SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन विज्ञान-जैन विद्या क्लोम ग्रन्थि- यह छः इंच लम्बी और चपटी मिर्च के आकार की ग्रन्थि है। इसका स्थान उदर गुहा में होता है। क्लोम ग्रन्थि का स्राव पित्त-नलिका में मिलकर स्निग्ध भोजन को पचाता है। पवनमुक्तासन से यह ग्रन्थि अपना कार्य सुचारू रूप से करने लगती है। एड्रिनल और गोनाड्स वायु की विकृति से उत्तेजित होते हैं। वायु की शुद्धि से इनकी उत्तेजना में अन्तर आता है। ब्रह्मचर्य की आराधना में सहयोग मिलता है। सीने के मध्य थाइमस ग्रन्थि होती है, घुटने के दबाव से इसके स्रावों का विकास होता है जिससे श्वेत कण अधिक मात्रा में बनने लगते हैं जिससे जीवनी शक्ति बढ़ती है। वे कीटाणुओं से सुरक्षा करते हैं। घुटनों पर नाक लगाने से थायराइड ग्रन्थि पर प्रभाव पड़ता है, जिससे उसके स्रावों पर नियन्त्रण होता है। ये स्राव शरीर के विकास और स्थूलता के ह्रास में सहयोगी बनते हैं। अनुभव के प्रकाश में - अपान वायु के विकार से उदासी, निराशा, जी मिचलाना, हिचकी, वायु गोला आदि ऐसी विकृतियां होती हैं जिससे व्यक्ति पीड़ित और परेशान होता है। उदर में कई बार भयंकर पीड़ा बढ़ती है। पवनमुक्तासन के प्रयोग से वायु दोष के शमन में सहयोग मिलता है। नियमित अभ्यास से पेट के विभिन्न विकार शामिल होते हैं। कोष्ठबद्धता दूर होती है। पेट में वायु के कारण आफरा आ जाता है। पवनमुक्तासन के तीन-चार आवृत्ति से वह काफी हल्का हो जाता है। वायुविजय के लिए यह आसन बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। पवनमुक्तासन का यह विशिष्ट प्रयोग साइटिका नर्व के दोषों को दूर करता है। घुटने के दर्द में भी फायदेमंद रहा है। आसन के पश्चात् पैर को सीधा रखकर भूमि से ऊपर रखकर कुछ समय तक रुकते हैं। इससे नाभि पुनः अपने स्थान पर लौट जाती है। संपूर्ण शरीर में शक्ति और प्राण का संचार होने लगता है। इसके अन्त में स्वल्प समय कायोत्सर्ग करने से अधिक लाभ व विश्राम मिलता है। लाभ- पवनमुक्तासन बहु आयामी आसन है। इससे शरीर के विभिन्न अंग अत्यधिक प्रभावित होते हैं। इससे संपूर्ण शरीर के एक-एक जोड़ में स्नायुतंत्र में निहित दोषों का निरसन होता है। वायु-विकृति को दूर करने की दृष्टि से इसका उपयोग महत्तवपूर्ण है। पाचनतंत्र को वह सुव्यवस्थित बनाता है। अपान की वृद्धि करता है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003162
Book TitleJivan Vigyana aur Jain Vidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy