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जीवन विज्ञान-जैन विद्या 6. महाप्राण ध्वनि के साथ ध्यान सम्पन्न करें। 2 मिनट स्वाध्याय और मनन
(अनुप्रेक्षा-अभ्यास के बाद स्वाध्याय और मनन आवश्यक है।)
ध्यान एक परम पुरुषार्थ है, यह दृष्टि जब तक स्पष्ट नहीं हो जाती है, व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता। दृष्टि की स्पष्टता किसी भी कार्य की सफलता का वह बिंदु है, जिसे नजर अंदाज कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता। ध्यान से शक्ति का अर्जन होता है और उस अर्जित शक्ति से व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
कुछ लोग ध्यान को निष्क्रियता का प्रतीक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ध्यान का प्रयोग वे व्यक्ति करते हैं, जिसके पास कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण काम नहीं होता। पर मैं इस मान्यता से सहमत नहीं हूं। मेरे अभिमत से यह चिंतन उन लोगों का हो सकता है जो ध्यान की विधि से परिचित नहीं हैं और उस प्रक्रिया से गुजरे नहीं है। जो ध्यान अकर्मण्यता को निष्पन्न करता है, मैं उसे ध्यान मानने के लिए भी तैयार नहीं हूं। ध्यान की शक्ति इतनी विस्फोटक होती है कि वह मानवचेतना में छिपी हुई अनेक विशिष्ट शक्तियों का जागरण कर मनुष्य को कहां पहुंचा देती है।
मैं चाहता हूं कि हमारे साधक निराश या भय से मुक्त हों और प्रलोभन के प्रवाह में न बहें। भय और प्रलोभन से चित्त विक्षिप्त होता है। इसलिए सही गुरु के सही पथ-दर्शन में सही गुर सीखकर उसका अभ्यास करना चाहिए। इस क्रम से अपना ही नहीं समूची मानवता का भला हो सकता है।
पुरुषार्थ हर व्यक्ति के हाथ की बात है, पर ध्यान का पुरुषार्थ कोई-कोई ही कर सकता है। इसीलिए हर व्यक्ति को इसके लिए प्रयत्नशील रहने की अपेक्षा है। ध्यान का पुरुषार्थ करने वाले व्यक्तियों को दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है। पहली बात यह है कि ध्यान के साधक में किसी प्रकार का भय न हो और दूसरी बात है-उसमें किसी प्रकार का प्रलोभन न हो।
भय की उत्पत्ति आशंका से होती है। साधक के मन में यह आशंका हो कि मैं जो साधना कर रहा हूं, उससे मेरा अहित तो नहीं हो जाएगा। इतने वर्ष हो गये साधना करते-करते, अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। पता नहीं क्या
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