SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 87 आसक्ति नहीं मिटती, राग-द्वेष नहीं मिटता, प्रियता और अप्रियता का भाव नष्ट नहीं होता, तब तक आंखें यथार्थ को नहीं देख पातीं / जो है उसे उसी में देख नहीं पातीं / आदमी अच्छा है, वह हमें बुरा दिखाई देता है, हम उसे बुरा मान लेते हैं। क्योंकि अच्छा मानने और बुरा मानने के साथ दूसरी भवना काम कर रही है। इसलिए अनासक्त भाव से देखें, तटस्थ भाव से देखें, केवल यथार्थ दीखेगा। जो घटित हो रहा है, उसे ही देखें। किसी चिन्तन या भावना या संवेदन को साथ न जोडें। अनासक्त भाव से देखना, राग-द्वेष रहित चेतना से देखना, तटस्थ भाव से देखना, जो जैसा है उसे वैसा ही देखना, यह है हमारा देखने का प्रकार। अनासक्ति एक महान् प्रयोग है। गीता का नवनीत है-अनासक्ति-योग। क्या उसका स्वाध्याय या विवेचन करने वाला कर्म के क्षेत्र में अनासक्त बन जाता है ? प्रतिदिन पारायण करने वालों में भी अनासक्ति का अवतरण दिखाई नहीं देता। इसका हेतु है प्रयोग का अभाव। - योगीराज कृष्ण ने कहा-मैं उदासीन की भांति आसीन हूं। कर्मो में अनासक्त हूं। इसलिए वे कर्म मुझे बांध नहीं पाते। "न च मां तानि कर्माणि, निबध्नन्ति धनंजय! उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु // " प्रयोग के बिना कोई मनुष्य उदासीन नहीं हो सकता। सामान्यतः हर मनुष्य प्रिय और अप्रिय संवेदना में जोता है। इनसे ऊपर उठना साधना के बिना संभव नहीं। गीता में उदासीन या तटस्थ का अर्थ है आत्मवान्। आत्मवान् ही अनासक्त हो सकता है। उसे कर्म नहीं बांध पाते। "योगसन्यस्तकर्माणि, ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्। आतमवन्तं न कर्माणि, निबध्नन्ति धनंजय ! // " . आत्मवान होने का प्रयोग है-वैभाविक क्रिया के अकर्तृत्व का अनुभव। देखना, सुनना, छूना, सूंघना, श्वास लेना-ये सब इन्द्रिय कार्य हैं। इन्द्रियां अपनेअपने विषय में प्रवृत्त हो रही हैं। संवेदन मेरा मौलिक स्वभाव नहीं। इस प्रकार अपने ज्ञात-दृष्टा स्वरूप की अनुभूति करने वाला आत्मवान् हो जाता है। यह सब अभ्यास पर निर्भर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy