Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 127
________________ श्री जैनबत-कथासंग्रह ******************************** आगमन सुनकर और भी बहुत लोग वन्दनार्थ वनमें आये थे और सब स्तुति वन्दना करके यथा स्थान बैठे। श्री मुनिराज उनको धर्मवृद्धि कहकर अहिंसादि धर्मका उपदेश करने लगे। ___जब उपदेश हो चूका तब साहूकारकी स्त्री गुणसुन्दरी बोली स्वामी! मुझे कोई प्रत दीजिये। तब मुनिराजने उसे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतका उपदेश दिया और सम्यक्त्यका स्वरूप समझाया, और पीछे कहा-बेटी! तू आदित्ययारका व्रत कर, 'सुन, इस व्रतकी विधि इस प्रकार है कि आषाढ मासमें प्रथम पक्षमें प्रथम रविवारसे लेकर नय रविवारों तक यह व्रत करना चाहिये। प्रत्येक रविशारके टिंग जनम कारन गा रीना नमक (मीठा) के अलोना भोजन एकबार (एकासना) करना पार्श्वनाथ भगयानको पूजा अभिषेक करना| घरके सब आरम्भका त्यागकर विषय और कषाय भावोंको दूर करना, ब्रह्मचर्यसे रहना, रात्रि जागरण भजनादि करना और 'ॐ हीं अहं पाईनाथाय नमः' इस मंत्रकी १०८ बार जाप करना। इस प्रकार नव वर्ष तक यह यत करके पश्चात् उद्यापन करना। प्रथम वर्ष नव उपवास करना, दूसरे वर्ष नमक बिना भात और पानी पीना, तीसरे वर्ष नमक बिना दाल भात खाना, चौथे वर्ष बिना नमककी खिचडी खाना, पांचवें वर्ष बिना नमककी रोटी खाना, छडे वर्ष बिना नमक दही भात खाना, सातवें तथा आठवे वर्ष नमक विना मूंगकी दाल और रोटी खाना और नववें वर्ष एकबारका परोसा हुआ (एकटाना) नमक बिना भोजन करना, फिर दूसरीवार नहीं लेना और थालीमें जूठन भी नहीं छोडना।

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