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________________ 52 जीवन विज्ञान-जैन विद्या ___ महावीर ने कहा- 'सहो, सहो। सदा सहन करते रहो।' यह बात तभी समझ में आ सकती है, जब सहने के साथ-साथ इसका भी अभ्यास करें कि हम विशिष्ट स्थान पर चेतना को कैसे केन्द्रित और नियोजित कर सकते हैं ? जिस रोग को हम समस्या मानते हैं, वह हमारे लिए एक प्रयोग-भूमि बन जाता है। वह हमारे लिए एक प्रयोगशाला का काम करने लगता है। इस आध्यात्मिक प्रयोगशाला में हम जान सकते हैं कि रोग किसके हैं ? रोग किसे बाधा पहुंचा रहे हैं ? मैं कौन हूं? इन्हें अलग-अलग समझने का मौका मिलता है। यह रहा रोग और यह रहा मैं। अन्यथा हम एक ही मान लेते हैं कि, 'मैं रोगी हूं।' यह मानते रहेंगे तब तक रोग सताएगा। जब हम यह मान लेते हैं कि 'मेरा रोग नहीं,' 'मैं रोगी हूं' तो हम रोग से अभिन्न हो गये। यदि 'मेरा रोग' यह मानते तो भी कुछ दूरी प्रतीत होती, किन्तु 'मैं रोगी' इसमें कोई दूरी नहीं, दोनों एक हो गए। इस अवस्था में रोग सताएगा ही। जब हमने रोग के बीच इतनी दूरी कर दी कि मै केवल द्रष्टा हूं, ज्ञाता हूं, जानता हूं, देखता हूं कि यह रोग रहा। तो जानने-देखने वाला रोग से अलग हो गया। इस स्थिति में रोग स्वयं एक प्रयोगस्थल बन जाता है और उसमें से समाधान निकल आता है। आत्मा को अरुज कहा गया है। अरुज का अर्थ है-रोग-रहित। आत्मा के कभी रोग नहीं होता। चेतना कभी रुग्ण नहीं होती। आत्मा रोगग्रस्थ कभी नहीं होती। रोगग्रस्त होता है शरीर । यह भेद जब आत्मगत हो जाता है, यह दूरी जब स्थापित हो जाती है, तब समस्या का समाधान हो जाता है। भेद-विज्ञान जिस साधक में स्फोट होता है वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है और उस भूमिका पर पहुंचकर वह कहता है कि 'मैं शरीर नहीं हूं।' 'मैं पुद्गल नहीं हूं।' 'मैं मूर्त नहीं हूं।' यह अध्यात्म विकास की पहली भूमिका है। जब यह अवस्था घटित होती है तब चिंतन की धारा बदल जाती है। चिंतन की जो मूढ अवस्था थी, उसमें परिवर्तन आ जाता है। जब साधक कहता है- 'मैं शरीर नहीं हूं,' तब इससे चिंतन का स्रोत निकलता है जिसे हम 'अन्यत्व अनुप्रेक्षा' कहते हैं। जब यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि मैं शरीर से भिन्न हूं, मूर्छा पर इतना तीव्र प्रहार होता है कि मोह का किला ढह जाता है, क्योंकि मोह का उद्गम-स्थल है शरीर। आदमी शरीर को ही सब कुछ मानकर कार्य करता है। जब यह मोह टूट जाता है, यह भ्रांति टूट जाती है, अनादि-कालीन भ्रम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
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