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________________ 74 जीवन विज्ञान-जैन विद्या के अनगिनत नियम हैं। हम बहुत थोड़े नियमों को जानते हैं और जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, जानने की सीमा भी आगे बढ़ती जाती है। हम जीवन के नियमों को जान सकें, उनका उपयोग कर सकें और सफलता की दिशा में जीवन को आगे बढ़ा सकें-यह है जीवन-विज्ञान का उद्देश्य । जीवन-विज्ञान का अर्थ है-जीवन के नियमों की खोज। उन नियमों की खोज जिनके द्वारा दृष्टिकोण का परिष्कार किया जा सकता है, व्यवहार और आचरण का रूपान्तरण किया जा सकता है। जीवन के तीन मुख्य पक्ष हैं-ज्ञानात्मक पक्ष, भावनात्मक पक्ष और क्रियात्मक पक्ष। 'हम जानते हैं, यह हमारा ज्ञानात्मक पक्ष है। हम भावना से जुड़े हुए हैं', यह हमारा भावात्मक पक्ष है। हम आचरण करते हैं, यह हमारा क्रियात्मक पक्ष है। दर्शन वही है जो जीया जा सके ... हमारा दृष्टिकोण सत्यग्राही होना चाहिए। इसी विचार से जैन आचार्यों ने नयवाद का विकास किया। कहीं भी आग्रह नहीं। नयवाद के दो आधार बनते हैं-सापेक्षता. और समन्वय। व्यक्ति और समाज हमारे सामने हैं। कुछ लोग एकान्ततः व्यक्तिवादी वृत्ति के होते हैं। वे सारा भार व्यक्ति पर डाल देते हैं। कुछ लोग समाज का आग्रह रखते हैं। राजनीतिक प्रणालियों में, समाजवादी और साम्यवादी प्रणाली में केवल समाज पर सारा भार डाल दिया जाता है। इधर व्यक्ति का विकास सब कुछ है तो उधर समाज का विकास ही सब कुछ है। किन्तु व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का तब तक सम्यक् निर्धारण नहीं किया जा सकता जब तक कि हमारा दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं होता। व्यक्ति-निरपेक्ष समाज का और समाज-निरपेक्ष व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता। समाज-सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति-सापेक्ष समाज का ही मूल्य हो सकता है और तभी सम्यक् विकास की प्रकिया को आगे बढ़ाया जा सकता है। सत्यग्राही दृष्टिकोण का एक सूत्र है-सापेक्षता। यह सापेक्षता प्रातिभज्ञान और तार्किकज्ञान में भी विकसित होती है। केवल तार्किकज्ञान नहीं, केवल अन्तर्दृष्टि का ज्ञान नहीं, केवल अध्यात्म नहीं और कोरा व्यवहार नहीं । कोरा व्यवहार होता है तो स्थूलता आ जाती है। इतनी स्थूलता कि सत्य कहीं छूट जाता है। कोरा निश्चय होता है तो अध्यात्म में कोई शक्ति नहीं आती। दोनों जरूरी होते हैं। यानी सम्प्रदाय-शून्य अध्यात्म होता है तो वह कुछ व्यक्तियों के लिए काम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
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