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________________ अनुप्रेक्षा होने वाला है ? यह स्थिति व्यक्ति को अपने प्रति संदिग्ध बना देती है। संशय की स्थिति में निराशा और भय की उत्पत्ति अस्वाभाविक नहीं है। कुछ व्यक्तियों में भय तो नहीं होता पर उनके विचार स्थिर नहीं हो पाते। शायद वह ठीक है, वहां अच्छा हो रहा है, इस चिंतन में वे अपने निर्धारित लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं रह पाते। दूर से पर्वत सुहावने लगते हैं-इस जनश्रुति के अनुसार सही पथ पा लेने के बाद भी उनका झुकाव दूसरी और बना रहता है। यह भटकने की स्थिति है। किसी भी प्रलोभन में आकर इधर-उधर भटकने वाला साधक कभी सही रास्ता पा ही नहीं सकता है। स्वावलम्बन और पुरुषार्थ ये दोनों अस्तित्व के चक्षु हैं । ये वे चक्षु हैं, जो भीतर और बाहर-दोनों और समानरूप से देखते हैं। मनुष्य अस्तित्व की श्रृंखला की एक कड़ी है। पुरुषार्थ उसकी प्रकृति है। जिसका अस्तित्व है, वह कोई भी वस्तु क्रियाशून्य नहीं हो सकती। इस सत्य को तर्कशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-अस्तित्व का लक्षण है क्रियाकारित्व। जिसमें क्रियाकारित्व नहीं होता, वह आकाश-कुसुम की भांति असत् होता है। मनुष्य सत् है, इसलिए पुरुषार्थ उसके पैर और स्वावलम्बन उसकी गति है। स्वावलंबन और पुरुषार्थ . हमारे वैयक्तिक जीवन की दूसरी फलश्रुति है-स्वावलंबन । स्वावलंबन कहां है ? इतना परावलम्बन होता है कि आदमी दूसरे पर निर्भर होता चला जाता है। आपने अमरबेल का नाम सुना होगा। नाम तो बहुत सुन्दर, पर बड़ी खतरानाक बेल होती है। जिससे पौधे पर चढ़ जाती है उसका तो अंत ही समझिये। अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती। दूसरे का आलंबन ढूंढती है, दूसरों के सहारे खड़ी होती है। बड़ी अजीब प्रकृति है। जिसके सहारे खड़ी होती है उसे खाना शुरू कर देती है। कहा जाता है कि अमरबेल एक किलोमीटर तक अपना पैर फैला देती है। वह दूसरों पर फैलती है और दूसरों को समाप्त करती चली जाती है। परावलंबन का सबसे अच्छा उदाहरण है-अमरबेल। आदमी भी कम परावलंबी नहीं है, अमरबेल से कम खतरनाक नहीं है। वह भी दूसरों के कंधों पर अपना वैभव, अपना ऐश्वर्य चलाता है और उनको चट करता चला जाता है। आज व्यक्ति इतना परावलंबी हो गया कि उसने स्वावलंबन को बिलकुल भुला डाला है। लगता तो यह है, यदि दूसरा काम करने वाला मिलता हो तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
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