________________ 85 विश्वामित्र, पराशर आदि ऋषि हवा, पत्ते और पानी खाते थे। वे भी स्त्री के सुललित मुख को देखकर भ्रष्ट हो गये। जो आदमी घी सहित आहार करे, दूधदही खाये और इन्द्रियों का निग्रह भी रखे, कितना बड़ा आश्चर्य है। यदि ऐसा होता है तो मान लेना चाहिए कि विन्ध्य पर्वत सागर में तैर रहा है।' पत्ते-पानी खाने वाले विश्वामित्र और पराशर मोह में फंस गये और वेश्या के घर रहने वाले ब्रह्मचारी रहे, यह बात समझ में नहीं आती। एक बार सन्नाटा-सा छा गया। आचार्य हेमचन्द्र ने स्थिति को पढ़ा तो लगा वातावरण हाथ से जा रहा है। तब वे बोले 'सिंहो बली द्विरदशूकरमांसभोजी, संवतसरेण रतिमेति किलैकवारम् / पारापत :खर शिलाक णभोजनोऽपि कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः।' -सिंह मांस खाता है, फिर भी वह वर्ष में एक बार भोग करता है। कबूतर दाने चुगता है और कंकर चुगता है फिर भी प्रतिदिन भोग करता रहता है। इसका हेतु क्या है ? भोजन ही इसका हेतु हो नहीं सकता। आचार्य के यह कहते ही सारा वातावरण बदल गया। सब कहने लगेआचार्य ने ठीक कहा है। मूल स्रोत मन की आसक्ति है। आसक्ति और अनासक्ति के आधार पर ही परिणति होती है। अनासक्ति-योग दुःख की घटनाएं घटती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। भूकम्प आता. है, तूफान आता है, समुद्री बवंडर आता है-इन्हें कोई रोक नहीं सकता। उल्कापात होता है, उसे कोई रोक नहीं सकता। बीमारियां और प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएं घटित होती हैं, उन्हें कोई रोक नहीं सकता। किन्तु मनुष्य एक काम कर सकता है। वह इन अवश्यम्भावी प्रकोपों से होने वाले दु:खद संवेदनों से अपने आपको बचा सकता है। ये घटनाएं मन और मस्तिष्क को बोझिल बना देती हैं और जीतेजी मरने की स्थिति में ला देती हैं। इनसे बचा जा सकता है। घटना घटित होगी, परन्तु व्यक्ति इनके साथ नहीं जुड़ेगा। वह जुड़ेगा तो इनता ही कि घटना घटी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org