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अनुप्रेक्षा
55 सोचता है, उसने मेरे प्रति ऐसा व्यहवहार किया है तो मै उसके प्रति ऐसा ही व्यवहार करूं। यह क्रियात्मक व्यवहार नहीं, प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है। ऐसे व्यक्ति में कर्त्तव्य की स्वतंत्र प्रेरणा नहीं होती और कर्त्तव्य का स्वतंत्र मूल्य भी नहीं होता। उसका कर्त्तव्य स्व-संकल्प से प्रेरित नहीं होता, वह होता है दूसरों से प्रेरित। वर्तमान के आचार-शास्त्रियों और दार्शनिकों ने आचार के मूल्य की मीमांसा में इस प्रश्न पर बहुत चर्चा की है कि हमारे कर्त्तव्य की प्रेरणा और हमारे कर्तव्य का स्वरूप क्या होना चाहिए? प्रसिद्ध दार्शनिक कांट ने कहा-कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य होना चाहिए, न दया के लिए, न अनुकम्पा के लिए और न दूसरों का भला करने के लिए। ये सब नैतिक कर्म के हामी नहीं हैं और उससे सम्बन्ध भी नहीं है। केवल मनुष्य का स्वतंत्र संकल्प उसका स्वलक्ष्य मूल्य है। इसीलिए कर्तव्य के लिए ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य की यह बात बहुत ही मूल्यवान् है। यह क्रियात्मक बात है, प्रतिक्रियात्मक नहीं। कोई व्यक्ति दया का पात्र है, उस पर कोई दया करता है तो यह कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है। यह प्रतिक्रिया है। मैं 'पर' को आत्मा के समान समझता हूं और उसके साथ मैत्री का व्यवहार करता हूं, यह स्वतंत्र कर्तव्य है, स्वतंत्र मूल्य है, क्रियात्मक कार्य है। कर्त्तव्य-बोध
रचनात्मक दृष्टिकोण का दूसरा सूत्र है कर्त्तव्य-बोध । प्रत्येक व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का बोध होना चाहिए। जिस समाज में कर्त्तव्य-बोध नहीं होता, वहां ध्वंस शुरू हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्तव्य होता है, दायित्व होता है। जहां कर्त्तव्य-बोध और दायित्व होता है, वह समाज स्वस्थ होता है। कर्तव्य और दायित्व-बोध
सामाजिक स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होता है कर्त्तव्य-बोध और दायित्व-बोध, कर्त्तव्य की चेतना का जागरण और दायित्व की चेतना का जागरण । आखिर दंड और यंत्रणा से कब तक कार्य चलेगा? क्या पूरे जीवन-काल तक आदमी नियंत्रण से रहेगा? क्या यह भय निरंतर सबके सिर पर सवार ही रहेगा? भयभीत समाज सदा रोग-ग्रस्त रहता है, वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। भय सबसे बड़ी बीमारी है ! भय तब होता है जब दायित्व और कर्त्तव्य की चेतना नहीं जागती। जिस समाज में कर्त्तव्य और दायित्व की चेतना जाग जाती है उसे डरने की जरूरत नहीं होती।
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