद्धि को जाना जा सकता है। आनन्द केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान अनुभव करें-अपने चारों ओर पन्ने की भांति चमकते हुए हरे रंग का प्रकाश फैल रहा है। हरे रंग के परमाण फैल रहे हैं। अब इस हरे रंग का श्वास लें। अनुभव करें-प्रत्येक श्वास के साथ हरे रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को आनन्द केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए हरे रंग का ध्यान करें। - (कुछ समय बाद) अनुभव करें- आनन्द केन्द्र से हरे रंग के परमाणु निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रहे हैं। पूरा आभामंडल हरे रंग के परमाणुओं से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें। ...... अनुभव करें, भावधारा निर्मल हो । रही है, भावधारा निर्मल हो रही है, भावधारा निर्मल हो रही है। विशुद्धि केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान अनुभव करें-अपने चारों ओर मयूर की गर्दन की भांति चमकते हुए नीले रंग का प्रकाश फैल रहा है। नीले रंग के परमाणु फैल रहे हैं। अब इस नीले रंग का श्वास लें। अनुभव करें-प्रत्येक श्वास के साथ नीले रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को विशुद्धि केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए नीले रंग का ध्यान करें। (कुछ समय बाद) अनुभव करें-विशुद्धि केन्द्र से नीले रंग के परमाणु निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रहे हैं। पूरा आभामंडल नीले रंग के परमाणुओं 1- यह जानकारी पहले प्रयोग के समय या प्रशिक्षण के समय दें। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 प्रेक्षाध्यान से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें। ...... अनुभव करें ....... वासनाएं अनुशासित हो रही है, वासनाएं अनुशासित हो रही हैं, वासनाएं अनुशासित हो रही दर्शन केन्द्र पर अरुण रंग का ध्यान अनुभव करें-अपने चारों ओर बाल सूर्य की भांति चमकते हुए अरुण रंग का प्रकाश फैल रहा है। अरुण रंग के परमाणु फैल रहे हैं । अब अरुण रंग का श्वास लें, अनुभव करें-प्रत्येक श्वास के साथ अरुण रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को दर्शन केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए अरुण रंग का ध्यान करें। (कुछ समय बाद) अनुभव करें-दर्शन केन्द्र से अरुण रंग के परमाणु निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रहे हैं। पूरा आभामंडल अरुण रंग के परमाणुओं से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें ...... अनुभव करें-अन्तर्दृष्टि जागृत हो रही है, अन्तर्दृष्टि जागृत हो रही है, अन्तर्दृष्टि आगृत हो रही है। आनन्द जाग रहा है, आनन्द जाग रहा है, आनन्द जाग रहा है। ज्ञान केन्द्र पर पीले रंग का ध्यान' ___अनुभव करें-अपने चारों ओर सूरजमुखी के फूल या सुवर्ण की भांति चमकते हुए पीले रंग का प्रकाश फैल रहा है- पीले रंग के परमाणु फैल रहे हैं। अब इस पीले रंग का श्वास लें। अनुभव करें-प्रत्येक श्वास के साथ पीले रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को ज्ञान केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए पीले रंग का ध्यान करें। . (कुछ समय बाद) अनुभव करें- ज्ञान केन्द्र से पीले रंग के परमाणु निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रहे हैं। पूरा आभामंडल पीले रंग के परमाणुओं से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें। ....... अनुभव करें- ज्ञान-तंतु विकसित हो रहे हैं, ज्ञान-तंतु विकसित हो रहे हैं, ज्ञान-तंतु विकसित हो रहे हैं। ज्योति केन्द्र पर श्वेत रंग का ध्यान अनुभव करें- अपने चारों ओर पूर्णिमा के चन्द्रमा के प्रकाश की भांति चमकते हुए श्वेत रंग का प्रकाश फैल रहा है- श्वेत रंग के परमाणु फैल रहे हैं। 1- यह ध्यान चाक्षुष केन्द्र पर भी कराया जा सकता हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 जीवन विज्ञान-जैन विद्या अब इस श्वेत रंग का श्वास लें। अनुभव करें- प्रत्येक श्वास के साथ श्वेत रंग के परमाणु शरीर के भीतर प्रवेश कर रहे हैं। चित्त को ज्योति-केन्द्र पर केन्द्रित करें। वहां पर चमकते हुए श्वेत रंग का ध्यान करें। (कुछ समय बाद) अनुभव करें-ज्योति केन्द्र से श्वेत रंग के परमाणु निकलकर शरीर के चारों ओर फैल रहे हैं। पूरा आभामंडल श्वेत रंग के परमाणुओं से भर रहा है। उन्हें देखें, अनुभव करें। ....... अनुभव करें-आवेग और आवेश शांत हो रहे हैं, वासनाएं शांत हो रही हैं, क्रोध शांत हो रहा है। पूर्ण शान्ति मिल रही है। अनुभव करें-पूर्ण शांति मिल रही है, पूर्ण शांति मिल रही है। 2. लयबद्ध दीर्घ श्वास चित्त को दोनों नथुनों के भीतर सन्धि-स्थल पर केन्द्रित करें। गहरालम्बा श्वास लें, गहरा-लम्बा श्वास छोड़ें। श्वास लयबद्ध और सम-ताल करें-5 सैकिण्ड श्वास लेने में, 5 सैकिण्ड भीतर रोकने में, 5 सैकिण्ड बाहर निकालने में और 5 सैकिण्ड बाहर रोकने में लगाएं। इस प्रकार 20 सैकिण्ड में एक श्वासोच्छ्वास तथा एक मिनट में 3 श्वासोच्छ्वास का अभ्यास करें। 5 मिनट से प्रारम्भ कर 20 मिनट तक बढ़ाएं। सारा ध्यान श्वास पर रहे। प्रत्येक श्वास का अनुभव करें। प्रत्येक श्वास को जानते हुए लें, जानते हुए छोड़ें। 3. भावक्रिया एवं मानसिक जागरूकता भावक्रिया (वर्तमान क्षण की प्रेक्षा) भावक्रिया के तीन अर्थ हैं1. वर्तमान में जीना। 2. जानते हुए करना। 3. सतत् अप्रमत्त रहना । जो वर्तमान क्षण का अनुभव करता है, वह सहज ही राग-द्वेष से बच जाता है। यह राग-द्वेष-शून्य वर्तमान क्षण ही संवर है। राग-द्वेष-शून्य वर्तमान क्षण को जीने वाला अतीत में अर्जित कर्म-संस्कार के बंध का निरोध करता है। वर्तमान को जानना और वर्तमान में जीना ही भावक्रिया है। यांत्रिकी जीवन जीना, काल्पनिक जीवन जीना और कल्पना-लोक में उड़ान भरना द्रव्यक्रिया 1- जिसमें केवल शरीर की क्रिया हो, वह द्रव्य क्रिया है। जिसमें शरीर ओर चित्त दोनों की संयुक्त क्रिया हो, वह भाव क्रिया है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 प्रेक्षाध्यान हमारा अधिकांश समय अतीत की उधेड़बुन में या भविष्य की कल्पना में बीतता है। अतीत भी वास्तविक नहीं है और भविष्य भी वास्तविक नहीं है। वास्तविक है वर्तमान । वर्तमान जिसके हाथ से छूट जाता है, वह उसे पकड़ ही नहीं पाता। वास्तविकता यह है कि जो कुछ घटित होता है, वह होता वर्तमान में। किन्तु आदमी उसके प्रति जागरूक नहीं रहता। भावक्रिया का पहला अर्थ है-वर्तमान में रहना। भावक्रिया का दूसरा अर्थ है- जानते हुए करना। हम जो भी करते हैं. वह पूरे मन से नहीं करते। मन के टुकड़े कर देते हैं। काम करते हैं पर मन कहीं भटकता रहता है। वह काम के साथ जुड़ा नहीं रहता। काम होता है अमनस्कता से। वह सफल नहीं होता। ___कार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हुए बिना उसका परिणाम अच्छा नहीं आता। इसमें शक्ति अधिक क्षीण होती है, अनावश्यक व्यय होता है और काम पूरा नहीं होता। अतः हम जिस समय जो काम करें, उस समय हमारा शरीर और मन-दोनों साथ-साथ चलें। दोनों की सहयात्रा हो। भावक्रिया का तीसरा अर्थ है-सतत् अप्रमत्त रहना । साधक को ध्येय के प्रति सतत् अप्रमत्त और जागरूक रहना चाहिए। ध्यान का पहला ध्येय है-चित्त की निर्मलता। चित्त को हमें निर्मल बनाना है। ध्यान का दूसरा ध्येय है-सुप्त शक्तियों को जागृत करना। हमारी ध्यान-साधना के ये दो ध्येय हैं। इनके प्रति सतत् जागरूक रहना भावक्रिया है। शरीर और वाणी की प्रत्येक क्रिया भावक्रिया बन जाती है, जब मन की क्रिया उसके साथ होती है, चेतना उसमें व्याप्त होती है। .. द्रव्यक्रिया चित्त का विक्षेप है और साधना का विघ्न है। भावक्रिया स्वयं साधना और स्वयं ध्यान है। हम चलते हैं और चलते समय हमारी चेतना जागृत रहती है, "हम चल रहे हैं"-इसकी स्मृति रहती है-यह गति की भाव-क्रिया है। साधक का ध्यान चलने में ही केन्द्रित रहे, चेतना गति को पूरा साथ दे। यह गमनयोग है। जब चित्त शरीर और वाणी की प्रत्येक क्रिया के साथ जुड़ता है, चेतना उसमें व्याप्त होती है, तब वह भावक्रिया बन जाती है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 मानसिक जागरूकता (अप्रमाद) प्रेक्षा से अप्रमाद (जागरूक भाव) आता है। जैसे-जैसे अप्रमाद बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा की सघनता बढ़ती है। हमारी सफलता एकाग्रता पर निर्भर है। अप्रमाद या जागरूक भाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध उपयोग केवल जानना और देखना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है किन्तु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है, जब ये लम्बे समय तक निरन्तर चलें । पचास मिनट तक एक आलम्बन पर चित्त की प्रगाढ़ स्थिरता का अभ्यास होना चाहिए। यह सफलता का बहुत बड़ा रहस्य है । जीवन विज्ञान-जैन विद्या ध्यान का स्वरूप है अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या सतत् जागरूकता । होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है । जो प्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति अपने चैतन्य के प्रति जागृत नहीं होता, वह सब ओर से भय का अनुभव करता है। जो अप्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति अपने चैतन्य के प्रति जागृत होता है, वह कहीं भी भय का अनुभव नहीं करता, सर्वथा अभय होता है । अप्रमत्त व्यक्ति को कार्य के बाद उसकी स्मृति नहीं सताती। बातचीत के काल में बातचीत करता है। उसके बाद बातचीत का एक शब्द भी याद नहीं आता । यह सबसे बड़ी साधना है। आदमी जितना काम करता है उससे अधिक वह स्मृति में उलझा रहता है। भोजन करते समय भी अनेक बातें याद आती हैं। जिस समय जो काम किया जाता है, उस सयम उसी में रहने वाला साधक होता है | शरीर, मन और वाणी का योग या सामंजस्य विरल व्यक्तियों में ही मिलता है । जहां शरीर और मन का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता वहां विक्षेप, चंचलता और तनाव होते हैं । साधना का अर्थ है - कर्म, मन और शरीर की एक दिशा । इसे एकाग्रता या ध्यान कुछ भी कह दीजिए। एकाग्रता में विचारों को रोकना नहीं होता अपितु अप्रयत्न का प्रयत्न होता है । प्रयत्न से मन और अधिक चंचल होता है। एकाग्रता तब होती है, जब मन निर्मल होता है। बिना एकाग्रता के निर्मलता नहीं होती और बिना निर्मलता के एकाग्रता नहीं होती। तब प्रश्न आता है, क्या करना चाहिए ? अपने आपको देखना चाहिए। अपना दर्शन करो और अपने आपको समझो। अधिकांश लोग अपने आपको नहीं पहचानते। जो अपने श्वास को समझ लेता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी होता है। वह अक्षर- ज्ञानी नहीं होता, वह आत्म-ज्ञानी होता Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान है। आप श्वास और प्राण को नहीं जानते, श्वास पर ध्यान नहीं देते, फिर भी श्वास बेचारा आता ही रहता है। श्वास महत्त्वपूर्ण है । जो उसकी उपेक्षा करता है, वह स्वयं उपेक्षित हो जाता है। श्वास, प्राण, शरीर और मन-इन चारों को समझे बिना मन की अशान्ति का समाधान नहीं हो सकता। ___ धनवान और गरीब, वृद्ध और युवक, पुरुष और स्त्री-सबका एक ही प्रश्न आता है कि मन की अशान्ति कैसे मिटे ? मन अशान्त नहीं है, वह ज्ञान का माध्यम है। अज्ञानवश हम अशान्ति का उसमें आरोप कर देते हैं। फूल में गंध है। हवा से वह बहुत दूर तक फैल जाती है। क्या गंध चंचल है ? नहीं, हवा के संयोग से गंध का फैलाव हो जाता है। वैसे ही मन राग के रथ पर चढ़कर फैलता है। यदि मन में राग या आसक्ति नहीं है, तो मन चंचल नहीं होता। 'क्षण भर भी प्रमाद नत करो।' यह उपदेश--गाथा है। पर अभ्यास की कुशलता के बिना कैसे संभव है कि व्यक्ति क्षण भर भी प्रमाद न करे। प्रयोग (1) गमन-योग चलते समय निरन्तर चलने की स्मृति बनी रहे । दृष्टि पथ पर रहे। कहीं इधर-उधर न देखें ! सारा ध्यान चलने की क्रिया पर केन्द्रित रहे। धीरे-धीरे दाएं पैर को उठाएं, आगे रखें। सारी क्रिया जानते हुए करना है। फिर बाएं पैर को उठाएं, आगे रखें। इस प्रकार प्रत्येक कदम पूरी जागरूकता के साथ रखें। चलते समय केवल यही अनुभूति हो-“मैं चल रहा हूं।" न बात करें। न सोचें। यह गमन-योग है। इस प्रकार गमन-योग का अभ्यास करते हुए सौ कदम चलें। इसी अभ्यास को बार-बार दोहराएं। (2) जागरूकता के प्रयोग (क) कुछ ऐसे खेल जिसमें व्यक्ति को पूर्ण जागरूक रहना पड़े इस प्रयोग में किए जा सकते हैं। जैसे ___(1) निदेशक द्वारा दो प्रकार के आदेश दिए जाते हैं-एक में वह सीधा आदेश देता है-हाथ ऊंचा करो, मस्तक झुकाओ, दो अंगुलियां ऊंची करो आदि। दूसरे प्रकार के आदेश में वह पहले एक सांकेतिक शब्द का प्रयोग कर आदेश देता है जैसे-विद्यार्थियों (या साधकों) हाथ ऊंचा करो, विद्यार्थियों बाएं मुड़ो, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 जीवन विज्ञान - जैन विद्या विद्यार्थियों ऊपर देखो आदि। खिलाड़ियों (विद्यार्थियों) द्वारा जब सांकेतिक शब्द के साथ आदेश मिले तब उस क्रिया को करना है, और जब कोरा आदेश मिले, तब कुछ नहीं करना है। निदेशक अपनी इच्छानुसार कभी सांकेतिक शब्दों के साथ, तो कभी कोरे आदेश देता रहेगा। जो विद्यार्थी जागरूकता पूर्वक आदेश सुनेंगे, वे कोरे आदेशों का पालन नहीं करेंगे, केवल सांकेतिक संबोधन के साथ दिए गए आदेशों का पालन करेंगे। इसमें जो भूल करेगा, वह आऊट हो जाएगा। अन्त में जो विजयी होगा, उसे अंक प्राप्त होगा। जो पहले पांच आदेशों में ही भूल कर देगा, उसे शून्य, जो दश आदेशों में भूल कर देगा, उसे 1 अंक, इसी प्रकार जो 25 आदेशों में भूल करेगा, उसे 4 अंक, आदि प्राप्त होंगे। जो अविजित रहेगा उसे 10 अंक प्राप्त होंगे। (3) संख्या में जागरूकता निदेशक द्वारा निर्धारित अंकों को बाद देकर संख्या का निर्दिष्ट पद्धति से उच्चारण करना । जैसे - जिसमें 7 का अंक हो या 7 का भाग जाता हो उसे छोड़कर बोलना। पहला एक बोलेगा, दूसरा दो, तीसरा तीन ऐसे छठा छः बोलेगा, सातवां यदि सात बोल जाता है, तो हारा हुआ माना जाएगा। सातवें को आठ बोलना होगा। आठवें को नव, नवें को दस ऐसे तेरहवें को पन्द्रह बोलना होगा, क्योंकि 14 में 7 का भाग जाता है। चौदहवें को सोलह, पन्द्रहवें को अठारह, ( क्योंकि 17 में 7 का अंक है ।) सोलहवें को उन्नीस आदि । सारे विद्यार्थी की बारी आने के बाद फिर पहले का नम्बर आएगा। इस प्रकार बोलते-बोलते जो रह जाए, वह जीतेगा। 1000 को पार कर देने वाला एक अंक, 2000 को पार करने वाला 2 अंक आदि प्राप्त करेगा। अविजित 10 अंक प्राप्त करेगा । 4. एकाग्रता के विविध प्रयोग (1) केवल दीर्घश्वास चित्त को नथुनों में केन्द्रित कर दीर्घश्वास का अभ्यास करें। एक मिनट में अधिकतम 6 श्वास तक पहुंचे। (5 मिनट का प्रयोग ) (2) खेचरी मुद्रा के साथ दीर्घश्वास जीभ को उलट कर तालू से लगा दें। चित्त को नथुनों के भीतर केन्द्रित कर दीर्घश्वास का अभ्यास करें। एक मिनट में अधिकतम 5 श्वास तक पहुंचे। (5 मिनट का प्रयोग) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान (3) श्वास- संयम के साथ दीर्घश्वास चित्त को नथुनों के भीतर केन्द्रित कर अन्त कुम्भक और बहि: कुम्भक के साथ दीर्घश्वास का प्रयोग करें। एक मिनट अधिकतम 3 श्वास तक पहुंचे। (5 मिनट का प्रयोग) (4) मनोवैज्ञानिक परीक्षण (यह टेस्ट निर्धारित पद्धति के आधार पर होगा ।) 5. अवधान (स्मृति) के प्रयोग (1) अंक - स्मृति के प्रयोग- ( 21 अंक तक की संख्या याद करना) अंक - स्मृति के लिए अंकों का अक्षरों में परिवर्तन कर अक्षरों के संयोग से शब्दों का निर्माण कर उन्हें याद रखने का तरीका सरल है। अक्षरों में परिवर्तन के लिए अपनी सांकेतिका का निर्माण कर लें। जैसे 1- क ख न ण 2- र, ट, 3- ग, घ, 4- च, छ, 5- प, फ, 6-ब, भ, 7- व, त, 8- स, श, ल, 0-द, ध मात्राएं अंक - शून्य रहे। स्वरों का उपयोग भी स्वतंत्रता से हो। उदाहरणार्थ 1 6 9 कम ल • 9- ह, 5 7 प तं ग ठ, ज्ञ ज, य म थ ळ 5 Þ ष प ड, 4 9 6 ज ल में 牙 1 2 क ड़ी வு 9 7 9 हो ता है । 43 3 1 गीता ने 5 पा 1 6 नी में Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या यह स्पष्ट है कि उपरोक्त संख्या को याद रखने के लिए जो दो वाक्य दिए हैं, वे सरलता से याद रखे जा सकते हैं। वाक्यों को न बनाना चाहे, तो प्रत्येक खण्ड (तीन-तीन अंको का) को अपने अपने कोष्ठक में जमा करे जिसे पूर्व निर्धारित कर लें जैसेप्रथम कोष्ठक-कपड़ा-कमल दूसरा कोष्ठक-रेडियो-जल में तीसरा कोष्ठक-गणेश-होता है चौथा कोष्ठक-चन्द्रमा-पतंग पांचवां कोष्ठक-पतंग-पकड़ी छठा कोष्ठक-मगर-गीता ने सातवां कोष्ठक-तालाब-पानी में कोष्ठक के शब्द (चित्र) के साथ अंकों से निर्मित शब्द को वाक्य द्वारा जोड़ें1. कपड़े से कमल ढक दिया। 2. रेडियों जल में डूब गया। 3. गणेश देव होता है। 4. चन्द्रमा तक पतंग पहुंच गई। 5. पंतग पकड़ी गई। 6. मगर गीता ने देखा। 7. तालाब के पानी में आदमी भी डूब गया। इस प्रकार अंकों को सरलता से याद किया जा सकता है। अंकों को ग्रहण करते समय एकाग्रता का प्रयोग करें। उन्हें दो-तीन बार दोहरा लें। फिर अक्षरों में परिणत करें एवं शब्द-निर्माण करें। फिर उपरोक्त पद्धति से शब्दों से वाक्य-निर्माण करें या कोष्ठक के चित्रों के साथ वाक्य द्वारा जोडें । 2. शब्द-स्मृति के प्रयोग- (10 शब्द तक याद रखना) शब्द-स्मृति के लिए कोष्ठकों का निर्माण पहले कर ले। फिर प्रत्येक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 प्रेक्षाध्यान शब्द को कोष्ठक के शब्द (चित्र) के साथ वाक्य द्वारा जोड़ दें। कठिन शब्द को दो या तीन भाग में भी बांट सकते हैं। शब्द का अर्थ पता न हो, तो अपनी कल्पना से ध्वनि के आधार पर परिचित शब्द के साथ जोड़ें एवं उसी अर्थ की कल्पना करें। कोष्ठक (चित्र) पदत्त शब्द जोड़ने का वाक्य 1. कान हाथी कान में हाथी के चिंघाड़ने की आवाज आ रही है। 2. रोड रूमाल रोड के ऊपर रूमाल पड़ा है। 3. गंगा गुलाब गंगा के पानी में गुलाब का फूल बह रहा है। 4. छाज कनपेज छाज के अन्दर पड़ी कणक को पेज से ढक दो। 5. पंप पेचकश पंप को ठीक करने पेचकश लाओ। 6. बम मोटर बम से मोटर के पुर्जे-पुर्जे उड़ गए। 7. तवा होस्पीटल तवे को हाथ लगाया, तो जल गया जिससे होस्पीटल जाना पड़ा। 8. शीशी ओजोन शीशी में आक्सीजन गैस नहीं, ओजोन गैस है। 9. हल संविधान हल जोतने वाले संविधान नहीं पढ़ते। 10. दूध करिश्मा दूध के करिश्मे से बीमारी मिट गई। या दूध पीलाकर करि को चश्मा पहनाया। ___ (हाथी) इस प्रकार प्रत्येक शब्द को अपने कोष्ठक (चित्र) के साथ जोड़कर उसे आसानी से याद किया जा सकता है। जहां कठिन शब्द हो, वहां उसे तोड़कर आसान बना कर कल्पना से जोड़ा जा सकता है, जैसे करिश्मा या कनपेज में किया है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (च) अनुप्रेक्षा 1. एकत्व अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2 मिनट 2. कायोत्सर्ग 5 मिनट 3. हरे रंग का श्वास ले। अनुभव करें-श्वास के साथ हरे रंग के परमाणु भीतर प्रवेश कर रहे हैं। 3 मिनट 4. शांति केन्द्र पर हरे रंग का ध्यान करें। 3 मिनट 5. शांति केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित कर अनुप्रेक्षा करें "मैं अकेला हूं, मेरी आत्मा किसी से अनुबन्धित नहीं है।" इस शब्दावली का नौ बार उच्चारण करें। फिर इसका नौ बार मानसिक जप करें। 5 मिनट 6. अनुचिन्तन करें व्यक्ति अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है। व्यक्ति अकेला ही संवेदन करता है और अकेला ही अनुभव करता है। व्यक्ति अकेला ही अतीत की स्मृति करता है और अकेला ही सोचता है। व्यक्ति अकेला ही सुख-दुःख का अनुभव करता है-ये सारे गुण अकेले में ही होते हैं, किसी से अनुबंधित नहीं। इसलिए मैं अकेला हूं। 7. लम्बे और गहरे दीर्घश्वास लें। हर श्वास के साथ संकल्प करें 'मैं अकेला हूं।' एवं श्वास-संयम (कुम्भक) के साथ अकेलेपन का अनुभव करें। 5 मिनट 8. अब इस शब्दावली का उच्चारण करें एगो में सासओ अप्पा, नाण दंसण संजुओ। सेसा में बाहिरा भावा, सव्वे संजोग-लक्खणा ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा-अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।) सत्य का सार्वभौम स्वरूप .अध्यात्म का एक महान सूत्र है- समूह में रहते हुए भी एकांत का अनुभव करना। साधना करने वाले व्यक्ति के लिए यह परम वांछनीय है। जिस व्यक्ति ने अकेलेपन का अनुभव किया, उसने सचमुच अपनी चेतना को बदल दिया, अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर लिया। रूस के महान् साधक गुर्जिएफ तीन महीने का प्रयोग करवाते थे कि एक हॉल में 10, 20, 30 आदमी एक साथ रहें। साथ में खाएं-पीएं-जीएं, पर निन्तर 'मैं अकेला हूं' इस बात का अनुभव करते रहें। इस एकत्व-अनुप्रेक्षा के सत्र को उन्होंने काम लिया। सत्य पर किसी का अधिकार नहीं होता सत्य सार्वभोम होता है। हिन्दुस्तान का व्यक्ति हो, रूस का व्यक्ति हो, चाहे दुनिया के किसी कोने में जन्म लेने वाला व्यक्ति हो, जो अध्यात्म की भूमिका में जाता है, जो सत्य की खोज में जाता है, उसे वही बात मिलती है जो यहां मिलती है। सत्य की उपलब्धि में देश और काल की सारी सीमाएं समाप्त हो जाती है। एकांतवास का एक अर्थ है- एकांत में रहने का अभ्यास, एकांत का प्रयोग। दूसरा अर्थ है-एकत्व का अनुभव। एकांतवास का तीसरा अर्थ हैप्रतिस्रोत-गमन की क्षमता। भीड़ में चलना, स्रोत के साथ-साथ चलना-यह गमन का एक प्रकार है। दूसरा प्रकार है-भीड़ से विमुख होकर चलना, अनुसरण को छोड़ना, प्रतिस्रोत में चलना। बहुत सहज होता है अनुस्रोत में चलना। स्रोत बह रहा है, कोई भी तिनका आएगा, स्रोत में बह जाएगा। कोई भी चीज आती है, सोत में बह जाती है। स्रोत के प्रतिकूल चलना, बहुत कठिन साधना है। भीड़तंत्र आज का ही नहीं है। मनुष्य का समाज बना तब से चल रहा है। जब से मनुष्य ने व्यक्ति से अपने आपको समाज में ढाला तो अनुसरण की वृत्ति विकसित हुई। ___जब समाज को हम इस दृष्टि से देखते हैं कि सब लोग ऐसा करते हैं और यदि मैं ऐसा न करूं तो क्या फर्क पड़ेगा अथवा सब ऐसा नहीं करते हैं और मैं ऐसा करूं तो क्या फर्क पड़ेगा दोनों बातें हमें सत्य से दूर ले जाती हैं। एकत्व का अनुभव करने वाला व्यक्ति, भीड़तन्त्र को न मानने वाला व्यक्ति, अनुसरण Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 जीवन विज्ञान-जैन विद्या की वृत्ति को छोड़ने वाला व्यक्ति यह तर्क नहीं रखता कि समाज क्या करता है, समाज क्या नहीं करता है ? उसका चिंतन यह होगा कि मुझे क्या करना चाहिए। दूसरे चाहे करें या न करें, मेरा धर्म क्या है, मेरा कर्त्तव्य क्या है, मेरा दायित्व क्या है। इस चिंतन का विकास एकत्व की भूमिका के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। हमारी एकत्व की भूमिका नहीं रहती है तो मुझे नहीं लगता कि इस प्रकार की वृत्ति का विकास हो सके। हमारे जीवन में अनुकूलताएं एवं प्रतिकूलताएं आती हैं। सर्दी आती है और गर्मी आती है। सर्दी को सहना और गर्मी को सहना। अनुकूलता को सहना और प्रतिकूलता को सहना कठिन काम है। प्रतिकूलता की अपेक्षा अनुकूलता को सहना कठिन काम है। हर व्यक्ति सह नहीं पाता। जब अनुकूलता की स्थिति होती है तो आदमी इतना अहंकार से भर जाता है, दर्प से भर जाता है कि अन्याय करते कोई संकोच नहीं होता। जब हाथ में सत्ता होती है, अधिकार होता है, फिर अन्याय करने में कोई संकोच नहीं होता। इसलिए नहीं होता कि अनुकूलता को व्यक्ति सहन नहीं, कर पाता। द्वेष बुराई तो है पर इतनी भयंकर बुराई नहीं जितनी राग की बुराई है। अप्रियता बुराई तो है पर उतनी बुराई नहीं, जितनी प्रियता का संवेदन बुराई है। एक संस्कृत कवि ने ठीक लिखा कि जो भंवरा काठ को भेदकर चला जाता है, वही भंवरा कमल-कोष में बन्द हो जाता है। उसे भेदकर बाहर नहीं निकल पाता। कहां काठ और कहां कमलकोष ! किन्तु कठोर काठ को भेद देना उसके वश की बात है। किन्तु राग का बन्धन इतना तीव्र होता है कि वह उसे तोड़ नहीं पाता, भेद नहीं पाता। अनुकूलता को सहन करना बहुत बड़ी समस्या है। अकेला होने वाला व्यक्ति, अकेलेपन की साधना करने वाला व्यक्ति सबसे पहले उस राग के बन्धन को तोड़ने की बात को सीख लेता है। समाज कभी अप्रियता के आधार पर नहीं जुड़ता। सम्बन्ध कभी अप्रियता के आधार पर नहीं बनते। दण्डशक्ति का उपयोग करने वाला दूसरे के साथ कभी अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता। वह कष्ट दे सकता है, दुःखी बना सकता है, पर सम्बन्ध नहीं बना सकता। सारे-के-सारे सम्बन्ध जुड़ते हैं प्रेम और आत्मीयता के आधार पर। जो प्रेम का धागा है, उसी के आधार पर राग के संबंध स्थापित होते हैं। किन्तु सत्य आखिर सत्य होता है, उसे झुठलाया नहीं जा सकता। साधना और ध्यान करने वाला व्यक्ति इस सचाई को समझ लेता है कि इस धागे के आधार पर हमने यह सम्बन्ध स्थापित किया है किन्तु यह प्रेम-स्नेह का धागा भी बहुत मजबूत धागा नहीं है, अन्तिम सचाई नहीं है। अन्तिम सचाई है कि 'मैं-मैं' और 'तू-तू'। बहुत Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 अनुप्रेक्षा कटु बात लग सकती है, अव्यावहारिक बात लग सकती है, किन्तु हम इस सचाई को झुठला नहीं सकते । 1 हम अकलेवन की सचाई को न भूलें । वह चाहे कटु हो, चाहे अव्यावहारिक हो । जो इस सत्य को समझ लेता है वह सत्य और शांति को उपलब्ध हो सकता है, दुःखों से बच सकता। एक बहुत बड़ा सूत्र है मनोबल को बढ़ाने का - 'एकला चलो। ' अक्रियता का अनुभव एकत्व सचाई है । किन्तु मनुष्य ने इसको झुठलाने का जितना प्रयत्न किया और उतना प्रयत्न शायद किसी और दिशा में नहीं किया। झुठलाने का प्रयत्न निरन्तर चलता रहा और वह चलते-चलते आज इस बिन्दु पर पहुंच गया कि समाज ही परम सत्य या ध्रुव सत्य बन गया। आदमी ने मान लिया कि समाज ही अन्तिम सम्त है, व्यक्ति तो समाज का एक पुर्जा मात्र है। एक महायंत्र का छोटासा पुर्जा है व्यक्ति । इसके अतिरिक्त व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं है । इस मान्यता ने व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को ही समाप्त कर डाला । व्यक्ति की स्वतंत्रता पर भारी कुठाराघात हुआ । क्या व्यक्ति का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं ? क्या व्यक्ति समाज का एक पुर्जा मात्र है ? जब व्यक्ति समाज का पुर्जा ही है तब फिर समाज के द्वारा जो प्राप्त होता है उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । किन्तु कठिनाई यह है कि समाज से जो उपलब्ध होता है उसे व्यक्ति सहर्ष स्वीकार नहीं करता। तत्काल उसका मानसिक तनाव बढ़ जाता है । वह भीतर में अनुभव करता है । मैं व्यक्ति हूं। मेरी स्वतंत्र सत्ता है । मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है। एक ओर स्वतंत्र अस्तित्व की बात मन से निकलती नहीं और दूसरी ओर सामुदायिकता का सघन सूत्र उसके सिर पर थोपा जाता है। इन दोनों स्थितियों के बीच सारे तनाव बढ़ते चले जाते हैं । तनावों से बचने का ही उपाय है- अक्रियता की अवस्था का निर्माण । ध्यान से अक्रियता की अवस्था का निर्माण होता है । समुदाय में रहते हुए अकेलेपन के अनुभव करने से भी इस अवस्था का निर्माण होता है। 'मैं अकेला हूं, शेष सब संयोग हैं।' सयोगों को अपना अस्तित्व मानना सक्रियता है । उन्हें अपने अस्तित्व से भिन्न देखना, अनुभव करना, अक्रियता है । महावीर ने छह महीने तक एकत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया था। अकेले व्यक्ति को यदि तीन महीने तक एक कोठरी में बंद कर दें और वह यह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 जीवन विज्ञान-जैन विद्या सोचता रहे कि 'मैं अकेला हूं' तो तीन महीने के बाद जब वह बाहर आएगा तो वह इतना बदल जाएगा कि बाहर कि दुनिया उसे झूठी प्रतीत होने लगेगी। वह सोचेगा-सब कुछ झूठ-ही-झूठ है। जो लोग अपने संबंधों की चर्चा करते हैं, वे सब असत्य हैं। संसार में होने वाले संबंध सत्य नहीं है। सत्य है अकेलापन। 2. अन्यत्व अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2 मिनट 2. कायोत्सर्ग 5 मिनट 3. आनन्द केन्द्र पर ध्यान करें 5 मिनट 4. आनन्द केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित कर श्वास भरते हुए अनुप्रेक्षा करें मेरी आत्मा इस भौतिक शरीर से भिन्न है- इस शब्दावली का नौ बार उच्चारण करें, फिर इसका नौ बार मानसिक जप करें। 5. अनुचिन्तन करेंस्थूल शरीर भौतिक पदार्थों से निर्मित है। यही आसक्ति का मुख्य कारण है। जो इस आसक्ति को कम करता है अथवा लगाव को कम करता है, वह दुःख, दर्द को कम महसूस करता है। इसलिए मैं शरीर की आसक्ति को कम करने के लिए भेद-विज्ञान का अभ्यास करूंगा 10 मिनट ___6. महाप्राण ध्वनि के साथ प्रयोग संपन्न करें। 2 मिनट स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।) भौतिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व की पहचान आध्यात्मिक व्यक्तित्व में पदार्थ का भोग होगा। आध्यात्मिक व्यक्ति खाएगा, पीएगा, कपड़े भी पहनेगा, मकान में भी रहेगा। यह सब कुछ करेगा, पर जुड़ेगा नहीं। वह यह कभी नहीं कहेगा-मेरा कपड़ा, मेरा मकान । वह कहेगा-इस Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 अनुप्रेक्षा मकान में मैं अभी रह रहा हूं। यह कपड़ा मेरे पहनने के काम आ रहा है। गांवों में जब लोगों से पूछते हैं-क्या यह मकान तुम्हारा है ? घर का मालिक कहता है'मकान किसका ! भगवान का, महाराज! मैं तो यहां रहता हूं।' इस कथन के पीछे एक सिद्धांत है। सचाई यह है कि मकान किसका हो सकता है ? किसी का नहीं हो सकता। आज तक भी यह सम्पदा और भूमि शाश्वत कन्याएं हैं, कुंआरी कन्याएं हैं। आज तक इनका पाणि-ग्रहण नहीं हुआ, विवाह नहीं हुआ। सम्पत्ति शाश्वत कुंआरी है। अनन्त काल बीत जाने पर भी वैसी-की-वैसी रहेगी। पदार्थ का भोग करना और पदार्थ के साथ ममत्व को जोड़ना-ये दोनों भिन्न बातें हैं। ये दोनों एक नहीं हैं। भौतिक व्यक्तित्व में पदार्थ का उपभोग होता है, ममत्व जुड़ता है। आध्यात्मिक व्यक्तित्व में पदार्थ का उपभोग अवश्य होता है, पर ममत्व नहीं जुड़ता। उसमें 'पदार्थ' और 'मेरा'-ये दोनों अलग रहते हैं, जुड़ते नहीं। स्वतंत्रता की प्रक्रिया पहली परतंत्रता का एक पहलू है रासायनिक प्रतिबद्धता। जीवन का दूसरा पहलू है-स्वतन्त्रता। जब साधना के द्वारा चेतना बदलती है तब रसायनों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। जहर का कार्य है मार डालना। क्या जहर मीरां को मार सका था? मीरां ने जहर का प्याला पीया। कोई असर नहीं हुआ। भयंकर सर्प चंडकौशिक क्या महावीर को मार सका था? उसकी एक फुफकार से आदमी राख का ढेर हो जाता है। उसने महावीर को तीन बार डसा, पर व्यर्थ । महावीर पर कोई असर नहीं हुआ। जब शरीर की पकड़ होती है तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड़ जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। शरीर की पकड़ छुटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी, तो शरीर का भान नहीं रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभावित रहेगा। जब प्राण और चेतना-दोनों भीतर चले जाते हैं, उनका समाहार हो जाता है, तब शरीर पड़ा है, उसे सांप काटे, कोई भी काटे, कुछ असर नहीं होगा चेतना पर। यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपांतरित होती है प्रेक्षा के द्वारा। वह परिष्कृत और परिमार्जित होती है ज्ञाता-द्रष्टा के भाव के द्वारा। उस स्थिति में दोनों प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता। यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा में। यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 जीवन विज्ञान-जैन विद्या ___ महावीर ने कहा- 'सहो, सहो। सदा सहन करते रहो।' यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब सहने के साथ-साथ इसका भी अभ्यास करें कि हम विशिष्ट स्थान पर चेतना को कैसे केन्द्रित और नियोजित कर सकते हैं ? जिस रोग को हम समस्या मानते हैं, वह हमारे लिए एक प्रयोग-भूमि बन जाता है। वह हमारे लिए एक प्रयोगशाला का काम करने लगता है। इस आध्यात्मिक प्रयोगशाला में हम जान सकते हैं कि रोग किसके हैं ? रोग किसे बाधा पहुंचा रहे हैं ? मैं कौन हूं? इन्हें अलग-अलग समझने का मौका मिलता है। यह रहा रोग और यह रहा मैं। अन्यथा हम एक ही मान लेते हैं कि, 'मैं रोगी हूं।' यह मानते रहेंगे तब तक रोग सताएगा। जब हम यह मान लेते हैं कि 'मेरा रोग नहीं,' 'मैं रोगी हूं' तो हम रोग से अभिन्न हो गये। यदि 'मेरा रोग' यह मानते तो भी कुछ दूरी प्रतीत होती, किन्तु 'मैं रोगी' इसमें कोई दूरी नहीं, दोनों एक हो गए। इस अवस्था में रोग सताएगा ही। जब हमने रोग के बीच इतनी दूरी कर दी कि मै केवल द्रष्टा हूं, ज्ञाता हूं, जानता हूं, देखता हूं कि यह रोग रहा। तो जानने-देखने वाला रोग से अलग हो गया। इस स्थिति में रोग स्वयं एक प्रयोगस्थल बन जाता है और उसमें से समाधान निकल आता है। आत्मा को अरुज कहा गया है। अरुज का अर्थ है-रोग-रहित। आत्मा के कभी रोग नहीं होता। चेतना कभी रुग्ण नहीं होती। आत्मा रोगग्रस्थ कभी नहीं होती। रोगग्रस्त होता है शरीर । यह भेद जब आत्मगत हो जाता है, यह दूरी जब स्थापित हो जाती है, तब समस्या का समाधान हो जाता है। भेद-विज्ञान जिस साधक में स्फोट होता है वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है और उस भूमिका पर पहुंचकर वह कहता है कि 'मैं शरीर नहीं हूं।' 'मैं पुद्गल नहीं हूं।' 'मैं मूर्त नहीं हूं।' यह अध्यात्म विकास की पहली भूमिका है। जब यह अवस्था घटित होती है तब चिंतन की धारा बदल जाती है। चिंतन की जो मूढ अवस्था थी, उसमें परिवर्तन आ जाता है। जब साधक कहता है- 'मैं शरीर नहीं हूं,' तब इससे चिंतन का स्रोत निकलता है जिसे हम 'अन्यत्व अनुप्रेक्षा' कहते हैं। जब यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि मैं शरीर से भिन्न हूं, मूर्छा पर इतना तीव्र प्रहार होता है कि मोह का किला ढह जाता है, क्योंकि मोह का उद्गम-स्थल है शरीर। आदमी शरीर को ही सब कुछ मानकर कार्य करता है। जब यह मोह टूट जाता है, यह भ्रांति टूट जाती है, अनादि-कालीन भ्रम Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 53 की दीवार खंड-खंड हो जाती है, तब यह स्पष्ट बोध होता है कि मैं शरीर नहीं हूं । इस बोध के साथ-साथ सारी विचारधाराएं बदल जाती हैं, 'यह शरीर मेरा नहीं है, मैं शरीर नहीं हूं, ' - अहंकार की ग्रंथि खुल जाती है । यह शरीर मेरा नहीं हैकार की गाढ़ ग्रंथि खुल जाती है। उसे रास्ता मिल जाता है । रास्ता उसी को मिलता है जिसकी ममकार की ग्रंथि खुल जाती है । ममत्व की ग्रंथि का आदि - बिन्दु है शरीर । जब यह गांठ खुल जाती है तब मार्ग स्पष्ट दीखने लग जाता है । वह जान लेता है कि उसे क्या करना है ? कहां जाना है ? जब अहंकार और ममकार- दोनों की गाठें खुल गयीं - 'मैं शरीर नहीं हूं, 'शरीर मेरा नहीं हैं'- तब नये चैतन्य का उदय होता है । उस सूर्य का उदय होता है जो कभी पूर्वांचल में आया ही नहीं था । कभी उगा ही नहीं था। जब ऐसे सूर्य का उदय होता है तब जीवन की सारी दिशा बदल जाती है। आप सोच सकते हैं कि क्या इस भूमिका में जीने वाला कभी व्यवहार की भूमिका में जी सकेगा ? मैं मानता हूं कि वह अच्छी तरह से जी सकेगा। किन्तु यह संभव कैसे होगा ? जिसने यह मान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है क्या वह शरीर के प्रति उदासीन नहीं हो जाएगा ? क्या वह शरीर के प्रति विरक्त नहीं हो जाएगा ? क्या यह शरीर के प्रति उपेक्षा नहीं है ? क्या ऐसा व्यक्ति जीवन को चला पायेगा ? जो व्यक्ति शरीर के प्रति उपेक्षा बरतेगा, क्या वह देश के प्रति अनुरक्त रह पायेगा ? वह अपने दायित्वों और कर्त्तव्यों को कैसे निभा पायेगा ? ये प्रश्न सहज हैं, किंतु इन प्रश्नों में कोई व्यावहारिक कठिनाई नहीं है। जिसने यह स्पष्ट रूप से जान लिया कि शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूं, उसने शरीर के साथ सम्बन्ध की एक योजना कर ली। उस सम्बन्ध को अनेक रूपकों में अभिव्यक्ति दी गई है । महावीर ने कहा- शरीर नौका है और आत्मा नाविक है । उपनिषद्कारों ने कहा- शरीर रथ है और आत्मा रथिक है । शरीर घोड़ा है और आत्मा घुड़सवार है। क्या समुद्र में तैरने वाला नाविक कभी अपनी नौका की उपेक्षा कर सकता है ? ऐसा वह कभी नहीं कर सकता । 3. कर्त्तव्यनिष्ठा की अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2. लयबद्ध दीर्घश्वास 3. भस्त्रिका 4. कायोत्सर्ग 2 मिनट 5 मिनट 5 मिनट 5 मिनट Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 5. संकल्प 'मैं अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक रहूंगा । कर्त्तव्य के बाधक तत्त्वोंक्रोध, लोभ, भय आदि को अनुशासित रखने का अभ्यास करूंगा।' जीवन विज्ञान - जैन विद्या अभ्यास-पद्धति - शान्ति- केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करें। फिर इस संकल्प की 15 मिनट तक पुनरावृत्ति की जाए, 5 मिनट उच्चारणपूर्वक, पांच मिनट मंद उच्चारणपूर्वक और पांच मिनट मानसिक अनुचिंतन के रूप में 1 6. महाप्राण ध्वनि के साथ ध्यान संपन्न करें। 2 मिनट स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा - अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है ।) कर्त्तव्यनिष्ठा सदाचार की प्रेरक शक्ति है। अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक व्यक्ति अकरणीय कर्म से विरत रहता है। जब कभी उनके चरण प्रमाद की ओर बढ़ते हैं । कर्त्तव्य की प्रेरणा उसे मोक्ष देती है और वह सत्संकल्प कर लेता है । मानवीय एकता के सन्दर्भ में हम कर्त्तव्य निष्ठा का मूल्याँकन करें । उसकी प्रेरणा में समानता है। जाति, रंग, भाषा और राष्ट्रीयता की भिन्नता में भी मानवीय अभिन्नता है । उसे गौण करने का मुख्य हेतु है - व्यक्तिगत आकांक्षा और अहम् | अपनी समृद्धि और बड़प्पन में जो रस है, वह एक सीमा तक न्याय - संगत हो सकता है। किन्तु जब वह दूसरों को संकट में डालने लगता है तब सर्वमान्य न्यायसंगत धरातल के नीचे उतर जाता है । अध्यात्म और व्यवहार अध्यात्म के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार और व्यवहार के स्तर पर जीने वाले व्यक्ति का व्यवहार भिन्न होता है । व्यवहार से मुक्त कोई भी नहीं हो सकता । जो शरीरधारी है। वह व्यवहार करता है। व्यवहार के बिना वह जी नहीं सकता, उसका जीवन चल नहीं सकता। किन्तु दोनों का व्यवहार बहुत भिन्न होता है । आचारांग सूत्र का कथन है कि आध्यात्मिक व्यक्ति को अन्यथा व्यवहार करना चाहिए । व्यवहार की भूमिका पर जीने वाले को नहीं करना चाहिए, किन्तु उसे भिन्न प्रकार से व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा व्यवहार करना चाहिए। हम 'अन्यथा' शब्द को समझें, इसके तात्पर्य को समझें । व्यवहारिक व्यक्ति का व्यवहार क्रियात्मक नहीं होता, वह प्रतिक्रियात्मक होता है। वह Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 55 सोचता है, उसने मेरे प्रति ऐसा व्यहवहार किया है तो मै उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार करूं। यह क्रियात्मक व्यवहार नहीं, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति में कर्त्तव्य की स्वतंत्र प्रेरणा नहीं होती और कर्त्तव्य का स्वतंत्र मूल्य भी नहीं होता। उसका कर्त्तव्य स्व-संकल्प से प्रेरित नहीं होता, वह होता है दूसरों से प्रेरित। वर्तमान के आचार-शास्त्रियों और दार्शनिकों ने आचार के मूल्य की मीमांसा में इस प्रश्न पर बहुत चर्चा की है कि हमारे कर्त्तव्य की प्रेरणा और हमारे कर्तव्य का स्वरूप क्या होना चाहिए? प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने कहा-कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य होना चाहिए, न दया के लिए, न अनुकम्पा के लिए और न दूसरों का भला करने के लिए। ये सब नैतिक कर्म के हामी नहीं हैं और उससे सम्बन्ध भी नहीं है। केवल मनुष्य का स्वतंत्र संकल्प उसका स्वलक्ष्य मूल्य है। इसीलिए कर्तव्य के लिए ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य की यह बात बहुत ही मूल्यवान् है। यह क्रियात्मक बात है, प्रतिक्रियात्मक नहीं। कोई व्यक्ति दया का पात्र है, उस पर कोई दया करता है तो यह कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है। यह प्रतिक्रिया है। मैं 'पर' को आत्मा के समान समझता हूं और उसके साथ मैत्री का व्यवहार करता हूं, यह स्वतंत्र कर्तव्य है, स्वतंत्र मूल्य है, क्रियात्मक कार्य है। कर्त्तव्य-बोध रचनात्मक दृष्टिकोण का दूसरा सूत्र है कर्त्तव्य-बोध । प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का बोध होना चाहिए। जिस समाज में कर्त्तव्य-बोध नहीं होता, वहां ध्वंस शुरू हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्तव्य होता है, दायित्व होता है। जहां कर्त्तव्य-बोध और दायित्व होता है, वह समाज स्वस्थ होता है। कर्तव्य और दायित्व-बोध सामाजिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होता है कर्त्तव्य-बोध और दायित्व-बोध, कर्त्तव्य की चेतना का जागरण और दायित्व की चेतना का जागरण । आखिर दंड और यंत्रणा से कब तक कार्य चलेगा? क्या पूरे जीवन-काल तक आदमी नियंत्रण से रहेगा? क्या यह भय निरंतर सबके सिर पर सवार ही रहेगा? भयभीत समाज सदा रोग-ग्रस्त रहता है, वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। भय सबसे बड़ी बीमारी है ! भय तब होता है जब दायित्व और कर्त्तव्य की चेतना नहीं जागती। जिस समाज में कर्त्तव्य और दायित्व की चेतना जाग जाती है उसे डरने की जरूरत नहीं होती। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 जीवन विज्ञान-जैन विद्या जिन लोगों में दायित्व की चेतना जागृत हो जाती है, वे व्यक्ति उन बातों से ऊपर उठ जाते हैं। वे अपने चरित्र का निर्माण दायित्व के आधार पर करते हैं। जिन्हें दायित्व की अनुभूति हो जाती है। उन्हें दायित्व सौंपकर बदलने का प्रयत्न किया जाता है। लोग तो सोचते हैं कि यह व्यक्ति उसके योग्य नहीं था, फिर इस पर यह दायित्व क्यों डाला गया ? किन्तु मैं यह अनुभव करता हूं कि दायित्व डालने पर उस व्यक्ति में सचमुच परिवर्तन आ जाता है। परन्तु दायित्व की अनुभूति अवश्य होनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति जिसे दायित्व का अनुभव न हो, उसमें भी परिवर्तन आने लग जाता है। चरित्र-निर्माण की दूसरी श्रेणी का हेतु हैदायित्व-बोध। युवक का कर्तव्य-बोध हम धर्म की बात सोचते हैं तो वह देशातीत और कालातीत बात होती है। उसमें देश और काल की कोई मर्यादा नहीं होती। न कोई बालक, न कोई बूढ़ा और न कोई युवक। किन्तु जहां व्यवहार की क्रियान्विति का प्रश्न होता है, वहां देश को भी मानना होता है और काल को भी मानना होता है। उन दोनों से हटकर हम व्यवहार को नहीं चला सकते, कोई भी क्रियान्विति नहीं कर सकते। युवक शब्द भी एक काल की संज्ञा को सूचित करता है। यौवन तो अवस्थाओं के बीच एक शक्ति की अवस्था है। बालक में क्षमताएं होती हैं किन्ः विकसित नहीं होती, क्योंकि उसका शरीर-तंत्र समर्थ नहीं होता। बूढ़े में शरीरतंत्र और क्षमताएं दोनों विकासातीत हो जाती हैं, विकास से परे चलने लग जाती हैं। उसके शरीर की बहुत सारी कोशिकाएं, मस्तिष्क की बहुत सारी कोशिकाएं खप चुकती हैं और शरीर का तन्त्र शिथिल हो जाता है। उसमें अनुभव होते हुए भी कार्य-क्षमता समाप्त हो जाती है। इन दोनों के बीच की अवस्था होते हुए भी कार्य-क्षमता समाप्त हो जाती है। इन दोनों के बीच की अवस्था है-यौवन । युवा दोनों के बीच में है। उसमें शरीर की क्षमता भी है और क्रियान्विति की क्षमता भी है। इसीलिए युवक एक शक्ति का या शक्ति की अभिव्यक्ति का स्रोत होता है। इसलिए युवक से बहुत आशाएं होती हैं। कोई भी देश, कोई भी समाज, कार्यक्षमता का जहां प्रश्न है, वहां युवकों को आगे रखता है। चाहे देश-रक्षा का कार्य हो, चाहे समाज-सेवा का कार्य हो, चाहे और कोई दूसरा, तीसरा, चौथा कार्य हो, युवक की अपेक्षा होती है। किन्तु आप जानते हैं कि युवक के लिए भी बहुत कठिनाई है। कठिनाई इसलिए कि एक ओर उसके शरीर के सारे उपकरण बहुत Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 अनुप्रेक्षा सक्रिय होते हैं। रक्त भी बहुत तेज बहता है। दूसरी ओर दुनिया का वातावरण उसके प्रतिकूल भी हो सकता है और होता भी है। उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करना, दोनों के साथ संगति जूटा लेना बहुत कठिन बात है और यही संघर्ष आज सारी दुनिया में चल रहा है। आज के साहित्य का एक शब्द है- 'भोगा हुआ यथार्थ ।' हमें केवल कल्पना के जीवन में नहीं जीना है युवक में बहुत कल्पनाएं उभरती हैं। उसका घरेलू पक्ष उसके अभिभावकों के हाथ में होता है। समाज का क्षेत्र कुछ पुराने कार्यकर्ताओं के हाथ में होता है तो युवक के लिए कल्पना करने का बहुत अवकाश रहता है। किन्तु आप निश्चित मानिए कि कल्पना तब तक अर्थवान् नहीं होती जब तक की 'भोगे हुए यथार्थ' पर हम नहीं चल पाते। हमारा जीवन यथार्थ का होना चाहिए। हमारे पैरों के तले क्या है, इस बात का भी हमें बोध होना चाहिए। हमारी कल्पनाएं तब तक अर्थवान् नहीं होती, मूल्यवान् नहीं होतीं, जब तक की हमें यथार्थ का बोध नहीं होता, अपने ही पैरों के नीचे भी भूमि का बोध नहीं होता। यथार्थ पर चले बिना कोई भी आदमी आगे नहीं बढ़ सकता। उसके लिए गड्ढे बहुत हैं। दुनिया में इतने गड्ढे हैं कि पग-पग पर उसमें गिर पड़ने की संभावना बनी रहती है। गड्ढों को पाट कर वही आगे बढ़ सकता है जो यथार्थ की आंख से अपने पैरों के नीचे धरातल को देखकर चलता है। आज की सामाजिक परिस्थिति, आज की राजनैतिक परिस्थिति और आज की धार्मिक परिस्थिति, तीनों परिस्थितियां हमारे सामने हैं। दुनिया का जो वातावरण होता है, वह उसके संदर्भ में जीता है और उससे लेता है। कोई भी उससे बच नहीं सकता। जो व्यक्ति व्यवहार में चलता है, वह स्वयं अपनी क्रिया से प्रतिक्रिया को प्राप्त होता है और दूसरे को प्रतिक्रिया देता है। वह प्रभावित होता है और प्रभावित करता है। अलग कोई नहीं रह सकता। हम प्रभावों को ग्रहण करते हैं और आप भी प्रभावों को ग्रहण करते हैं, किन्तु आने वाले प्रभावों से अपने आपको कितना बचा सकते हैं और कितना लाभ उठा सकते हैं, यह है यथार्थ की भूमिका। यदि हम इस भूमिका पर वास्तव में चलें तो जो प्रभाव आ रहे हैं उनसे लाभ उठा सकते हैं। लाभ उठाना बहुत जरूरी है, क्योंकि मैं मानता हूं कि वर्तमान में बहुत सारी चीजें ऐसी अच्छी हैं जो पुराने काल में नहीं थीं। उन-उन चीजों से हमें लाभ भी उठाना चाहिए। कुछ चीजें व्यर्थ होती हैं, उनसे अपने आप को बचाना चाहिए। दोनों बातें बराबर होनी चाहिए। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान - जैन विद्या आज देखिए, युवक का मतलब एक 'क्रांति' से जुड़ गया। आवेश और युवक एक दूसरे के पर्याय जैसे हो गए। एक बार मैं डा. डी. एस. कोठारी से बात कर रहा था मैंने पूछा, 'आज के विश्वविद्यालयों में इतने उग्र आंदोलन हो रहे हैं तो क्या आप इनसे सहमत हैं ?' उन्होंने कहा, 'देखिए महाराज ! मैं मानता हूं कि आज व्यापारी वर्ग में कोई क्षमता नहीं है। राज्य कर्मचारियों में तो है ही नहीं कि वे बुराई का प्रतिकार कर सकें। आज जितना अन्याय चल रहा है, उसके प्रति एकमात्र प्रतिकार की शक्ति किसी में है तो वह है युवक और विद्यार्थी में । विद्यार्थी की क्षमता को और उसकी क्रांति करने की शक्ति को कुचलना नहीं है, रोकना नहीं है। मैं युवक के इस पक्ष का समर्थक हूं । किन्तु इतना जरूर है कि आवेश के स्थान पर थोड़ा संतुलन, थोड़ा विचार और थोड़ा विवेक होना चाहिए।' युवकों की शक्ति को रोकना नहीं है । शक्ति का उपयोग करना है और शक्ति का उपयोग होना भी चाहिए । इण्डोनेशिया में जो कुछ परिर्वन हुआ, उसकी पृष्ठभूमि में युवक वर्ग था। विद्यार्थियों ने सारे शासन को पलट दिया। आज ऐसा कहीं भी हो सकता है। यदि आज हिन्दुस्तान के करोड़ों-करोड़ों विद्यार्थी बात को पकड़ लें तो शायद हिन्दुस्तान का भी काया कल्प हो सकता है । किन्तु मुझे लगता है कि शक्ति का सही नियोजन नहीं हो रहा है। शक्ति का सही दिशा में नियोजन हो और उसके साथ विवेक और संतुलन हो जाए और सही मार्ग दर्शन हो तो उसकी सम्भावनाएं बढ़ सकती हैं। आज निर्माण की अपेक्षा है । किन्तु आप निश्चित मानिए कि निर्माण तब तक नहीं होगा जब तक कि चारित्र का विकास नहीं होगा । आज हिन्दुस्तान की सारी कठिनाई, सारी गरीबी इस बात पर पल रही है कि यहां भ्रष्टाचार बहुत है। पुल बनता है तो एक ही वर्षा में टूट जाता है। बांध बनता है तो एक ही वर्षा में उसमें दरारें पड़ जाती हैं। मकान बनता है तो काम में आने से पहले ही ढह जाता है । यह सारा इसलिए होता है कि सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार खुलकर चल रहा है। आज धन के प्रति इतना व्यपाक मोह है कि जो होना चाहिए उसका उलटा परिणाम आ रहा है। 58 आज के युवक को यथार्थ की भूमिका का अनुभव करना चाहिए । पहली बात है कि केवल बातों पर भरोसा नहीं, कार्य-क्षमता में विश्वास होना चाहिए। यह मैं अनुभव करता हूं, आज भी हिन्दुस्तानी युवक में बातें ज्यादा हैं, काम कम है। आप दूसरे देशों की तुलना में देखिए। एक व्यक्ति बता रहा था कि अमरीकी लोग सप्ताह में दो दिन तो पूरी छूट्टी मनाते हैं, किंतु पांच दिन वे निष्ठापूर्वक तन्मयता से काम करते हैं। जितना काम वे पांच दिन में करते हैं, उतना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 59 ही हिन्दुस्तानी युवक शायद पांच सप्ताह में नहीं कर सकता। बात से आप किसी दूसरे को राजी कर सकते हैं। बातों से आपको हम राजी कर सकते हैं और आप हमें राजी कर सकते है। कोरी बातें - ही बातें चलेंगी, क्रियान्विति नहीं होगी, कोई कार्य नहीं होगा तो कुछ भी नहीं बनेगा । हमारी शक्ति नष्ट हो जाएगी। यदि आप विसर्जन करना चाहते हैं, समर्पण करना चाहते हैं तो उस मन का समर्पण करें जिसके द्वारा धन देना चाहते हैं, सेवा देना चाहते हैं और श्रम देना चाहते हैं । उस मन का विसर्जन कर दें, सब अपने आप हो जाएगा। यदि उस मन का विसर्जन नहीं हुआ; मन का समर्पण नहीं हुआ तो सेवा देते समय भी सेवा नहीं दे सकते। क्योंकि मन नहीं दिया गया । मन दिए बिना कुछ नहीं हो सकता । न सेवा दी जा सकती है, न श्रम दिया जा सकता है, न धन दिया जा सकता है। धन देते समय भी आपका सारा गणित सामने आ जाता है कि इतना दे दूंगा तो इतना कम हो जाएगा। यह कैसे होगा ? काम किससे चलेगा ? तो सही बात हैअपने मन के नियोजन की। यदि आपका मन उसमें नियोजित हो जाए तो सारी बातें सुलझ सकती हैं। मन का नियोजन न हो, मन का विसर्जन न हो तो हर काम के सामने तर्क खड़ा हो जाएगा और उस तर्क में आप इस प्रकार उलझ जाएंगे जैसे मकड़ी अपने जाल में उलझ जाती है। तो दूसरी बात है तीर्थ- सेवा का संकल्प। पहली बात है आत्म- सेवा का संकल्प - स्व-निर्माण । दूसरी बात है तीर्थ सेवा का संकल्प - जन - निर्माण | एक बात याद आ रही है, दादा धर्माधिकारी की। उन्होंने एक बात कही, 'यदि अणुव्रत वाले या जैन लोग समता का प्रयोग करें, एक ऐसा कारखाना, एक ऐसा उद्योग और फैक्टरी चलाएं जिसमें कोई मालिक न हो और मजदूर न हो, सब समभागी हों, काम करने वाला हर व्यक्ति उसे संचालित करने वाला हो, उसका डायरेक्टर, उसका श्रमिक सब- -के-सब समभागी हों। न कोई स्वामी हो, न कोई सेवक । न कोई मिल मालिक हो, न कोई मजदूर। अगर एक भी ऐसा प्रयोग हो जाय तो हम देखेंगे कि अध्यात्म में आज भी प्राण है और अध्यात्म में आज भी शक्ति है | अध्यात्म और अपरिग्रह का आज भी प्रयोग किया जा सकता है । आध्यात्मिक समतावाद का प्रयोग किया जा सकता है और यदि वह नहीं किया जा सकता तो फिर अध्यात्म, अपरिग्रह और समता- इन शब्दों को सदा के लिए दफना देना चाहिए। क्यों भार ढोते फिरेंगे इनका, यदि कोई प्रयोग नहीं हो सकता है तो ? क्या केवल शब्दों का भार ढोना है ? आगे ही सिर पर बहुत भार है और बेचारे गृहस्थों पर कितना भार है ! कमाई का भार, परिवार को चलाने का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जीवन विज्ञान-जैन विद्या भार,महंगाई का भार, कितनी समस्याओं का भार, इन्कमटैक्स का भार, मृत्युटैक्स का भार, सारे भार ढोते-ढोते छोटे-से दिमाग को परेशानी हो रही है । आज के युवक में कहां है अध्ययन ? मैं मानता हूं कि क्रियान्विति के लिए सबसे पहले विचार-विकास ही आवश्यकता होती है। बौद्धिक क्षमता बढ़ती है, तो सारी बातें बढ़ती हैं । आज के संसार में बौद्धिक विकास चरम सीमा को छू रहा है । प्रतिदिन नए-नए आयाम खुल रहे हैं । साधारण-से-साधारण विषय पर इतना अन्वेषण और सूक्ष्म अध्ययन हुआ है कि एक कोषीय जीव जैसे साधारण से लगने वाले विषय पर 'चेम्बेर डिक्शनरी' जैसी बीस-बीस पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं । जो व्यक्ति आज के विचार और विकास के सम्पर्क में नहीं रहता, अगर दो सप्ताह तक वह उससे कट जाता है तो वह पिछड़ जाता है। इतनी तेज गति से और इतनी तेज रफ्तार से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता चला जा रहा है । उस स्थिति में यदि अध्ययन की उपेक्षा की जाती है तो व्यक्ति युग के साथ कैसे चल सकता है ? कैसे हमारा युग-बोध स्पष्ट हो सकता है ? नहीं हो सकता । आज का युवक पढ़ता तो है किन्तु ऐसे उपन्यास जो रोमांटिक हैं, ऐसे उपन्यास जो जासूसी से भरे-पूरे हैं। वे कहानियां जो सेक्स से भरी-पूरी हैं, जीवन के विकास में इनका कोई बड़ा योगदान नहीं होता है। जब तक अध्ययन की गम्भरता नहीं आती, तब तक कोई बड़ी बात नहीं हो सकती। आप निश्चित मानिए, ऊंचाई हमेशा गंभीरता के साथ पैदा होती है। बड़े भवन को खड़ा करना है, पचास मंजिल और सौ मंजिल का प्रासाद खड़ा करना है, तो गहराई में जाना होगा। हो सकता है कि आप उस मकान को बालू की नींव पर खड़ा कर दें या बिना नींव के खड़ा कर दें, किन्तु वह टिकेगा नहीं, ढह पड़ेगा । मजबूत मकान के लिए मजबूत नींव की आवश्यकता होती है। गहराई के बिना ऊंचाई संभव नहीं है। हम तीन आयामों में फैलते हैं- लम्बाई, ऊंचाई और चौड़ाई इन सारी बातों में फैलने के लिए गहराई की बहुत जरूरत है और गहराई विचार विकास के बिना नहीं आ सकती । आज तक के इतिहास में आप देखेंगे कि जहां विचारों में गहराई नहीं आयी, किसी भी व्यक्ति ने विकास नहीं किया-चाहे भैतिक क्षेत्र में, चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र में । अध्यात्मिक क्षेत्र में रहने वाले जिन लोगों ने ध्यान की गहराई में जाने का प्रयत्न नहीं किया, उन्होंने कोई भी नई बात नहीं दी। आज तत्त्वज्ञान का जितना विकास हुआ है, सत्य का जितना प्रकटीकरण हुआ है, वह आध्यात्मिकता के द्वारा, उन आध्यात्मिक लोगों ने किया, जो ध्यान की गहराई में चलते चले गये, डुबकियां लेते रहे, और गहरे-से-गहरे उतरते चले गये भौतिक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा क्षेत्र में भी उन व्यक्तियों ने ही अपूर्व देन दी है जो अध्ययन और विचार की गहराई में गये हैं। इन्हीं लोगों ने संसार को सब कुछ दिया है। चाहे बिजली, चाहे बड़े-बड़े प्रासाद, चाहे सड़के, चाहे बड़े-बड़े कारखाने, चाहे जीवन की सुखसुविधा के सारे साधन और उपकरण उन्हीं लोगों ने दिये हैं जिन्होंने गहराई में जाकर सोचा है। हमारे किसान, हिन्दुस्तानी किसान सैकड़ों वर्षों से खेती करते चले आ रहे हैं, पारिवारिक ढंग से करते चले आ रहे हैं। आपने कभी शंकर बाजरा नहीं सुना होगा, कभी शंकर गेहूं नहीं सुना होगा, शंकर मक्का नहीं सुना होगा, आपने कभी यह नहीं सुना कि नयी-नयी पौधे तैयार की जा सकती हैं। नये फलों का विकास हो सकता है। आज लाल अमरूद भी पैदा किए जा रहे हैं। अनेक फलों में अनेक प्रकार की सुगन्धे भी पैदा की जा रही हैं। ये सारे प्रयोग किस आधार पर हो रहे हैं ? सारे विज्ञान और ज्ञान की गहराई के आधार पर हो रहे हैं। अन्यथा जैसा चलता था वैसा ही चलता रहता। हमारे लोग झोंपड़ों में रहते थे। शताब्दियों तक झोंपड़ों में रहते ही चले गए। उन्हें उससे आगे कभी कुछ नहीं सूझा। ऐसा क्यों हुआ? साथ में अध्ययन नहीं था। अध्ययन के बिना विकास नहीं होता। जो विकास होता है, वह अध्ययन के आधार पर ही होता है। कर्म और ज्ञान-ये दो हैं। ज्ञान गहराई है और कर्म उसकी ऊंचाई है या अभिव्यक्ति है। व्यक्त और अव्यक्त ये दो बाते हैं। भारतीय दर्शन में व्यक्त और अव्यक्त की चर्चा बहुत मिलेगी। अव्यक्त नीचे रहता है, छिपा हुआ रहता है। व्यक्त हमारे सामने आता है, प्रकट रहता है। किन्तु कोई भी व्यक्त अव्यक्त के बिना नहीं होता। जिस व्यक्त के नीचे अव्यक्त नहीं है, वह कभी व्यक्त नहीं ले सकता। व्यक्त हो सकता है ज्ञान के आधार पर, जब कर्म का योग मिलता है। हमारा कर्म इसलिए विकसित नहीं हो रहा है कि हमारे ज्ञान में गहराई नहीं है। युवक को अध्ययन की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए और अध्ययन भी वैसा अध्ययन जो शतशाखी बन सके। नारी का कर्त्तव्य-बोध सबसे पहले हम यह निर्धारण करें कि हमें समाज को कैसा बनाना है ? इसके पश्चात् हम सबसे पहले स्त्रियों को प्रबुद्ध करें और उन्हें एक ऐसा संकल्प दें कि उन्हें कैसे पुत्र पैदा करना है ? वह बहुत ही कार्यकारी बात होगी। माता के मन में जो संकल्प होता है, जैसा पुत्र वह चाहती है, यदि संकल्प बलवान् होता है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या तो वैसा ही पुत्र उसे प्राप्त हो जाता है। दुनिया में जितने भी शक्तिशाली पुरुष हुए हैं, उनकी शक्ति के पीछे माता के दृढ़ संकल्प ने भी काम किया है। जो माता गर्भ से पूर्व या पश्चात् अच्छे संकल्प करती है, अच्छे व्यवहार करती है, अच्छा साहित्य पढ़ती है, अच्छे स्वप्न देखती है, उसका पुत्र शक्तिशाली होता है। जिसकी माता हीन भावना से ग्रस्त होती है, बुरे भाव रखती है, बुरे स्वप्न देखती है, उसका पुत्र कभी शक्तिशाली नहीं होता। वह डरपोक ही नहीं, अंगहीन भी होता है। महिलाओं में शक्ति होती है। वे बड़े-बड़े कार्य कर सकती हैं। आचार्यश्री की यात्रा के माध्यम से हमने देखा कि कुछेक महिलाओं ने व्यवस्थित शिक्षासंस्थान चलाने में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। महिलाएं कार्य कर सकती हैं-इसमें मुझे संदेह नहीं है। वे अपनी शक्ति को इस दिशा में नियोजित करें तो आश्चर्यकारी कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। वे इस बात में न उलझें की स्त्री दुर्बल है या पुरुष दुर्बल है। कोई दुर्बल नहीं है। दुर्बलता और सबलता का कथन सापेक्ष होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में नारी को राक्षसी कहा गया है। क्या पुरुष राक्षस नहीं होता है, पुरूष भी राक्षस होता है और नारी भी राक्षसी होती है। पुरुष भी देवता होता है, नारी भी देवी होती है। जहां नारी को राक्षसी कहा गया वहां यह भी कहा गया, 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः' यह सब सापेक्ष कथन है। इतिहास में प्राप्त होता है कि अतीत में भारतीय समाज में दो प्रकार की व्यवस्थाएं प्रचलित थीं । एक थी पितृ-सत्ताक व्यवस्था और दूसरी थी मातृ-सत्ताक व्यवस्था। पुरुष-प्रधान व्यवस्था थी तो नारी-प्रधान व्यवस्था भी थी। आज भी सीमांत प्रदेशों में ऐसी जातियां हैं, जहां स्त्री प्रधान होती है। पुरुष रसोई बनाता है, सन्तान का पालन करता है। नारी बाजार जाती है, सौदा लाती है। पुरुष बूंघट निकालता है, नारी खुले मुंह मुक्त विचरण करती है। ये सब देश-काल सापेक्ष स्थितियां हैं। यदि इन्हें हम शाश्वत सत्य मान लें तो बड़ी भ्रांति होगी। हमें सापेक्ष ही मानना चाहिए। हमें यह सोचना चाहिए कि हमें क्या बनना है, हमें क्या करना है? इस प्रश्र को सुलझाने से पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि स्त्रियों के पिछड़ने में उनकी अशिक्षा ही मूलभूत कारण है। यह सच है कि शिक्षा ही सब कुछ नहीं हैं, किन्तु उसका भी अपना महत्त्व है। शिक्षा यह पहली भूमिका है। जब तक यह पहली भूमिका तैयार नहीं होगी तब तक अगली भूमिकाएं प्राप्त ही नहीं होंगी। महिलाओं का यह प्रथम कार्य है कि वे ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ें। वे अक्षरज्ञान के प्रचार में अपना समय दें। वे स्वयं शिक्षित बनें और अपनी बहिनों को भी Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा शिक्षित करने का प्रयास करें। जब ज्ञान जागता है तब हीन-भावना समाप्त हो जाती है, स्वयं की शक्ति का भान होता है और कुछ करने की बात प्राप्त होती है । स्त्रियां यदि स्वाध्याय-मंडल और ध्यान-मण्डल का संचालन करना प्रारम्भ करती है तो अशिक्षा का वातावरण कुछ अंशों में समाप्त हो जाता है। स्त्रियों को सबसे पहले अपने आपको शक्तिशाली बनाना होगा। जो शक्तिशाली नहीं होता उसकी कोई सहायता नहीं करता। देव भी उसी की सकायता करता है जो पुरुषार्थी और पराक्रमी होता है। स्त्रियां अपने कर्त्तव्यों की लौ को प्रज्वलित करें और ज्ञान बढ़ाएं। कुछ ही वर्षों में ऐसा परिर्वन आएगा कि लोग नारी की दुर्बलताओं को भूलकर यह सोचने के लिए बाध्य होंगे की नारी की शक्ति का कैसे उपयोग किया जाए ? विचारों में नयापन पुरानेपन का मोह हमारे भीतर नहीं होना चाहिए। आज हम बीसवींइक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं। हमारे शास्त्र, हमारे ग्रंथ, हमारे नियम दो हजार, चार हजार और पांच हजार वर्ष पहले बनाये गए थे। देश का परिवर्तन हुआ है, काल का परिर्वन हुआ है, हमारी सोचने की क्षमताएं बढ़ी हैं,वैज्ञानिक उपलब्धियां हमारे सामने आई हैं, नये ग्रंथ हमारे सामने आए हैं। उन सबकी ओर आंख मूंदकर, केवल अतीत की ओर झांक कर हम सब बातों का निर्णय लेना चाहें तो वह. एकांगिता सचमुच दरिद्र बना देने वाली है। हिन्दुस्तान जो कई बातों में पिछडा रहता है, इसका कारण मैं यह मानता हूं कि उसने विज्ञान के क्षेत्र में और उपलब्धियों के क्षेत्र में पहल करने की बात बन्द कर दी। महाभारत से पहले का जमाना हिन्दुस्तान की उपलब्धियों का जमाना था। नये-नये चिंतन के आयामों को उद्घटित करने का जमाना था और उसमें बहुत कुछ हुआ था। पर इन दो हजार वर्षों में तो मुझे लगता है कि द्वार बिल्कुल ही बन्द हो गया है । हिन्दुस्तान बार-बार पराजित हुआ। बाहर के आने वाले लोगों से पराजित हुआ। क्यों हुआ? क्या यहां लड़ने वाले नहीं थे ? क्या पराक्रमी योद्धा नहीं थे ? पराक्रम की दृष्टि से हिन्दुस्तान की तुलना में दुनिया में बहुत कम योद्धा मिलेंगे। प्राणों की आहुति देने वाले, प्राणों को न्यौछावर करने वाले और प्राणों का विसर्जन करने वाले यहां बहुत मिलेंगे। किन्तु उनका तकनीक विकसित नहीं था। बाहरी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 जीवन विज्ञान-जैन विद्या लोग लड़ते हैं बारूद से, तो हिन्दुस्तानी लड़ते हैं तलवार से । तलवार और बारूद का मेल कहां ? अंग्रेजों के पास तोपें थीं, तब यहां बन्दूक आयी। हिन्दुस्तानी लोग दो-चार नहीं, कई पीढ़ियां पीछे चलते हैं। यह हारने का क्रम हमारे पराक्रम के अभाव में नहीं हुआ, यह हमारी शक्ति के अभाव में नहीं हुआ, किन्तु विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ने के कारण ऐसा हुआ है। हमारे मन में अतीत का मोह नहीं होना चाहिए । अतीत से हमें पूरा लाभ उठाना है । आज तक जितना विकास हुआ है, उससे पूरा लाभ उठाना है। लड़का हमेशा पिता के कंधे पर चढ़कर देखता है। पिता के कन्धे की ऊंचाई तो उसे सहज ही प्राप्त हो जाती उसकी ऊंचाई और ज्यादा होती है। हमारे यहां यह मान लिया गया कि शिष्य को गुरु से आगे नहीं बढ़ना चाहिए। गुरु ने जो कह दिया, उससे आगे की बात किसी को कैसे कहनी चाहिए ? मैं सोचता हूं कि विनीत शिष्य वह होता है जो गुरु ने कहा, उस बात को और आगे बढ़ा दे । गुरु की कही हुई बात को और अधिक विकसित कर दे, कि गुरु की बात को रटता ही रहे। जो ऐसा नहीं करता, मैं तो उसे बहुत विनीत या योग्य शिष्य नहीं मानता। न अभी भी दूसरों का अनुकरण चल रहा है। मौलिकता कम है । हिन्दुस्तान के अध्यापक और प्रशिक्षक इस बात की ओर ध्यान दें कि हमारे शिक्षण की पद्धतियों में मौलिकता आनी चाहिए। दूसरों का अनुकरण और नकल नहीं होनी चाहिए । अनुकरण आखिर अनुकरण होता है । 10 हिन्दुस्तान में आज भी अनुकरण की वृत्ति बहुत है । हमें सचमुच दूसरों के आधार पर नहीं, किन्तु अपने आधार पर प्रशिक्षण की योजनाएं बनानी चाहिए। मैंने दिल्ली में यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के सचिव से कहा कि आपका यह जो प्रशिक्षण का क्रम चलता है एक वर्ष का, क्या यह दो वर्ष का नहीं हो सकता ? जो विषय चल रहा है, क्या उसके साथ मानसिक विकास और नैतिक विकास के प्रशिक्षण की बात को जोड़ा नहीं जा सकता ? आज हमारी बहुत सारी समस्याओं का कारण है मानसिक दुर्बलता । उन्होंने कहा - ' हमारे आयोग के जो बहुत सारे विदेशी लोग हैं, वे जो परामर्श देंगे, सरकार उन्हें मान्य करेगी।' हमारी बात वहीं समाप्त हो गई। अन्त में मैं यही कहना चाहूंगा कि शिक्षक अपने उत्तरदायित्व को समझकर राष्ट्र की भावी सम्पत्ति के नैतिक निर्माण में अपना योग दें। वे स्वयं कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होते हुए राष्ट्र को भी उस और अभिमुख करें । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा कर्त्तव्य परायणता कर्त्तव्य परायणता की सबसे पहली शर्त है-निष्ठा और जागरूकता । जिस व्यक्ति की कर्त्तव्य पालन में निष्ठा है, वह प्रमाद, अन्याय और मुफ्तखोरी जैसा कोई काम नहीं कर सकता । कर्त्तव्य - भावना की कमी का कारण राष्ट्रीय प्रेम की न्यूनता भी है। अपने राष्ट्र के प्रति उदात्त प्रेम होगा तो प्रमाद जैसी स्थिति को पनपने का अवकाश ही नहीं मिलेगा। परिवार और अपने चरित्र - बल के लिए भी व्यक्ति के कर्त्तव्य हैं | श्रमिक अणुव्रत के ये विधान कर्त्तव्य के पति जागरूक रहने के लिए ही हैं। जिस श्रमिक का जीवन संस्कारी होता है, जिसमें किसी प्रकार का दुर्व्यसन नहीं होता, जो जुआ नहीं खेलता, बाल-विवाह, मृत्युभोज जैसी सामाजिक कुरीतियों को प्रश्रय नहीं देता, अपने अर्जित अर्थ का सुरा, सिनेमा, सिगरेट आदि आदतों की पूर्ति के लिए अपव्यय नहीं करता, श्रम से जी नहीं चुराता और अपने दायित्व के प्रति जागरूक रहता है वह श्रमिक कभी कर्त्तव्य-च्युत नहीं हो सकता । श्रमिक जीवन एक प्रशस्त जीवन-पद्धति ही नहीं, देश की बहुत बड़ी शक्ति है। श्रमिक अणुव्रत की धाराएं इस शक्ति को चारित्रिक सम्पदा से परिमंडित कर कर्त्तव्यपालन की अपूर्व क्षमता दे सकती हैं । 4. स्वावलम्बन की अनुप्रेक्षा - प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2. लयबद्ध दीर्घश्वास 3. भस्त्रिका 4. कायोत्सर्ग 65 2 मिनट 5 मिनट 5 मिनट 5 मिनट 5. संकल्प- 'मैं स्वावलम्बी रहूंगा। मैं अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करूंगा।' अभ्यास पद्धति - शान्ति - केन्द्र पर चित्त को केन्द्रित करें। फिर इस संकल्प की 15 मिनट तक पुनरावृत्ति की जाए - 5 मिनट उच्चारण पूर्वक, 5 मिनट मंद उच्चारण पूर्वक और 5 मिनट मानसिक अनुचिंतन के रूप में । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 जीवन विज्ञान-जैन विद्या 6. महाप्राण ध्वनि के साथ ध्यान सम्पन्न करें। 2 मिनट स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा-अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।) ध्यान एक परम पुरुषार्थ है, यह दृष्टि जब तक स्पष्ट नहीं हो जाती है, व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता। दृष्टि की स्पष्टता किसी भी कार्य की सफलता का वह बिंदु है, जिसे नजर अंदाज कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। ध्यान से शक्ति का अर्जन होता है और उस अर्जित शक्ति से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। कुछ लोग ध्यान को निष्क्रियता का प्रतीक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ध्यान का प्रयोग वे व्यक्ति करते हैं, जिसके पास कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण काम नहीं होता। पर मैं इस मान्यता से सहमत नहीं हूं। मेरे अभिमत से यह चिंतन उन लोगों का हो सकता है जो ध्यान की विधि से परिचित नहीं हैं और उस प्रक्रिया से गुजरे नहीं है। जो ध्यान अकर्मण्यता को निष्पन्न करता है, मैं उसे ध्यान मानने के लिए भी तैयार नहीं हूं। ध्यान की शक्ति इतनी विस्फोटक होती है कि वह मानवचेतना में छिपी हुई अनेक विशिष्ट शक्तियों का जागरण कर मनुष्य को कहां पहुंचा देती है। मैं चाहता हूं कि हमारे साधक निराश या भय से मुक्त हों और प्रलोभन के प्रवाह में न बहें। भय और प्रलोभन से चित्त विक्षिप्त होता है। इसलिए सही गुरु के सही पथ-दर्शन में सही गुर सीखकर उसका अभ्यास करना चाहिए। इस क्रम से अपना ही नहीं समूची मानवता का भला हो सकता है। पुरुषार्थ हर व्यक्ति के हाथ की बात है, पर ध्यान का पुरुषार्थ कोई-कोई ही कर सकता है। इसीलिए हर व्यक्ति को इसके लिए प्रयत्नशील रहने की अपेक्षा है। ध्यान का पुरुषार्थ करने वाले व्यक्तियों को दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहली बात यह है कि ध्यान के साधक में किसी प्रकार का भय न हो और दूसरी बात है-उसमें किसी प्रकार का प्रलोभन न हो। भय की उत्पत्ति आशंका से होती है। साधक के मन में यह आशंका हो कि मैं जो साधना कर रहा हूं, उससे मेरा अहित तो नहीं हो जाएगा। इतने वर्ष हो गये साधना करते-करते, अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। पता नहीं क्या Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा होने वाला है ? यह स्थिति व्यक्ति को अपने प्रति संदिग्ध बना देती है। संशय की स्थिति में निराशा और भय की उत्पत्ति अस्वाभाविक नहीं है। कुछ व्यक्तियों में भय तो नहीं होता पर उनके विचार स्थिर नहीं हो पाते। शायद वह ठीक है, वहां अच्छा हो रहा है, इस चिंतन में वे अपने निर्धारित लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं रह पाते। दूर से पर्वत सुहावने लगते हैं-इस जनश्रुति के अनुसार सही पथ पा लेने के बाद भी उनका झुकाव दूसरी और बना रहता है। यह भटकने की स्थिति है। किसी भी प्रलोभन में आकर इधर-उधर भटकने वाला साधक कभी सही रास्ता पा ही नहीं सकता है। स्वावलम्बन और पुरुषार्थ ये दोनों अस्तित्व के चक्षु हैं । ये वे चक्षु हैं, जो भीतर और बाहर-दोनों और समानरूप से देखते हैं। मनुष्य अस्तित्व की श्रृंखला की एक कड़ी है। पुरुषार्थ उसकी प्रकृति है। जिसका अस्तित्व है, वह कोई भी वस्तु क्रियाशून्य नहीं हो सकती। इस सत्य को तर्कशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-अस्तित्व का लक्षण है क्रियाकारित्व। जिसमें क्रियाकारित्व नहीं होता, वह आकाश-कुसुम की भांति असत् होता है। मनुष्य सत् है, इसलिए पुरुषार्थ उसके पैर और स्वावलम्बन उसकी गति है। स्वावलंबन और पुरुषार्थ . हमारे वैयक्तिक जीवन की दूसरी फलश्रुति है-स्वावलंबन । स्वावलंबन कहां है ? इतना परावलम्बन होता है कि आदमी दूसरे पर निर्भर होता चला जाता है। आपने अमरबेल का नाम सुना होगा। नाम तो बहुत सुन्दर, पर बड़ी खतरानाक बेल होती है। जिससे पौधे पर चढ़ जाती है उसका तो अंत ही समझिये। अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती। दूसरे का आलंबन ढूंढती है, दूसरों के सहारे खड़ी होती है। बड़ी अजीब प्रकृति है। जिसके सहारे खड़ी होती है उसे खाना शुरू कर देती है। कहा जाता है कि अमरबेल एक किलोमीटर तक अपना पैर फैला देती है। वह दूसरों पर फैलती है और दूसरों को समाप्त करती चली जाती है। परावलंबन का सबसे अच्छा उदाहरण है-अमरबेल। आदमी भी कम परावलंबी नहीं है, अमरबेल से कम खतरनाक नहीं है। वह भी दूसरों के कंधों पर अपना वैभव, अपना ऐश्वर्य चलाता है और उनको चट करता चला जाता है। आज व्यक्ति इतना परावलंबी हो गया कि उसने स्वावलंबन को बिलकुल भुला डाला है। लगता तो यह है, यदि दूसरा काम करने वाला मिलता हो तो Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 जीवन विज्ञान-जैन विद्या शायद कुछ लोग तो हाथ हिलाना भी पसन्द नहीं करेंगे। मुंह में कौर डालना भी नहीं चाहेंगे। चाह रहे हैं कि ऐसी मशीन का निर्माण हो जो कोरी रसोई ही नहीं पकाए, मुंह में कौर भी दे। फिर ऐसी मशीन की खोज भी करनी होगी जो पचा भी दे। पचाने की भी फिर क्या जरूरत है ? इतनी सुविधावादी मनोवृत्ति बन जाती है कि आदमी हर बात के लिए दूसरों का मुंह ताकता रहता है। इससे एक बहुत बड़ा अनर्थ हुआ है कि आदमी श्रम करना भूल गया। . हमारे शरीर का स्वभाव है-श्रम, पुरुषार्थ। यह व्यक्तिगत जीवन की तीसरी फलश्रुति है। जिसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं होता, वह आदमी सब कुछ होने पर भी कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाता। परन्तु बहुत लोग इस ओर ध्यान नहीं देते, क्योंकि बड़ा आदमी तो यह समझता है कि काम करना छुटपन की बात है। हम इस सचाई को समझें कि शरीर के लिए श्रम आवश्यक है, जरूरी है। प्रश्न होता है स्वावलम्बन और पुरुषार्थ में क्या अन्तर है ? पुरुषार्थ हमारे शरीर की प्रक्रिया है। अंगों को काम में लेना और नियोजित करना, यानी शक्ति का उपयोग करना है पुरुषार्थ, और अपनी शक्ति पर भरोसा करना है स्वावलंबन। पहले स्वावलम्बन होता है। स्वावलंबन होता है तो पुरुषार्थ होता है। अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है तो फिर स्वावलंबन की बात नहीं आती। जिसे अपने पैरों पर भरोसा नहीं है, उसे लाठी लेनी पड़ती है या फिर वैशाखी के सहारे चलना पड़ता है। अपनी शक्ति पर भरोसा होना पहली बात है। यह स्वावलंबन का दृष्टिकोण है और अपनी शक्ति का उपयोग करना, काम में लाना, पुरुषार्थ है। जब तक पूरा श्रम शरीर को नहीं मिलता, रोग समाप्त नहीं होते, हमारे रक्त की प्रणालियां स्पष्ट नहीं होती स्वास्थ्य उपलब्ध नहीं होता। सचमुच शरीर को श्रम चाहिए। श्रम बहुत आवश्यक है। कोई श्रम न कर सके तो योगासन का आलंबन ले सकता है। योगासन के द्वारा भी शरीर को स्वास्थ्य मिलता है। श्रम हमारे जीवन के लिए बहुत आवश्यक है। स्वतंत्रता, स्वावलंबन और पुरुषार्थ पर विश्वास-ये व्यक्ति की तीन वैयक्तिकताएं हैं। व्यक्ति की तीन सीमाएं हैं, जो व्यक्ति को अलग व्यक्तित्व प्रदान करती हैं। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aa अनुप्रेक्षा पुरुष और पौरुष 1. मनुष्य अपने सुख-दुःख का कर्ता स्वयं है । अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है । 2. राजा देव नहीं, ईश्वर का अवतार नहीं है वह मनुष्य है, उसे देव मत कहो, संपन्नमनुष्य कहो। 3. ग्रंथ मनुष्य की कृति है । पहले मनुष्य, फिर ग्रन्थ । 4. विश्व की व्यवस्था शाश्वत द्रव्यों के योग या परस्परापेक्षिता से स्वतः संचालित है । 5. मनुष्य अपने ही कर्त्तव्य से उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति करता है । 6. मनुष्य भाग्य या कर्म के यंत्र का पुर्जा नहीं है । समाज की भूमिका में स्वावलंबन का अर्थ यह नहीं होता कि मनुष्य दूसरों का सहयोग ले नहीं । उसका अर्थ यही होना चाहिए कि मनुष्य अपनी शक्ति का संगोपन न करे, जिस सीमा तक अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सके तथा विलासी जीवन को उच्च और श्रमरत जीवन को हेय न माने । विलास और आराम के प्रति मनुष्य का झुकाव सहज ही होता है और इस धारणा से उसे पुष्टि मिल जाती है कि श्रम करने वाला छोटा होता है । परावलंबी जीवन का यही आधार है। स्वावलंबन (अपनी श्रम-शक्ति) का अनुपयोग और परावलंबन (दूसरों की श्रम-शक्ति) का उपयोग शोषणपूर्ण जीवन का आरंभ बिंदु है। शोषण अनैतिकता की जड़ है। अणुव्रती चाहता है कि समाज में शोषण न रहे। अतः उसके लिए यह प्राप्त होता है कि वह स्वावलंबन या श्रम की भावना को जन-जन तक पहुंचाए। स्व-निर्भरता एक राजकुमार दीक्षित हो रहा था। माता-पिता ने कहा-'कुमार ! तुम बड़े सुकुमार हो, बहुत कोमल हो। तुम दीक्षित हो रहे हो। तुम्हें ज्ञात नहीं है, शरीर में बीमारी पैदा हो जाएगी हो सकती है, तो चिकित्सा नहीं करा सकोगे। बीमारी पैदा होने पर क्या करोगे?' Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन विज्ञान - जैन विद्या राजकुमार बोला- 'माता-पिता ! जंगल में रहने वाले पशु बीमार हो जाते हैं। कौन उनकी परिचर्या करता है ? कौन उन्हें भोजन - पानी लाकर देता ? रुग्ण पड़े रहते हैं। जब स्वस्थ होते हैं तब जंगल में जाकर खा-पी लेते हैं । जब ये पशु भी ऐसा कर सकते हैं तो मैं मनुष्य हूं, ऐसा क्यों नहीं कर सकूंगा ?" यह एक महत्त्वपूर्ण खोज थी स्वावलंबन और स्व-निर्भरता की । 70 अमेरिका में एक संस्थान ऐसा है जिसके सदस्य दवा का भी प्रयोग नहीं करते । वे कोई दवा नहीं लेते। ऑपरेशन की आवश्यकता होने पर भी ऑपरेशन नहीं कराते । सदस्य थोड़े हैं पर जो हैं, वे कट्टरता से इसका पालन करते हैं । यह कैसे संभव हो सकता है कि बीमारी हो और चिकित्सा न हो ? चिकित्सा हो कसती है पर वह बाहरी वस्तु से न हो, स्वावलंबन और स्वनिर्भर होकर अपनी वस्तु से चिकित्सा करो, बाह्य वस्तु से चिकित्सा मत करो, परवस्तु से चिकित्सा मत करो । शरीर में रोग पैदा होता है तो शरीर में नीरोगता की भी पूरी व्यवस्था है। आसनों का विकास इस दिशा में हुआ था । आसनों का प्रयोग करो, चिकित्सा हो जाएगी। श्वास और विभिन्न मुद्राओं का प्रयोग रोग निवारण की दीशा में हुआ था। इसमें नाड़ी - विज्ञान का पूरा उपयोग किया गया था। पाचन कमजोर है। भोजन के बाद वज्रासन में बैठो, पाचन की दुर्बलता मिट जाएगी। भोजन के बाद दाएं नथुने से पन्द्रह मिनट तक श्वास लो, पाचन स्वस्थ होने लगेगा। महामुद्रा का प्रयोग करो, पाचन ठीक होने लगेगा। प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए आसन और नाड़ियों का प्रयोग तथा स्वर का प्रयोग खोजा गया था। हजारों आसनों का प्रयोग होने लगा। शारीरिक बीमारी हो तो आसनों का प्रयोग किया जा सकता है और मानसिक बीमारी के लिए भी आसनों का प्रयोग किया जा सकता है। ये सारे तथ्य स्वावलंबन और आत्मानुशासन के लिए खोजे गए थे युवक और स्वावलम्बन युवकों की शक्ति आज एक समस्या बन रही है । वह ध्वंस की ओर जा रही है। सारे देश की स्थिति को देखिए । भारत के युवकों की शक्ति जितनी निर्माणात्मक कार्यों में नहीं लग रही है, उससे कहीं अधिक हिंसात्मक कामों में लग रही है। आए दिन समस्याओं का सामना सबको करना पड़ रहा है। युवक 1 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 71 को शक्ति का पर्यायवाची मान लिया है। युवक अर्थात् शक्ति और शक्ति अर्थात् युवक । युवक शक्ति का प्रतिनिधि होता है । यह प्रतिनिधित्व तो उसने स्वीकार कर लिया किन्तु उसका ठीक नियोजन नहीं किया । इस नियोजन की गड़बड़ी के कारण आज देश में बहुत सारी समस्याएं पैदा हो गयी हैं। आचार्य श्री तुलसी का उदाहरण युवकों के सामने होना चाहिए । जब आचार्य श्री की अवस्था मात्र बाईस वर्ष की थी, उस समय आपने एक शक्तिशाली संघ का नेतृत्व अपने कंधों पर लिया और उसका विकास किया शक्ति का उपयोग रचनात्मक कामों में किया । आचार्य श्री का प्रारम्भिक सूत्र था - 'हमें ध्वंस I पर की ओर अपनी शक्ति नहीं लगानी है।' दुनिया में सबका विरोध होता है । कोई ऐसा नहीं है कि जिसका विरोध नहीं होता । सूर्य अकारण प्रकाश देता है, उसकी भी आलोचना होती है। सूर्य का भी विरोध होता है। हवा अकारण हमें लाभाविन्त करती है, प्राण देती है, जीवन देती है, पर उसका भी विरोध होता है । जो व्यक्ति अपनी शक्ति का इतना निर्माणात्मक और रचनात्मक कार्यों में नियोजन कर सकता है, वह सचमुच विकास कर लेता है । यदि आज यह बात हमारे अध्यापकों की समझ में आ जाए, विद्यार्थियों की समझ में आ जाए, मजदूरों की समझ में आ जाए तो मैं समझता हूं कि जो रचनात्मक निष्पत्तियां हमारे सामने आनी चाहिए किन्तु नहीं आ रही हैं, उनका एक समाधान हो सकता है। आज देश की स्थिति क्या है ? आज के युवकों की स्थिति क्या है ? शक्ति का नियोजन करने के लिए हमें कुछेक बातों पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक होगा। पहली बात है कर्मण्यता । शक्ति तो है किन्तु कर्मण्यता नहीं है । आज हिन्दुस्तान जिस बीमारी से ग्रस्त है, वह है अकर्मण्यता और मुफ्तखोरी का पाठ उसने शताब्दियों से पढ़ लिया है। यह बीमारी उसकी रग-रग में जमी हुई हैं। भगवान् की दया हो, कोई काम करना न पड़े, ऐसा मन हो गया है। लेने के लिए उसका इतना मानस बन गया है कि कोई काम करना न पड़े, श्रम करना न पड़ें और काम बन जाए तो भगवान् की कृपा है, धर्म की कृपा है। श्रम करना पड़ जाए तो हम मानते हैं कि भगवान् की कृपा कम है। धर्म की कृपा कम है । यह जो अकर्मण्यता की बीमारी है, अपने कर्म पर, अपने पुरुषार्थ पर विश्वास न करने की बीमारी है, हिन्दुस्तान के युवक को इस बीमारी से मुक्त होना चाहिए । अगर हमारे युवक इस बीमारी से मुक्त हो जाते हैं तो समझना चाहिए कि सबसे बड़ी समस्या का समाधान हो गया। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 जीवन विज्ञान-जैन विद्या 5. संप्रदाय-निरपेक्षता की अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2 मिनट 2. लयबद्ध दीर्घश्वास 5 मिनट 3. भस्त्रिका 5 मिनट 4. कायोत्सर्ग 5 मिनट 5. संकल्प 5 मिनट 'मैं साम्प्रदायिक कट्टरता से बचूंगा। मैं विभिन्न मान्यताओं और सम्प्रदायो के प्रति सद्भावना का विकास करूंगा। ___ अभ्यास पद्धति- आनन्द-केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करें। फिर इस संकल्प की 15 मिनट तक पुनरावृत्ति की जाए-पांच मिनट उच्चारण पूर्वक, पांच मिनट मंद उच्चारण पूर्वक और पांच मिनट मानसिक अनुचिंतन के रूप में। 6. महाप्राण ध्वनि के साथ ध्यान संपन्न करें। 2 मिनट स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा-अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।) ___ भगवान महावीर ने तीर्थ की स्थापना की। साधना को सामुदायिक रूप दिया, फिर भी वे सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-भिन्न मानते थे। उन्होंने कहा-'एक व्यक्ति सम्प्रदाय को छोड़ देता है पर धर्म को नहीं छोड़ता। एक व्यक्ति धर्म को छोड़ देता है, पर सम्प्रदाय को नहीं छोड़ता।' सम्प्रदाय धर्म की उपलब्धि में सहायक हो सकता है। इस दृष्टि से उन्होंने संघबद्धता को महत्त्व दिया किन्तु धर्म को सम्प्रदाय से आवृत नहीं होने दिया। उन्होंने कहा-जो दार्शनिक लोग कहते हैं कि हमारे संप्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं, वे भटके हुए हैं और वे भी भटके हुए हैं, जो अपने-अपने सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं। धर्म की आराधना सम्प्रदायातीत होकर, सत्याभिमुख हो कर ही की जा सकती है। सम्प्रदाय एक साधना है, जीवन-यापन की परस्परता या सहयोग है। वह व्यक्ति को प्रेरित कर सकता है, किन्तु वह स्वयं धर्म नहीं है। सम्प्रदाय और धर्म को भिन्न-भिन्न मानने वाले साधक के लिए सम्प्रदाय धर्म-प्रेरक होता है, धर्म-साधक नहीं। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा.. 73 आज एक नई कठिनाई पैदा हो गई है। आज के लोग धर्म और सम्प्रदाय या मजहब को एक मान बैठे हैं। लोग कह देते हैं, धर्म के कारण कितनी लड़ाइयां लड़ी गई ? कितना रक्त बहा ? कितने देश उमड़े ? धर्म के कारण ऐसा. नहीं हुआ और न होगा। यह सब होता है सम्प्रदाय के कारण। धर्म और सम्प्रदाय इतने घुलमिल गये कि जो सम्प्रदाय के नाम पर घटित हुआ, वह सारा धर्म पर आरोपित हो गया। इसलिए धर्म को बदनाम होना पड़ा। यदि कोई आदमी धर्म तक पहुंच जाए तो वहां न लड़ाई है, न द्वेष है और न झंझट है। धर्म का अर्थ है, राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीना । जब कोई भी आदमी राग-द्वेष-मुक्त जीवन जीएगा तो लड़ाइयां कहां उभरेगी? लड़ाइयां धर्म के कारण नहीं, सम्प्रदाय के कारण हुई हैं, होती हैं । सम्प्रदाय के आवरण में बेचारा धर्म आवृत हो गया। इसीलिए आज धर्म की भाषा समझ में नहीं आ रही है। यह एक समस्या है। इस समस्या को सुलझाने के लिए हमने एक प्रक्रिया प्रारम्भ की। उसमें धर्म शब्द का उपयोग नहीं किया। मैं मानता हूं कि धर्म शब्द बहुत ही मूल्यवान है। उसका अर्थ गम्भीर है। किन्तु परिस्थितिवश उसका अर्थ बदल गया। भाषाशास्त्र के अनुसार शब्दों के अर्थ का उत्क्रमण और अपक्रमण होता है। अर्थ का हस और विकास होता है। आज एक दृष्टि से धर्म शब्द सम्प्रदाय का द्योतक बन गया। उसका अर्थ भी कुछ बदल गया। इसीलिए नये शब्द के चुनाव की अपेक्षा हुई। हमने सोचा कि जीवन-विकास के लिए कोई ऐसा शब्द चुना जाए जो धर्म की मूल भवनाओं का स्पर्श करने वाला हो। जीवन में धर्म का विकास, अध्यात्म का विकास और नैतिकता का विकास करने वाला शब्द हो। ये शब्द आज विवाद का विषय बन गए हैं, इसलिए नये शब्द को ढूंढना चाहिए जो आज के मानस का स्पर्श कर सके, पर कोई प्रतिक्रिया पैदा न करे। इन दृष्टियों से सोचने पर एक शब्द जंचा और वह है-'जीवन-विज्ञान।' इसकी प्रक्रिया का किसी धर्म-विशेष या सम्प्रदाय-विशेष से सम्बन्ध नहीं है। इसका सीधा सम्बन्ध है, जीवन से। प्रत्येक प्राणी को जीवन-विज्ञान का अनुभव होना चाहिए। जीवन के साथ विज्ञान शब्द इसलिए जुड़ता है कि जीवन के अपने नियम हैं। प्रत्येक वस्तु के साथ नियम जुड़े हुए हैं। कुछ हमें ज्ञात हैं, कुछ अज्ञात हैं। सारे नियम हम नहीं जानते। अनेक नियम अज्ञात ही रह जाते हैं। जैसे-जैसे विकास हो रहा है अज्ञात नियम ज्ञात होते जा रहे हैं। मनुष्य इन ज्ञात नियमों का उपयोग करता है। किन्तु जो ज्ञात हुआ है, वह एक बिन्दु मात्र है, अज्ञात का समुद्र अभी भी अछूता ही पड़ा है। ज्ञात अल्प है, अज्ञात अनन्त है। हमारे जीवन के भी अनन्त नियम हैं। जीवन विकास, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 जीवन विज्ञान-जैन विद्या के अनगिनत नियम हैं। हम बहुत थोड़े नियमों को जानते हैं और जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, जानने की सीमा भी आगे बढ़ती जाती है। हम जीवन के नियमों को जान सकें, उनका उपयोग कर सकें और सफलता की दिशा में जीवन को आगे बढ़ा सकें-यह है जीवन-विज्ञान का उद्देश्य । जीवन-विज्ञान का अर्थ है-जीवन के नियमों की खोज। उन नियमों की खोज जिनके द्वारा दृष्टिकोण का परिष्कार किया जा सकता है, व्यवहार और आचरण का रूपान्तरण किया जा सकता है। जीवन के तीन मुख्य पक्ष हैं-ज्ञानात्मक पक्ष, भावनात्मक पक्ष और क्रियात्मक पक्ष। 'हम जानते हैं, यह हमारा ज्ञानात्मक पक्ष है। हम भावना से जुड़े हुए हैं', यह हमारा भावात्मक पक्ष है। हम आचरण करते हैं, यह हमारा क्रियात्मक पक्ष है। दर्शन वही है जो जीया जा सके ... हमारा दृष्टिकोण सत्यग्राही होना चाहिए। इसी विचार से जैन आचार्यों ने नयवाद का विकास किया। कहीं भी आग्रह नहीं। नयवाद के दो आधार बनते हैं-सापेक्षता. और समन्वय। व्यक्ति और समाज हमारे सामने हैं। कुछ लोग एकान्ततः व्यक्तिवादी वृत्ति के होते हैं। वे सारा भार व्यक्ति पर डाल देते हैं। कुछ लोग समाज का आग्रह रखते हैं। राजनीतिक प्रणालियों में, समाजवादी और साम्यवादी प्रणाली में केवल समाज पर सारा भार डाल दिया जाता है। इधर व्यक्ति का विकास सब कुछ है तो उधर समाज का विकास ही सब कुछ है। किन्तु व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का तब तक सम्यक् निर्धारण नहीं किया जा सकता जब तक कि हमारा दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं होता। व्यक्ति-निरपेक्ष समाज का और समाज-निरपेक्ष व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता। समाज-सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति-सापेक्ष समाज का ही मूल्य हो सकता है और तभी सम्यक् विकास की प्रकिया को आगे बढ़ाया जा सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का एक सूत्र है-सापेक्षता। यह सापेक्षता प्रातिभज्ञान और तार्किकज्ञान में भी विकसित होती है। केवल तार्किकज्ञान नहीं, केवल अन्तर्दृष्टि का ज्ञान नहीं, केवल अध्यात्म नहीं और कोरा व्यवहार नहीं । कोरा व्यवहार होता है तो स्थूलता आ जाती है। इतनी स्थूलता कि सत्य कहीं छूट जाता है। कोरा निश्चय होता है तो अध्यात्म में कोई शक्ति नहीं आती। दोनों जरूरी होते हैं। यानी सम्प्रदाय-शून्य अध्यात्म होता है तो वह कुछ व्यक्तियों के लिए काम का Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 75 होता है, जनता के लिए कोई काम का नहीं बनता। कुछ व्यक्ति कन्दराओं में बैठकर अध्यात्म की साधना कर ले, पर शेष लोग बिलकुल वंचित रह जाते हैं और उनके जीवन का कोई मार्ग निश्चित नहीं होता। जरूरी है समाज, जरूरी है संघ, जरूरी है संगठन और जरूरी है सम्प्रदाय। जो लोग संगठन का विरोध करते हैं, सम्प्रदाय का विरोध करते हैं, संघ का विरोध करते हैं, केवल अकेलेपन की बात करते हैं, वे भी सचाई को नहीं पकड़ पा रहे हैं। उनका भी आग्रह हो गया कि अकेला होना अच्छा है। एक-दो आदमी अच्छे हो गए। उससे क्या हुआ ? किन्तु जिस दुनिया में जीमा है, उसमें क्या अकेला व्यक्ति रह सकेगा? पहले तो मान लिया जाता था कि हिमालय की कंदरा में जाकर बैठ गया, अब वह शांति का जीवन जी सकता है। किन्तु एक ओर तो अणुअस्त्रों की बिभीषिका, दूसरी ओर सारा वातावरण प्रदूषण से व्याप्त इस स्थिति में क्या हिमालय बचा रह पाएगा? कभी संभव नहीं। आज हिमालय भी प्रदूषण से वंचित नहीं है। दुनिया का कोई भी कोना प्रदूषणसे वंचित नहीं है। कहां जाएगा? कौन-सी गुफा है ? कौन-सी कंदरा है जहां जाकर व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव कर सके ? यह संक्रमण की दुनिया है। एक विचार यहां बैठे व्यक्ति के मन में पैदा होता है और उस विचार के परमाणु सारे संसार में फैल जाते हैं। न हिमालय बचता है और न कोई गुफा ही बचती है। इस संक्रमण की दुनिया में हमारे पास ऐसा कौन-सा कवच है कि हम अपने आपको सर्वथा बचा सकें। इस दिशा में वीतराग लोगों ने भी प्रयास किया कि दुनिया भी अच्छी बने, जनता भी अच्छी बने। अच्छे लोगों का संघ बने, समाज बने, समुदाय बने । यदि ऐसा नहीं बनता है तो विकट स्थिति पैदा हो जाती है। वीतराग को भी जीवन जीना होता है। मन पर प्रभाव चाहे न आए, किन्तु उसके शरीर पर तो प्रभाव पड़ेगा ही। वह मानसिक विचारों से बीमार नहीं पड़ेगा किन्तु दुनिया के वातावरण से तो बीमार बन सकता है। खान-पान से तो बीमार बन सकता है। तो जिस दुनिया के बीच में जीना है, उसको वीतरागना की दिशा में प्रेरित करना, यह वीतराग का भी धर्म और कर्त्तव्य होता है। इसलिए संघ-सम्प्रदाय कोई बुरी बात नहीं है। वह बहुत आवश्यक है किन्तु केवल संघ, संगठन और सम्प्रदाय में ही हमारी दृष्टि अटक जाए, तो यह बुरी बात है। हमें संघ और सम्प्रदाय में जो सचाई है, जो सत्य है, उसका अवतरण करना है, निश्चयदृष्टि का आलम्बन लेना है, अध्यात्म को विकसित करना है। नहीं तो यह थोथा हड्डियों का ढांचा भर रह जाएगा। वहां सत्य का संचार नहीं होगा। आदमी मर Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 जीवन विज्ञान-जैन विद्या गया। उसका शरीर ताजा का ताजा है। न सिकुड़न, न कुछ और, पूरा-का-पूरा चेहरा। किन्तु केवल प्राण नहीं रहा। वह हड्डियों का मात्र ढांचा बचा। चैतन्य उड़ गया। तो बिना सत्य के, बिना निश्चय के और बिना अध्यात्म के संगठन और संघ मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाएगा। उसमें प्राण नहीं रहेगा, उसमें तेजस्विता नहीं रहेगी, उसमें चैतन्य नहीं रहेगा। ___इन दोनों वृत्तियों की सापेक्षता हमारा मार्ग बन सकती है। न अकेला व्यक्ति मार्ग बन सकता है और न कोरा समाज मार्ग बन सकता है। दोनों का योग ही हमारे विकास की यात्रा का मार्ग बन सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का चरण और आगे बढ़ता है तो वहां ज्ञान और क्रिया का समन्वय होता है। किसने कहा दर्शन जीया नहीं जा सकता। मैं सोचता हूं जो दर्शन जीया नहीं जा सकता, वह हवाई उड़ान होता है, आकाशी कल्पना होती है, यथार्थ नहीं होता। वही दर्शन वास्तविक हो सकता है जो जीया जा सकता है। वह आदर्श किसी काम का नहीं, जो व्यवहार में न आ सके और वह व्यवहार किसी काम का नहीं, जो आदर्श तक न पहुंचाया जा सके। आदर्श और व्यवहार दोनों का योग होना चाहिए। आचार्य श्री तुलसी ने धर्म को युग की वेदी पर खड़ा कर दिया, जिससे सारे सम्प्रदाय लाभान्वित हुए हैं। आचार्यश्री जब दक्षिण यात्रा पर थे तब लोगों ने कहा-हमारे यहां अनेक आचार्य आए हैं, पर मानवता की बात करने वाले पहले आचार्य आप आए हैं। सब धर्मगुरु अपने-अपने संम्प्रदाय की बात करते हैं, परन्तु संप्रदाय से दूर रहकर मानवता की बात करने वाले पहले आचार्य आप हैं। वहां कोई भी जैन नहीं था, फिर भी नहीं लगता था कि वे जैन नहीं हैं। . धर्म के क्षेत्र में आचार्य श्री ने क्रांति की है। उन्होंने अपने शिष्यों में निष्पक्षता व तटस्थता की बात जंचा दी, जिससे उनमें सम्प्रदाय की बू नहीं आ सकती। दर्शन के क्षेत्र में भी नए मूल्यों को प्रस्तुत किया है। लाखों-लाखों लोगों से सम्पर्क बना है। इस दिशा में आचार्यश्री और उनके शिष्यों ने भगीरथ प्रयत्न किया है। परिणाम यह आया कि जो नजदीक थे वे दूर हो गये और जो दूर खड़े थे वे निकट आ गए। आप जानते हैं, महापुरुष कभी लकीर पर नहीं चलते। परम्परा का अनुगमन करने वाले सब होते हैं, परन्तु परम्परा में अपना योग देकर उसको विकसित करने वाले बिरले ही होते हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा . . . 77 साम्प्रदायिक वैमनस्य मनुष्य जन्मना मनुष्य का शत्रु नहीं है। एक ही पेड़ की दो शाखाएं परस्पर विरोधी कैसे हो सकती हैं ? फिर भी यह कहा जाता है कि धर्म-सम्प्रदाय मनुष्यों में मैत्री स्थापित करने के लिए प्रचलित हुए हैं। उनमें जन्मना शत्रुता नहीं है, फिर मैत्री स्थापित करने की क्या आवश्यकता हुई ? मैं फिर इस विश्वास को दोहराना चाहता हूं कि मनुष्य मनुष्य में स्वभातः शत्रुता नहीं है। वह निहित स्वार्थ वाले लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है। उसे मिटाने का काम धर्म-सम्प्रदायों ने प्रारम्भ किया, किन्तु आगे चलकर वे स्वयं निहित स्वार्थ वाले लोगों के घिर गए और मनुष्य को मनुष्य का शत्रु मानने के सिद्धांत की पुष्टि में लग गये। इस चिन्तन के आधार पर मुझे लगता है कि साम्प्रदायकि समस्या का मूल भी अहं और स्वार्थ को छोड़कर अन्यत्र नहीं खोजा जा सकता। इसलिए साम्प्रदायिक वैमनस्य की समस्या को सुलझाने के लिए भी अहं और स्वार्थ का विसर्जन बहुत आवश्यक है। साम्प्रदायिक एकता हिन्दुस्तान सम्प्रदाय-निरपेक्ष जनतन्त्री राष्ट्र है। यह दुनिया का सबसे बडा जनतन्त्र है। यहां पर व्यक्ति वाणी, लेखन, विचार-प्रकाश और धार्मिक उपासना करने में स्वतन्त्र है। यहां विवधि भाषाएं, विविध जातियां और विविध धर्म-सम्प्रदाय हैं। किन्तु इन विधिताओं के होने पर भी सब एक हैं। वे एक इस अर्थ में हैं कि वे सब भारतीय हैं। वे भारत की पवित्र मिट्टी में जन्मे हैं और उसी में उन्हें मरना है। साम्प्रदायिक विग्रह से वह पवित्र मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है और व्यक्ति का मन अपवित्र होता है, इसलिए साम्प्रदायिक एकता पर विशेष बल दिया जाए। - साधना और सम्प्रदाय का परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह प्रश्न भी काफी जटिल है। सम्प्रदायों का जन्म तो इसलिए हुआ था कि साधना में वे साधकों का सहयोग करें। किन्तु कालान्तर में सांप्रदायिक अभिनिवेश बढ़ता गया, उसमें साधना पक्ष गौण होता गया और एक-दूसरे से उत्कृष्ठ दिखाने का मनोभाव मुख्य होता गया। साम्प्रदायिक कट्टरता ने कलह के बीज बोये और जन-जन में प्रेम की भावना भरने वाला धर्म फूट और संघर्ष का कारण बन गया। आज लोगों का मानस पुनः प्रबुद्ध हो रहा है। इस स्थिति में यह आवश्यक है कि सम्प्रदाय अपने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 जीवन विज्ञान-जैन विद्या मुख्य प्रयोजन की ओर ध्यान दें। वे साधक की साधना में सहयोगी बनें, बाधक न हों। सम्प्रदाय को गौण स्थान देते हुए साधना को मुख्य स्थान दिया जाए। जैसे नौका मनुष्य को पार पहुंचाकर कृतकृत्य हो जाती है, वैसे ही सम्प्रदाय भी साधक को साधना की एक भूमिका तक पहुंचाकर कृतकृत्य हो जाएं। साम्प्रदायिक आग्रह ने न साधना को तेजस्वी होने दिया और न साधक भी उसके अभाव में लक्ष्य तक पहुंच पाए हैं। ___आचार्य भिक्षु की सत्य-शोध की वृत्ति बहुत प्रबल थी। वे सत्य के प्रति बहुत विनम्र थे। इसीलिए उनमें आग्रह नहीं पनपा। उन्होंने अपनी मर्यादाओं को अन्तिम नहीं माना। उन्हें भविष्य पर भरोसा था। इसीलिए उन्होंने मर्यादाओं के परिवर्तन और संशोधन की कुंजी भावी आचार्यों के हाथों में दे दी। उनकी तपःपूत चर्या, शुद्धनीति, आचार-निष्ठा, सद्भाव, संख्या की अपेक्षा गुणवत्ता को मूल्य देने की प्रवृत्ति, अनुशासन-प्रवणता आदि गुणों ने एक ऐसा वातावरण तैयार किया कि हजारों-हजारों लोगों के लिए उनकी मर्यादाएं आप्त-वचन जैसे बन गयीं। वर्तमान की चिन्तनधारा आचार्य भिक्षु की मर्यादाएं दूसरी शताब्दी के अन्तिम चरण में हैं। इस लम्बी अवधि में भारी परिवर्तन हुए हैं 1. राजनीतिक स्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। राजतन्त्र के स्थान पर जनतन्त्र प्रतिष्ठित हो गया है। 2. साम्प्रदायिक स्थितियों में परिवर्तन हुआ है। आज हर सम्प्रदाय का युवक वर्ग कट्टरता की अपेक्षा पारस्परिक सद्भाव को अधिक महत्त्व देता है। - 3. वैज्ञानिक गवेषणाओं और उपलब्धियों ने रूढ़ तथा बद्धमूल धाराणाओं में भी परिवर्तन ला दिया है। अब मान्यताओं को तार्किक और वैज्ञानिक आधार दिये बिना उन्हें गतिशील नहीं रखा जा सकता। 4.संचार-साधनों द्वारा भौगोलिक दूरी कम हो जाने के कारण वैज्ञानिक परिवर्तन भी बहुत हुआ है। पश्चिमी जगत् के उन्मुक्त विचारों ने हर व्यक्ति को मुक्त जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। इन सारी परिस्थितियों और उनसे प्राप्त होने वाले प्रभावों के आलोक में हमें मर्यादाओं पर विचार करना है, अपनी आस्था की परीक्षा करनी है, अपने आपको तोलना है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा 79 'आत्मशुद्धि का जहां प्रश्न है, सम्प्रदाय का मोह न हो, - 'यह घोष अंत:प्रेरणा का प्रतिफलन हैं । समन्वय का प्रयत्न और साम्प्रदायिक एकता के पांच सूत्र उसी प्रेरणा के आधार पर प्रस्तुत किए गए हैं। अणुव्रत आंदोलन, जो कि सब धर्मों का समन्वय है, उसी भावना का विराट् रूप है । हमें जो सिद्धांत प्राप्त हो, उनके प्रति हमारा पूर्ण विश्वास हो, किन्तु हम यह कभी न मानें कि संपूर्ण सत्य हमें उपलब्ध हो गया है। आज भी नया सत्य, नया तथ्य या नया ज्ञान हमें उपलब्ध होता हो, तो उसे स्वीकार करने का साहस होना चाहिए । इसी आधार पर हम परिवर्तन में विश्वास करें। प्रवाहपाती होकर हमें कुछ बदलना नहीं चाहिए और रूढ़िग्रस्त होकर आवश्यक परिवर्तन से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। 6. धैर्य की अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2. कायोत्सर्ग 3. पीले रंगा का श्वास लें । अनुभव करें श्वास के साथ पीले रंग के परमाणु भीतर प्रवेश कर रहे हैं। 3 मिनट 4. प्राण- केन्द्र पर पीले रंगा का ध्यान करें । 3 मिनट 2 मिनट 5 मिनट 5. प्राण- केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित कर अनुप्रेक्षा करें'मैं परिस्थिति को झेलने की क्षमता को विकसित करूंगा । उससे पराजित नहीं होऊंगा' - इस शब्दावाली का नौ बार उच्चारण करें फिर इसका नौ बार मानसिक जप करें। 6. अनुचिंतन करें जिसमें उतावलापन होता है, जो उचित समय की प्रतिक्षा करना नहीं जानता, उसका मन अधिक चंचल हो जाता है। अधिक चंचलता मन को अस्त-व्यस्त बना देती है । इससे स्मृति और एकाग्रता की शक्ति कम होती है । इसलिए धैर्य रखना बहुत जरुरी है । मैं धैर्य रखने का अभ्यास करूंगा । 7. महाप्राण ध्वसनि के साथ ध्यान सम्पन्न करें । 10 मिनट 2 मिनट 5 मिनट Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 जीवन विज्ञान-जैन विद्या स्वाध्याय और मनन (अनुप्रेक्षा-अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है ।) पौराणिक अनुश्रुति है कि इन्द्र ने अपनी परिषद् में कहा-'महावीर जैसा कष्टसहिष्णु मनुष्य इस पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं है । उन्हें कोई देव भी अपने पथ से विचलित नहीं कर सकता। परिषद् के सदस्य देवों ने इन्द्र की बात का अनुमोदन किया, किन्तु संगम नाम का देव इन्द्र की बात से सहमत नहीं हुआ। उसने कहा- कोई भी मनुष्य इतना कष्टसहिष्णु नहीं हो सकता जिसे देवता अपनी शक्ति से विचलित न कर सकेो यदि आप मेरे कार्य में बाधक न बनें तो मैं उन्हें विचलित कर सकता हूं ।' इन्द्र को वच-बद्ध कर संगम मनुष्यलोक में आया। उसने महावीर को कष्ट देना शुरू किया। केवल एक रात्रि में बीस बार मारक कष्ट दिया। उसने हाथी बनकर महावीर को आकाश में उछाला, वृश्चिक बनकर काटा, वज्र चींटियों का रूप धारण कर उनके शरीर को लहूलुहान किया, फिर भी महावीर के मन में कोई प्रकम्पन नहीं हुआ। विचलन तब होता है जब हम हिंसा से प्रताड़ित होते है । हिंसा की प्रताड़ना तब होती है जब हम संवेदन के साथ ध्यान को जोड़ते हैं और यह मानने लग जाते हैं कि कोई दूसरा मुझे सता रहा है। अहिंसा का सूत्र है कि ध्यान को संवेदन के साथ न जोडें और किसी दूसरे को कष्टदाता न मानें। महावीर अपने कर्म-संस्कारों के सिवाय किसी दूसरे को दुःख देने वाला नहीं मानते थे और अपने ध्यान को चैतन्य से विलग नहीं करते थे। इसलिए संगम भयंकर कष्टों का वातावरण पैदा करके भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सका। संगम ने महावीर को विचलित करने का दूसरा रास्ता अपनाया। उसने रूपसियों की कतार खड़ी की और महावीर को अपने प्रेम-जाल में फंसाने का प्रयत्न शुरू किया। अहिंसक को प्रतिकूल और अनुकूल-दोनों परिस्थितियों पर समान रूप से विजय प्राप्त करनी होती है। अनुकूल वातावरण में अविचलित रहना, प्रतिकूल वातावरण की विजय से अधिक कठिन है। पर चैतन्य की महाज्वाला के प्रदीप्त होने पर प्रतिकूल और अनुकूल-दोनों इंधन भस्म हो जाते हैं, उसे भस्म नहीं कर पाते। संगम का धैर्य विचलित हो गया। उसने महावीर के पास आकर कहा"भन्ते! अब आप सुख से रहें। मैं जा रहा हूं । आपकी अहिंसा विजयी हुइ है, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी हिंसा पराजित । मैं आपको कष्ट दे रहा था और आप मुझ पर करुणा का सुधासिंचन कर रहे थे । मैं आपको वेदना के सागर में निमज्जित कर रहा था और आप यह सोच रहे थे कि संगम मुझे निमित्त बनाकर हिंसा के सागर में डूबने का प्रयत्न कर रहा है । आपके मन में एक क्षण के लिए भी मुझ पर क्रोध नहीं आया।" धृति वह तत्त्व है जो व्यक्ति के मन में सदाचार के प्रति आस्था को दृढ़ करती है। सामान्यत: व्यक्ति कोई भी अच्छा काम करता है और उसे शीघ्र ही उसका सुफल नहीं मिलता है तो वह दुराचार की और प्रवृत हो जाता है। किन्तु जिस व्यक्ति में धेर्य होता है वह परिणाम के प्रति अनातुर रहता हुआ सत्क्रिया करता रहता है। साधना का सूत्र-प्रतीक्षा आज के युग की सबसे बड़ी कठिनाई है कि आदमी प्रतीक्षा करना नहीं चाहता-वह तत्काल फल चाहता है। आज ही बीज बोया और आज उसका फल मिल जाए-यह उसका प्रयत्न रहता है। यह अधैर्य, प्रतीक्षा न करने की वृत्ति साधना का विघ्न है। साधना का सूत्र है-प्रतीक्षा करना, जल्दबाजी न करना । जल्दबाजी करने में अनेक समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। कच्चा फल खट्टा होता है, तो कच्ची साधना अच्छी कैसे होगी? हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि फल पक जाए । खट्टा न रहे । पकने के लिए प्रतीक्षा करनी होती है वह एक ही क्षण में घटित नहीं होता । साधना के मार्ग में जल्दबाजी खतरनाक होती है। धीमे-धीमे अभ्यास को बढ़ाना चाहिए, अन्यथा शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है। उसे संभाल पाना कठिन हो जाता है । धैर्य के साथ चलें। अधैर्य की स्थिति उत्पन्न न होने दें। अ-. मन की भूमिका प्राप्त करने के लिए उतावले न हों । मन की भूमिका जब समुचित ढंग से चलती रहेगी, आलम्बन शुद्ध होगा और मन की एक दिशागामिता बनी रहेगी तो एक दिन वह लक्ष्य तक पहुंच पाएगा । अमन हो पाएगा । हम सत्य की खोज के लिए निकल पड़े हैं । हमें सत्य को खोजते जाना है । बहुत सारे सत्यों को खोजना है। विधायक चिन्तन भक्त ने कहा- 'भगवन् ! दूसरे लोग उपकार करने वाले का ध्यान नहीं रखते जितना कि आप अपने अपकार करने वाले का रखते है । उपकारी का Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 ध्यान रखना स्वाभाविक है । आप अपकारी पर जितना ध्यान देते हैं, उतना लोग उपकारी पर भी रहीं रखते।' यह आपकी अलौकिकता है । साम्यवाद के सिद्धान्त का पहले पहल मार्क्स ने प्रतिपादन किया था । वह समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री था । अपने सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए वह भटकता रहा । उसे लोग देश से निकाल देते थे, मकान से निकाल देते थे । ऐसा होता है । जिन्होंने संसार को नया तत्त्व दिया है, उनको उनके ही भक्तों द्वारा अपमान सहना पड़ा है, कभी जहर भी पीना पड़ा है। __ सुकुरात महान साधु व तत्त्ववेत्ता था । आज भी पश्चिमी देशों में वह प्रथम कोटि का तत्त्वज्ञ माना जाता है । उसने वर्तमान रूढ़िगत धारणा के विरूद्ध सत्य की घोषणा की थी, इसलिए उसको जहर का प्याला पीना पड़ा। ईशु को फांसी पर चढ़ना पड़ा, क्योंकि उन्होंने तत्कालीन धर्म के विरूद्ध बातें कहीं थीं । भिक्षु स्वामी को भी बहुत सहना पड़ा था । 'अयोध्या से प्रकाशित एक पत्र में लिखा था । सब धर्माचार्यो ! चेतो। आचार्य तुलसी अणुव्रत के नाम पर सब पर छाए जा रहे हैं । उन्होंने राष्ट्रपति, शिक्षाशास्त्री, मंत्रियों और राजनयिको को अपने चंगुल में फंसा लिया हैं। एक दिन ऐसा आनेवाला है जब सब धर्मो का अस्तित्व मिट जाएगा । और एक ही धर्म रहेगा , वह होगा अणुव्रत।' धीर-पुरुष के सोचने का क्रम है - कभी कोई गाली देता है तो सोचता है, गाली ही दी, पीटा तो नही । कभी पीटने की नौबत बन जाती है, तब सोचता है प्राण तो नहीं लूटे, केवल पीटा ही है। __ प्राण लूटने पर धार्मिक या साधक सोचेगा, प्राण ही लूटा,पर धर्म तो नहीं लूटा । जो धीर पुरुष होता है, वह खैर मना लेता है। यह जो विधायक चिंतन की मनोवृति है, वह साधनाशील या तत्त्ववेत्तओं में प्राप्त होती है। ____7. अनासक्ति की अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2. कायोत्सर्ग 2 मिनट 5 मिनट Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. नीले रंग का श्वास लें । अनुभव करें- श्वास के साथ नीले रंग के परमाणु भीतर प्रवेश कर रहे हैं । 4. विशुध्द - केन्द्र पर नीले रंग का ध्यान करें 5. शांति - केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित कर अनुप्रेक्षा करें 6 अनुचिन्तन करें : 'अनासक्ति का विकास हो रहा हैं । पदार्थ के प्रति मूर्च्छा का भाव क्षीण हो रहा है' इस शब्दावली का नौ बार उच्चारण करें फिर इसका नौ बार मानसिक जप करें । 7. महाप्राण ध्वनि के साथ प्रयोग सम्पन्न करें । स्वाध्याय और मनन - 3 मिनट 3 मिनट मैं पदार्थ की प्रकृति को जानता हूं । वह मेरे लिए उपयोगी है । उससे मुझे सुविधा मिलती है । किन्तु सुख और शांति नहीं । ये मेरे आन्तरिक गुण हैं। मैं संकल्प करता हूं कि मैं पदार्थ के प्रति मूच्छित नहीं बनूंगा । सदा अपने प्रति जागरूक रहूंगा । 10 मिनट 2 मिनट 83 ( अनुप्रेक्षा - अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है ।) भगवान् महावीर ने कहा है- इन्द्रियों के विषय क्षणमात्र सुख देते हैं । उसका परिणाम दुःखकर और लम्बा होता है। एक घटना तत्काल घट जाती है, पर उसका परिणाम दुःखकर और लम्बा होता है। एक घटना तत्काल घट जाती है, पर उसका परिणाम दीर्घकाल तक भोगना पड़ता है। किसी व्यक्ति ने कोई वस्तु खाई । उसका स्वाद जीभ पर आधा या एक मिनट तक रहता है। किसी का स्वाद 4-5 मिनट भी टिक जाता है, परन्तु उसी वस्तु का परिणाम वर्षों तक भोगना पड़ सकता है। परिणाम को जानते हैं, फिर ऐसा क्यों करते हैं ? जानते हुए भी मोहवश ऐसा कर लेते हैं। महाभारत में कहा है धर्म को जानते हुए भी मोहवश ऐसा कर लेते हैं । महाभारत में कहा है-धर्म को जानते हैं, फिर भी उसमें प्रवृति नहीं होती । अधर्म को जानते हैं लेकिन वह छोड़ा नहीं जाता। कथाभट्ट का पुत्र अपने पिता के पास आया। अपनी समस्या सामने रखते हुए बोला - अभी-अभी जजमान के घर भोजन करके आया हूं। गले तक छक गया हूं। पेट पर आफरा आ गया है। पेट तन रहा है। इसी क्षण दूसरे का निमंत्रण और आ गया है। अब क्या करूं ? पिता ने पुत्र को सलाह दी - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 'परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे ! मा प्राणेषु दयां कुरु। परान्नं दुर्लभ लोके, प्राणाः जन्मनि जन्मनि ॥' - मिठाई का निमंत्रण यदि आ गया है तो प्राणों पर दया मत कर। मिठाई दुर्लभ होती है, प्राण तो अगले जन्म में तैयार मिलेंगे। से अधिक खाने के दुष्परिणाम को भोगता हुआ भी व्यक्ति मोहवश मनोज्ञ पदार्थ नहीं छोड़ सकता। लोग विषय-भोग के परिणामों को जानते हुए भी अपनी शक्ति और वीर्य की सुरक्षा नहीं कर पाते। यूनानी दार्शनिक सुकरात से किसी ने पूछा-पुरुष को अपने जीवन में सम्भोग कितनी बार करना चाहिए ? सुकरात ने उत्तर दिया-'जीवन में एक बार। इतना सम्भव न हो तो वर्ष में एक बार। यह भी संभव न हो तो महीने में एक बार। यह भी संभव न हो तो दिन में एक बार। यह भी संभव न हो तो सिर पर कफन रख लो, फिर चाहे जितनी बार करो।' आवश्यकता-पूर्ति की बात सदा रहती है, पर यथार्थ के प्रति गाढ़ आसक्ति नहीं होती। आवश्यकता-पूर्ति एक बात है और आसक्ति दूसरी बात है। अपने जीवन की अनिवार्य आवश्यकता को पूरी करना यह तो अनिवार्यता है, किन्तु पदार्थो के प्रति आसक्त हो जाना अनिवार्यता नहीं है। यह तो स्वयं का ही व्यामोह है। जो शान्ति और संवेग का अनुभव कर चुका है वह कहीं आसक्त नहीं होगा। वह मार्ग में कभी आसक्त नहीं होगा। वह मंजिल तक पहुंचेगा किंतु पथ में कहीं आसक्त नहीं होगा। वह मानेगा कि मार्ग मात्र चलने के लिए है। उसमें आसक्त होने जैसी बात नहीं है। आसक्ति : अनासक्ति परमार्हत कुमारपाल की सभा में हेमचन्द्र थे। अन्य विद्वान भी थे। स्थूलभद्र का प्रसंग चल पड़ा। आचार्य हेमचन्द्र ने स्थूलभद्र को अनासक्त योगी बताया। वे बारह वर्ष तक कोशा वेश्या के घर पर रहे। षड्रस का भोजन किया, फिर भी निर्लिप्त रहे। दूसरे विद्वानों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा 'विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनाः, तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः। शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवास्तेषामिन्द्रियग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत् सागरम् ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 विश्वामित्र, पराशर आदि ऋषि हवा, पत्ते और पानी खाते थे। वे भी स्त्री के सुललित मुख को देखकर भ्रष्ट हो गये। जो आदमी घी सहित आहार करे, दूधदही खाये और इन्द्रियों का निग्रह भी रखे, कितना बड़ा आश्चर्य है। यदि ऐसा होता है तो मान लेना चाहिए कि विन्ध्य पर्वत सागर में तैर रहा है।' पत्ते-पानी खाने वाले विश्वामित्र और पराशर मोह में फंस गये और वेश्या के घर रहने वाले ब्रह्मचारी रहे, यह बात समझ में नहीं आती। एक बार सन्नाटा-सा छा गया। आचार्य हेमचन्द्र ने स्थिति को पढ़ा तो लगा वातावरण हाथ से जा रहा है। तब वे बोले 'सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी, संवतसरेण रतिमेति किलैकवारम् / पारापत :खर शिलाक णभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः।' -सिंह मांस खाता है, फिर भी वह वर्ष में एक बार भोग करता है। कबूतर दाने चुगता है और कंकर चुगता है फिर भी प्रतिदिन भोग करता रहता है। इसका हेतु क्या है ? भोजन ही इसका हेतु हो नहीं सकता। आचार्य के यह कहते ही सारा वातावरण बदल गया। सब कहने लगेआचार्य ने ठीक कहा है। मूल स्रोत मन की आसक्ति है। आसक्ति और अनासक्ति के आधार पर ही परिणति होती है। अनासक्ति-योग दुःख की घटनाएं घटती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। भूकम्प आता. है, तूफान आता है, समुद्री बवंडर आता है-इन्हें कोई रोक नहीं सकता। उल्कापात होता है, उसे कोई रोक नहीं सकता। बीमारियां और प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएं घटित होती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। किन्तु मनुष्य एक काम कर सकता है। वह इन अवश्यम्भावी प्रकोपों से होने वाले दु:खद संवेदनों से अपने आपको बचा सकता है। ये घटनाएं मन और मस्तिष्क को बोझिल बना देती हैं और जीतेजी मरने की स्थिति में ला देती हैं। इनसे बचा जा सकता है। घटना घटित होगी, परन्तु व्यक्ति इनके साथ नहीं जुड़ेगा। वह जुड़ेगा तो इनता ही कि घटना घटी है Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 और उसका ज्ञान है इससे अधिक घटना के साथ कोई सम्पर्क नहीं होगा। घटना चेतन मन तक पहुंचेगी। वह अवचेतन मन को स्पर्श भी नहीं कर पाएगी। चेतन मन पर घटना का प्रतिबिम्ब पड़ेगा, अवचेतन मन पर नहीं / वहां उसकी प्रतिक्रिया भी नहीं होगी। समाधि का सूत्र है-'मैं दुःख भोगने के लिए नहीं जन्मा हूं।' यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इससे दु:ख के संवेदन समाप्त हो जाते हैं। सम्बन्धों, सम्पकों और पदार्थो से होने वाले सारे दुःख अपने आप मिट जाते हैं। यही है अनासक्ति-योग। अनासक्ति का अर्थ है-पदार्थ के साथ जुड़ी हुई चेतना का छूट जाना, उसके घनत्व का तनूकरण हो जाना, पदार्थ के साथ चेतना का सम्पर्क कम हो जाना। जब यह होता है तब समूचे जीवन में चेतना व्याप्त हो जाती है और आसक्ति की छाया दूर हो जाती है। कैसे देखें? कैसे देखें ? -यह बहुत ही महत्त्व का प्रश्न है। देखना जितना महत्त्वपूर्ण है, उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है- कैसे देखें ? इसका सीधा उत्तर होगा कि आंखों से देखें। यह तो ठीक है। आंखों से देखना है, किन्तु केवल आंखों से देखना ही पर्याप्त नहीं होगा। आंखों से देखने से पहले, जो कुछ अन्विार्य शर्ते हैं देखने की, उन्हें समझना होगा। पहली शर्त है कि अनासक्त भाव से दखें, तटस्थ भाव से देखें, राग-द्वेष-रहित चेतना से देखें। यदि आसक्ति है तो ठीक दिखाई नहीं देगा। आंख देखेगी पर यथार्थ नहीं दिखेगा, कुछ और ही नजर आएगा। एक रसिक आदमी ने स्त्री का गोल चेहरा देखा। उसे वह चांद-सा प्रतीत हुआ। भूखे आदमी ने स्त्री का गोल चेहरा देखा। उसे वह रोटी-सा प्रतीत हुआ। एक के साथ कामासक्ति जुड़ी है, एक के साथ पदार्थासक्ति जुड़ी हुई है। अब स्त्री का मुंह चांद कैसे हो सकता है ? वह रोटी कैसे हो सकता है ? इन आंखों से देखते हैं, पर जो है वह दिखाई नहीं देता। उसके साथ जो हमारी आसक्ति जुड़ी होती है, वह दिखाई देने लग जाती है। बहुत बार असुन्दर भी सुन्दर दिखाई देता है और सुन्दर भी असुन्दर दिखाई देता है। जिसके साथ आसक्ति जुड़ी होती है वह असुन्दर भी सुन्दर प्रतीत होता है। जिसके साथ घृणा जुड़ी हुई है, तिरस्कार का भाव जुड़ा हुआ है, वह सुन्दर भी असुन्दर दिखाई देगा। आंखों बेचारी यथार्थ को कहां देख पाती हैं। आंखों पर आवरण पड़ा है। आसक्ति का, राग-द्वेष का, प्रियता-अप्रियता का। जब तक यह आवरण दूर नहीं होता, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 आसक्ति नहीं मिटती, राग-द्वेष नहीं मिटता, प्रियता और अप्रियता का भाव नष्ट नहीं होता, तब तक आंखें यथार्थ को नहीं देख पातीं / जो है उसे उसी में देख नहीं पातीं / आदमी अच्छा है, वह हमें बुरा दिखाई देता है, हम उसे बुरा मान लेते हैं। क्योंकि अच्छा मानने और बुरा मानने के साथ दूसरी भवना काम कर रही है। इसलिए अनासक्त भाव से देखें, तटस्थ भाव से देखें, केवल यथार्थ दीखेगा। जो घटित हो रहा है, उसे ही देखें। किसी चिन्तन या भावना या संवेदन को साथ न जोडें। अनासक्त भाव से देखना, राग-द्वेष रहित चेतना से देखना, तटस्थ भाव से देखना, जो जैसा है उसे वैसा ही देखना, यह है हमारा देखने का प्रकार। अनासक्ति एक महान् प्रयोग है। गीता का नवनीत है-अनासक्ति-योग। क्या उसका स्वाध्याय या विवेचन करने वाला कर्म के क्षेत्र में अनासक्त बन जाता है ? प्रतिदिन पारायण करने वालों में भी अनासक्ति का अवतरण दिखाई नहीं देता। इसका हेतु है प्रयोग का अभाव। - योगीराज कृष्ण ने कहा-मैं उदासीन की भांति आसीन हूं। कर्मो में अनासक्त हूं। इसलिए वे कर्म मुझे बांध नहीं पाते। "न च मां तानि कर्माणि, निबध्नन्ति धनंजय! उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु // " प्रयोग के बिना कोई मनुष्य उदासीन नहीं हो सकता। सामान्यतः हर मनुष्य प्रिय और अप्रिय संवेदना में जोता है। इनसे ऊपर उठना साधना के बिना संभव नहीं। गीता में उदासीन या तटस्थ का अर्थ है आत्मवान्। आत्मवान् ही अनासक्त हो सकता है। उसे कर्म नहीं बांध पाते। "योगसन्यस्तकर्माणि, ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्। आतमवन्तं न कर्माणि, निबध्नन्ति धनंजय ! // " . आत्मवान होने का प्रयोग है-वैभाविक क्रिया के अकर्तृत्व का अनुभव। देखना, सुनना, छूना, सूंघना, श्वास लेना-ये सब इन्द्रिय कार्य हैं। इन्द्रियां अपनेअपने विषय में प्रवृत्त हो रही हैं। संवेदन मेरा मौलिक स्वभाव नहीं। इस प्रकार अपने ज्ञात-दृष्टा स्वरूप की अनुभूति करने वाला आत्मवान् हो जाता है। यह सब अभ्यास पर निर्भर है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________