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________________ 51 अनुप्रेक्षा मकान में मैं अभी रह रहा हूं। यह कपड़ा मेरे पहनने के काम आ रहा है। गांवों में जब लोगों से पूछते हैं-क्या यह मकान तुम्हारा है ? घर का मालिक कहता है'मकान किसका ! भगवान का, महाराज! मैं तो यहां रहता हूं।' इस कथन के पीछे एक सिद्धांत है। सचाई यह है कि मकान किसका हो सकता है ? किसी का नहीं हो सकता। आज तक भी यह सम्पदा और भूमि शाश्वत कन्याएं हैं, कुंआरी कन्याएं हैं। आज तक इनका पाणि-ग्रहण नहीं हुआ, विवाह नहीं हुआ। सम्पत्ति शाश्वत कुंआरी है। अनन्त काल बीत जाने पर भी वैसी-की-वैसी रहेगी। पदार्थ का भोग करना और पदार्थ के साथ ममत्व को जोड़ना-ये दोनों भिन्न बातें हैं। ये दोनों एक नहीं हैं। भौतिक व्यक्तित्व में पदार्थ का उपभोग होता है, ममत्व जुड़ता है। आध्यात्मिक व्यक्तित्व में पदार्थ का उपभोग अवश्य होता है, पर ममत्व नहीं जुड़ता। उसमें 'पदार्थ' और 'मेरा'-ये दोनों अलग रहते हैं, जुड़ते नहीं। स्वतंत्रता की प्रक्रिया पहली परतंत्रता का एक पहलू है रासायनिक प्रतिबद्धता। जीवन का दूसरा पहलू है-स्वतन्त्रता। जब साधना के द्वारा चेतना बदलती है तब रसायनों का प्रभाव समाप्त हो जाता है। जहर का कार्य है मार डालना। क्या जहर मीरां को मार सका था? मीरां ने जहर का प्याला पीया। कोई असर नहीं हुआ। भयंकर सर्प चंडकौशिक क्या महावीर को मार सका था? उसकी एक फुफकार से आदमी राख का ढेर हो जाता है। उसने महावीर को तीन बार डसा, पर व्यर्थ । महावीर पर कोई असर नहीं हुआ। जब शरीर की पकड़ होती है तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड़ जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। शरीर की पकड़ छुटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी, तो शरीर का भान नहीं रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभावित रहेगा। जब प्राण और चेतना-दोनों भीतर चले जाते हैं, उनका समाहार हो जाता है, तब शरीर पड़ा है, उसे सांप काटे, कोई भी काटे, कुछ असर नहीं होगा चेतना पर। यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपांतरित होती है प्रेक्षा के द्वारा। वह परिष्कृत और परिमार्जित होती है ज्ञाता-द्रष्टा के भाव के द्वारा। उस स्थिति में दोनों प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता। यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा में। यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
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