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मम्बु चरित्र ।
खर कुंजारका, नार दियो सब गेर । जागा नगरी बीचमे, कोश्न था नेर ॥५४॥ प्रजापती तिहां दौड़ता, श्रा करता सोर। पकड़ो ५ कहि तवें लोक न थावे और ॥ ५५ ॥ (चौपाइ ) ब्राह्मण को सुत मूरख जोय, गर्दन पूंठ गहीहै सोय । खरतो मुह पर मारे लात, तोहि नबोड़े मूरख जात ५६ ॥ लोक कहे मूरख तें बड़ा, एती लात ज मुह पर पड़ा । तव उद् घोला सुनहो लोक, तुम मूरख जो बोलो फोक ॥ ५७ ॥ मै पन्डित हों वैसा कही गही वस्तु किम बोइं सही। मेरी माय शिखाया जवें, गही वस्तु किम बोर्नु तवें ॥ १७॥ तैसें स्वामी तुमने किया, सीख सुधर्मा खामी दिया सोश बचन जु दिढ़ता किया । ती नहि बोड़ो जो ब्रत लिया ॥ ५ ॥ जैसा जोग बोड़के पीब, कहां मुकत चाहो हो जीव । ब्राह्मण सुत सम हांसी होय, एती बात कहा मै सोय ॥ ६॥ ॥ (दोहा तद जम्बू स्वामी बदे, सुनो त्रिया मुक पास । हूं उस ब्राह्मणकी तरें, नहीं तुहारो दास ॥ ६१ ॥ त्रिपा कहे ब्राह्मण किसो, ते मुऊ कहिये स्वाम जम्बू खामी तद कहें, कुशल गाम श्कनाम ॥६५
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