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को सम्यग् समझे बिना विद्यार्थी अभ्यास नहीं कर सकता। इसलिए यह अपेक्षित है कि प्रस्तुत पुस्तक में प्रदत्त विधि को विद्यार्थी पहले भलीभांति समझ ले। तत्पश्चात् इसका नियमित अभ्यास करे। अभ्यास की नियमितता ही प्रयोग को अभीप्सित परिणाम तक पहुंचा सकती है। यह भी स्पष्ट है कि निरन्तर अभ्यास किए बिना न विद्यार्थी अपने निजी जीवन में लाभान्वित हो सकेगा, और न ही परीक्षा में अच्छा परिणाम प्राप्त कर सकेगा। साथ ही यह अपेक्षा भी है कि विद्यार्थी इतना अच्छा अभ्यास कर ले कि वह दूसरों को भी प्रयोग कराने की क्षमता अर्जित कर ले।
प्राध्यापक/प्रशिक्षक इस बात पर अवश्य ध्यान देंगे कि विद्यार्थी कक्षा में या घर पर सभी प्रयोगों का अभ्यास क्रमश: बढ़ाता रहे। साथ ही पाठ्यक्रम में प्रदत्त मूल्यांकनबिन्दुओं की दृष्टि से प्रयोगार्थ विद्यार्थी को तैयार करना होगा। इस अपेक्षा से निम्नलिखित बातों पर अवश्य ध्यान दें
१. पूर्व पाठयक्रम का पुन:-पुन: अभ्यास चालू रखवाएं।
२. प्रत्येक अभ्यास विद्यार्थी स्वयं कर सके और दूसरों को करवा सके, इस प्रकार का क्रम सतत चले।
३. विधि की शब्दावली को यथारूप कण्ठस्थ करवाएं। ४. निर्देश-शैली प्रभावशाली हो, आवाज स्पष्ट एवं उचारण शुद्ध हो। ५. प्रेक्टिकल-नोटबुक को नियमित तैयार करवाएं।
प्रस्तुत-प्रस्तक में समाकलन के लिए हमारे प्रेरणा-स्रोत रहे हैं-अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी। इसके साथ प्रेक्षा-आविष्कर्ता युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ का अमूल्य मार्गदर्शन भी मिला, जिससे समाकलन सुचारू रूप से सम्पन्न हुआ।
आचार्य श्री और युवाचार्यश्री के चरणों में अपनी अन्तश्चेतना की समग्र श्रद्धाएं समर्पित कर रहे हैं।
समाकलन में प्रयुक्त पुस्तकों एवं सामग्री के लिए हम युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं मुनिश्री किशनलालजी के कृतज्ञ हैं।
आशा है, जीवन-विज्ञान के छात्र-वर्ग इस प्रस्तक का लाभ उठाकर अपने व्यक्तित्व सर्वागीण विकास के लिए उसका प्रयोग करेंगे। ३१ अक्टूबर, १९९२
मुनि महेन्द्र कुमार जैन विश्व भारती,
पारसमल जैन लाडनूं
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