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________________ 84 'परान्नं प्राप्य दुर्बुद्धे ! मा प्राणेषु दयां कुरु। परान्नं दुर्लभ लोके, प्राणाः जन्मनि जन्मनि ॥' - मिठाई का निमंत्रण यदि आ गया है तो प्राणों पर दया मत कर। मिठाई दुर्लभ होती है, प्राण तो अगले जन्म में तैयार मिलेंगे। से अधिक खाने के दुष्परिणाम को भोगता हुआ भी व्यक्ति मोहवश मनोज्ञ पदार्थ नहीं छोड़ सकता। लोग विषय-भोग के परिणामों को जानते हुए भी अपनी शक्ति और वीर्य की सुरक्षा नहीं कर पाते। यूनानी दार्शनिक सुकरात से किसी ने पूछा-पुरुष को अपने जीवन में सम्भोग कितनी बार करना चाहिए ? सुकरात ने उत्तर दिया-'जीवन में एक बार। इतना सम्भव न हो तो वर्ष में एक बार। यह भी संभव न हो तो महीने में एक बार। यह भी संभव न हो तो दिन में एक बार। यह भी संभव न हो तो सिर पर कफन रख लो, फिर चाहे जितनी बार करो।' आवश्यकता-पूर्ति की बात सदा रहती है, पर यथार्थ के प्रति गाढ़ आसक्ति नहीं होती। आवश्यकता-पूर्ति एक बात है और आसक्ति दूसरी बात है। अपने जीवन की अनिवार्य आवश्यकता को पूरी करना यह तो अनिवार्यता है, किन्तु पदार्थो के प्रति आसक्त हो जाना अनिवार्यता नहीं है। यह तो स्वयं का ही व्यामोह है। जो शान्ति और संवेग का अनुभव कर चुका है वह कहीं आसक्त नहीं होगा। वह मार्ग में कभी आसक्त नहीं होगा। वह मंजिल तक पहुंचेगा किंतु पथ में कहीं आसक्त नहीं होगा। वह मानेगा कि मार्ग मात्र चलने के लिए है। उसमें आसक्त होने जैसी बात नहीं है। आसक्ति : अनासक्ति परमार्हत कुमारपाल की सभा में हेमचन्द्र थे। अन्य विद्वान भी थे। स्थूलभद्र का प्रसंग चल पड़ा। आचार्य हेमचन्द्र ने स्थूलभद्र को अनासक्त योगी बताया। वे बारह वर्ष तक कोशा वेश्या के घर पर रहे। षड्रस का भोजन किया, फिर भी निर्लिप्त रहे। दूसरे विद्वानों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा 'विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनाः, तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टैव मोहं गताः। शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवास्तेषामिन्द्रियग्रहो यदि भवेद् विन्ध्यस्तरेत् सागरम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
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