Book Title: Jivan Vigyana aur Jain Vidya
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ अनुप्रेक्षा 53 की दीवार खंड-खंड हो जाती है, तब यह स्पष्ट बोध होता है कि मैं शरीर नहीं हूं । इस बोध के साथ-साथ सारी विचारधाराएं बदल जाती हैं, 'यह शरीर मेरा नहीं है, मैं शरीर नहीं हूं, ' - अहंकार की ग्रंथि खुल जाती है । यह शरीर मेरा नहीं हैकार की गाढ़ ग्रंथि खुल जाती है। उसे रास्ता मिल जाता है । रास्ता उसी को मिलता है जिसकी ममकार की ग्रंथि खुल जाती है । ममत्व की ग्रंथि का आदि - बिन्दु है शरीर । जब यह गांठ खुल जाती है तब मार्ग स्पष्ट दीखने लग जाता है । वह जान लेता है कि उसे क्या करना है ? कहां जाना है ? जब अहंकार और ममकार- दोनों की गाठें खुल गयीं - 'मैं शरीर नहीं हूं, 'शरीर मेरा नहीं हैं'- तब नये चैतन्य का उदय होता है । उस सूर्य का उदय होता है जो कभी पूर्वांचल में आया ही नहीं था । कभी उगा ही नहीं था। जब ऐसे सूर्य का उदय होता है तब जीवन की सारी दिशा बदल जाती है। आप सोच सकते हैं कि क्या इस भूमिका में जीने वाला कभी व्यवहार की भूमिका में जी सकेगा ? मैं मानता हूं कि वह अच्छी तरह से जी सकेगा। किन्तु यह संभव कैसे होगा ? जिसने यह मान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है क्या वह शरीर के प्रति उदासीन नहीं हो जाएगा ? क्या वह शरीर के प्रति विरक्त नहीं हो जाएगा ? क्या यह शरीर के प्रति उपेक्षा नहीं है ? क्या ऐसा व्यक्ति जीवन को चला पायेगा ? जो व्यक्ति शरीर के प्रति उपेक्षा बरतेगा, क्या वह देश के प्रति अनुरक्त रह पायेगा ? वह अपने दायित्वों और कर्त्तव्यों को कैसे निभा पायेगा ? ये प्रश्न सहज हैं, किंतु इन प्रश्नों में कोई व्यावहारिक कठिनाई नहीं है। जिसने यह स्पष्ट रूप से जान लिया कि शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूं, उसने शरीर के साथ सम्बन्ध की एक योजना कर ली। उस सम्बन्ध को अनेक रूपकों में अभिव्यक्ति दी गई है । महावीर ने कहा- शरीर नौका है और आत्मा नाविक है । उपनिषद्कारों ने कहा- शरीर रथ है और आत्मा रथिक है । शरीर घोड़ा है और आत्मा घुड़सवार है। क्या समुद्र में तैरने वाला नाविक कभी अपनी नौका की उपेक्षा कर सकता है ? ऐसा वह कभी नहीं कर सकता । 3. कर्त्तव्यनिष्ठा की अनुप्रेक्षा प्रयोग-विधि 1. महाप्राण ध्वनि 2. लयबद्ध दीर्घश्वास 3. भस्त्रिका 4. कायोत्सर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only 2 मिनट 5 मिनट 5 मिनट 5 मिनट www.jainelibrary.org

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