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अनुप्रेक्षा सक्रिय होते हैं। रक्त भी बहुत तेज बहता है। दूसरी ओर दुनिया का वातावरण उसके प्रतिकूल भी हो सकता है और होता भी है। उन दोनों में सामंजस्य स्थापित करना, दोनों के साथ संगति जूटा लेना बहुत कठिन बात है और यही संघर्ष आज सारी दुनिया में चल रहा है। आज के साहित्य का एक शब्द है- 'भोगा हुआ यथार्थ ।' हमें केवल कल्पना के जीवन में नहीं जीना है युवक में बहुत कल्पनाएं उभरती हैं। उसका घरेलू पक्ष उसके अभिभावकों के हाथ में होता है। समाज का क्षेत्र कुछ पुराने कार्यकर्ताओं के हाथ में होता है तो युवक के लिए कल्पना करने का बहुत अवकाश रहता है। किन्तु आप निश्चित मानिए कि कल्पना तब तक अर्थवान् नहीं होती जब तक की 'भोगे हुए यथार्थ' पर हम नहीं चल पाते। हमारा जीवन यथार्थ का होना चाहिए। हमारे पैरों के तले क्या है, इस बात का भी हमें बोध होना चाहिए। हमारी कल्पनाएं तब तक अर्थवान् नहीं होती, मूल्यवान् नहीं होतीं, जब तक की हमें यथार्थ का बोध नहीं होता, अपने ही पैरों के नीचे भी भूमि का बोध नहीं होता।
यथार्थ पर चले बिना कोई भी आदमी आगे नहीं बढ़ सकता। उसके लिए गड्ढे बहुत हैं। दुनिया में इतने गड्ढे हैं कि पग-पग पर उसमें गिर पड़ने की संभावना बनी रहती है। गड्ढों को पाट कर वही आगे बढ़ सकता है जो यथार्थ की आंख से अपने पैरों के नीचे धरातल को देखकर चलता है। आज की सामाजिक परिस्थिति, आज की राजनैतिक परिस्थिति और आज की धार्मिक परिस्थिति, तीनों परिस्थितियां हमारे सामने हैं। दुनिया का जो वातावरण होता है, वह उसके संदर्भ में जीता है और उससे लेता है। कोई भी उससे बच नहीं सकता। जो व्यक्ति व्यवहार में चलता है, वह स्वयं अपनी क्रिया से प्रतिक्रिया को प्राप्त होता है और दूसरे को प्रतिक्रिया देता है। वह प्रभावित होता है और प्रभावित करता है। अलग कोई नहीं रह सकता। हम प्रभावों को ग्रहण करते हैं और आप भी प्रभावों को ग्रहण करते हैं, किन्तु आने वाले प्रभावों से अपने आपको कितना बचा सकते हैं और कितना लाभ उठा सकते हैं, यह है यथार्थ की भूमिका। यदि हम इस भूमिका पर वास्तव में चलें तो जो प्रभाव आ रहे हैं उनसे लाभ उठा सकते हैं। लाभ उठाना बहुत जरूरी है, क्योंकि मैं मानता हूं कि वर्तमान में बहुत सारी चीजें ऐसी अच्छी हैं जो पुराने काल में नहीं थीं। उन-उन चीजों से हमें लाभ भी उठाना चाहिए। कुछ चीजें व्यर्थ होती हैं, उनसे अपने आप को बचाना चाहिए। दोनों बातें बराबर होनी चाहिए।
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