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जस्तु चरित्र ।
कुपन्य चाले नदी, बहुत कुरा चलाया जहीं । दिन जगत छोड़ाके कान, चोर चलावत अपने धान ॥ ४५ ॥ घोड़ा रहा धनीके पास, बहु सुख पाया करें बिलास | चोरोंके बस पड़ान इंस, तैसें इम हैं उत्तम वंश ॥ ४५ ॥ अश्व समान मोक्ष मग ठोड़, जगकु राइसों निज मन मोड़ । मोह चोर बस नदि रह्यो, सत्य शील समता गुण चह्या ४७ ॥ तुम मुकको बहु बातें कही, पन्थ कुपन्थ चलावो सही । मै मूरख नहि सुनियो नार, पट्टों न जग के जोग विकार ॥ ४८ ॥ ( दोदा ) जम्बूकी बी त्रिया, कनक सिरी तस नाम । तुमतो पकड़ी टेक जो, नदी छोड़ते खाम ॥ ४९ ॥ जैसें ब्राह्मण पुत्र इक, तैसें तुम निरधार । तद जम्बू स्वामी कहें, ते जपो मुख नार ॥ २० ॥ कामिन कहे स्वामी सुनो, एक गामके माह । परित ब्राह्मण एक था, तिसका सुत है तां ॥ ५१ ॥ निमुरख समजे नही, पिता कियो तब काल । तद माता सुतको कहे, सीख सुनो मुऊ वाल ॥ ५२ ॥ कोइ वस्तु जे पकड़िये, बोड़ी जे नहि तेद । वचन मान लियो जवें, माता कहती जेद ॥ ५३ ॥ इक दिन
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