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मानसिक जागरूकता (अप्रमाद)
प्रेक्षा से अप्रमाद (जागरूक भाव) आता है। जैसे-जैसे अप्रमाद बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रेक्षा की सघनता बढ़ती है। हमारी सफलता एकाग्रता पर निर्भर है। अप्रमाद या जागरूक भाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध उपयोग केवल जानना और देखना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है किन्तु इनका महत्त्व तभी सिद्ध हो सकता है, जब ये लम्बे समय तक निरन्तर चलें । पचास मिनट तक एक आलम्बन पर चित्त की प्रगाढ़ स्थिरता का अभ्यास होना चाहिए। यह सफलता का बहुत बड़ा रहस्य है ।
जीवन विज्ञान-जैन विद्या
ध्यान का स्वरूप है अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या सतत् जागरूकता । होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र होता है। एकाग्रचित्त वाला व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है । जो प्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति अपने चैतन्य के प्रति जागृत नहीं होता, वह सब ओर से भय का अनुभव करता है। जो अप्रमत्त होता है, अपने अस्तित्व के प्रति अपने चैतन्य के प्रति जागृत होता है, वह कहीं भी भय का अनुभव नहीं करता, सर्वथा अभय होता है ।
अप्रमत्त व्यक्ति को कार्य के बाद उसकी स्मृति नहीं सताती। बातचीत के काल में बातचीत करता है। उसके बाद बातचीत का एक शब्द भी याद नहीं आता । यह सबसे बड़ी साधना है। आदमी जितना काम करता है उससे अधिक वह स्मृति में उलझा रहता है। भोजन करते समय भी अनेक बातें याद आती हैं। जिस समय जो काम किया जाता है, उस सयम उसी में रहने वाला साधक होता है | शरीर, मन और वाणी का योग या सामंजस्य विरल व्यक्तियों में ही मिलता है । जहां शरीर और मन का सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता वहां विक्षेप, चंचलता और तनाव होते हैं ।
साधना का अर्थ है - कर्म, मन और शरीर की एक दिशा । इसे एकाग्रता या ध्यान कुछ भी कह दीजिए। एकाग्रता में विचारों को रोकना नहीं होता अपितु अप्रयत्न का प्रयत्न होता है । प्रयत्न से मन और अधिक चंचल होता है। एकाग्रता तब होती है, जब मन निर्मल होता है। बिना एकाग्रता के निर्मलता नहीं होती और बिना निर्मलता के एकाग्रता नहीं होती। तब प्रश्न आता है, क्या करना चाहिए ? अपने आपको देखना चाहिए। अपना दर्शन करो और अपने आपको समझो। अधिकांश लोग अपने आपको नहीं पहचानते। जो अपने श्वास को समझ लेता है, वह बहुत बड़ा ज्ञानी होता है। वह अक्षर- ज्ञानी नहीं होता, वह आत्म-ज्ञानी होता
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