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श्री रत्नत्रय व्रत कथा
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श्री रत्नत्रय व्रत कथा
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दाता सम्यक् रत्नत्रय, गुरुशास्त्र जिनराय । कर प्रणाम वरणूं कथा, रत्नत्रय सुखदाय ॥१ ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत, जुन बिन मुक्ति न होय । तासों प्रथम हि रत्नन्नय, कथा सुनों भवितोय ॥२ ॥
जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें एक कक्ष नामका एक देश और वीतशोकपूर नामका एक नगर है। यहां एक अत्यन्त एवान वैश्रवण नामका राजा रहता था. जो कि पुत्रवत् अपनी प्रजाका
पालन करता था।
एक दिन वह (वैश्रवण) राजा वसंत ऋतुमें क्रीडाके निमित्त उद्यानमें यत्र तत्र सानंद विचर रहा था कि इतने ही में उसकी दृष्टि एक शिलापर विराजमान ध्यानस्थ श्री मुनिराज पर पडी । सो तुरंत ही हर्षित होकर वह राजा श्री मुनिराजके समीप आया और विनययुक्त नमस्कार करके बैठ गया। श्री मुनिराज जब ध्यान कर चुके तो उन्होंने धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया और इस प्रकार धर्मोपदेश देने लगे
यह जीव अनादिकालसे मोहकर्मवश मिथ्या श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करता हुआ पुनः पुनः कर्मबन्ध करता और संसारमें जन्म मरणादि अनेक प्रकार दुःखोंको भोगता है इसलिये जब तक इस रत्नत्रय (जो कि आत्माका निज स्वभाव है ) की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक यह (जीव ) दुःखोंसे छुटकर निराकुलता स्वरूप सच्चे सुख व शांतिकी प्राप्ति नहीं हो सकती, जो कि वास्तवमें इस जीवका हितकारी