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20 समय
बीस-पच्चीस बार ऐसी क्रिया करने के पश्चात् एक बार दीर्घ पूरक करें, रेचक कर पुन: वैसी ही सूक्ष्म भस्त्रिका की जाती है। इस क्रम को धीरे-धीरे अपनी क्षमतानुसार बढ़ाया जाता है।
लाभ
नाड़ी-शुद्धि, संतुलन, सक्रियता और तेजस्विता उत्पन्न होती है। ऊष्मा और प्राण-शक्ति बढ़ती है। इससे रोग क्षीण होते हैं ।
जीवन विज्ञान - जैन विद्या
2. केवल कुंभक प्राणायाम
सहज प्राणायाम में पूरक और रेचक क्रिया के समय अकस्मात् बीच में ही रुकें। उस समय श्वास- उच्छ्वास जहां हो वहीं ठहरें, पूरक और रेचक की क्रिया आगे न करें। इससे मन की स्थिरता एवं शक्ति का विकास होता है।
प्राणायाम की समस्त प्रक्रिया को योग्य शिक्षक के निर्देशन में करने से उसके लाभकारी परिणाम शीघ्र प्राप्त होते हैं।
3. कपालभाति प्राणायाम
कपालभति घेरण्ड संहिता में तीन प्रकार की बताई है:
1. वातक्रम कपालभाति ।
2. व्युतक्रम कपालभाति ।
3. शीतक्रम कपालभाति ।
वातक्रम : इडा / बाएं से वायु भरकर पिंगला / दाएं से बाहर निकालें, फिर दाहिने स्वर से पूरक कर बाएं से रेचन करें। इन दोनों क्रियाओं के करते समय शीघ्रता न करें। यह वातक्रम कपालभाति है ।
व्युतक्रमः श्वास की जगह पानी को दोनों नथूनों से खींचकर मुख से निकालने को व्युतक्रम कपालभाति कहा है।
शीतक्रम : मुख से शीतकार करते हुए वायु को ग्रहण करें। दोनों नथूनों से निकाल दें। यह शीतक्रम कपालभाति है। वायु के स्थान पर पानी का उपयोग किया जा सकता है।
जल नैति के प्रयोग के पश्चात् श्वास को धक्के से रेचन कर अंदर ठहरे हुए जल को बाहर निकाला जाता है। इसे भी कपालभाति कहा गया है।
लाभ
कफ दोष-निवृत्ति तथा कांति एवं मुखमण्डल की आभा का विकास।
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