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जम्धु चरित्र ।
इक श्रायो ताहि । लक्कड़ लेके कोयला करें, अग्नि तपावें बहुबिध परें । ए ॥ स्तू गरमी की साग प्यास, सूखे कएल नीर बिन तास । निज नांडे का पानी पिया, ते बरतनको खादी किया ॥ १३ प्यास बहुत लागी फिर तास, पानी रश्चक नहि है पास । सोधे बनमे पानी नही, लागे प्य स मिले नहि कहीं ॥ ए४ ॥ बहुत प्याससुं निजा लियो, दक्षत नीचे जा सूतियो। सूता सुपना देखे तिहां, बहुत नीद लीन्हा है जिहां ॥ ए५ ।। कूवा तलाव नदीको नीर, तेमे पीधा श्राप शरीर । जब जागा फिर प्यासा रहा, उठके हूंढ़े पानी कहां ए६ ॥ तव देखा इक गढ़ है तिहां, चहला बहुत जराहै जिहां । सीक घासका लियो उठाय, चहला मे तव दियो मुबाय ॥ एy ॥ मुखमे श्राप निचोड़े घास, नहि गइ फिर वाकी प्यास । तैसा मै न करूं इह काम, जोग नागिहों मै शिवधाम ॥ ए७ ॥ तुमरी जोग न मनमे आन, जैसे चहला बून्द समान । सो मुझको नहि थावे दाय, थोड़ा सुख मुख बहुत कहाय ॥ एए ॥ ऐसा बचन सुनी जव कान, जी त्रिय चुप रहे निदान । जम्बू स्वामी
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