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श्री घोडशकारण व्रत कथा [२७ ******************************** अपराधकी क्षमा मांगी। श्री मुनिराजने उसको धर्मलाभ कहकर उपदेश दिया। पश्चात् वह या एल नरबार रे दर यह काल भैरवी नामकी कन्या हुई हैं। इसने जो पूर्वजन्ममें मुनिकी निन्दा व उपसर्ग करके जो घोर पाप किया है उसीके फलसे यह ऐसी कुरूपा हुई है, क्योंकि पूर्व संचित कर्मोका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता हैं। इसलिये अब इसे समभावोंसे भोगना ही कर्तव्य है और आगेको ऐसे कर्म न बन्धे ऐसा समीचीन उपाय करना योग्य है। अब पुनः यह महाशर्मा बोलाहे प्रभो! आप ही कृपाकर कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे यह कन्या अब इस दुःखसे छूटकर सम्यक् सुखोंको प्राप्त होये तब श्री मुनिराज बोले - वत्स! सुनो -
संसारमें मनुष्योंके लिये कोई भी कार्य असाध्य नहीं है, सो भला यह कितनासा दुःख है? जिनधर्मके सेवनसे तो अनादिकालसे लगे हुए जन्म मरणादि दु:ख भी छूटकर सच्चे मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है, और दुःखोंसे छूटनेकी तो बात ही क्या है? वे तो सहजहीमें छूट जाते हैं। इसलिये यदि यह कन्या षोडशकारण भावना भाये, और यत पाले, तो अल्पकाल में ही स्त्रीलिंग छेदकर मोक्ष-सुखको पायेगी। तब वह महाशर्मा बोला हे स्वामी! इस प्रतकी कौन कौन भावनायें है और विद्या क्या? सो कृपाकर कहिये। तब मुनिराजने इन जिज्ञासुओंको निम्न प्रकार षोडशकारण व्रतका स्वरूप और विधि बताई। वे कहने लगे
(१) संसारमें जीयका शत्रु मिथ्यास्प और मित्र सम्यक्त्व है। इसलिये मनुष्यका कर्तव्य है कि सबसे प्रथम मिथ्यात्व (अताच श्रद्धान या विपरीत श्रद्धान) को वमन (त्याग) करके सम्यक्त्वरूपी अमृतका पान करें। सत्यार्थ (जिन) देव, सच्चे