Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 142
________________ श्री कवलचांद्रायण ( कालहार) व्रत कथा [१३७ ******************************** जिनदत्त सेठ यह चरित्र देखकर विरक्त हो गया और तप कर आयुके अंतमें समाधिमरण करके स्वर्गमें देव हुआ। वास्तवमें लोग दूरी वस्तु है । और त. क्या पशन कायाका अव्यक्त लोभका उदय भी श्रेणि नहीं चढ़ने देता है और उपशम हुआ उपशांत मोही मुनिको ११ वें गुणस्थानसे प्रथममें गिरा देता है। ___ कविने कहा भी है 'लोभ पापका याप बखाना' इसी लोभसे सत्यघोष भी मरकर राजाके भण्डारका सांप हुआ था। और भी जो इस प्रकारका पाप करता है उसे परभवमें तो दुःख होता ही है, परंतु इस भयमें भी राजा य पंचोंसे दण्डित होता है, दुःख पाता है व अपनी प्रतीति खो बैठता है, इसलिए परधनका लोभ त्यागनेसे भी नि:संकिता और सुख होता है। पिण्याकगन्ध नरक हि गयो, परधन लोभ पसाय। स्वर्ग गये जिनदत्तजी, परधन लोभ नशाय।। ३० श्री कवलचांद्रायण (कवलहार) व्रत कथा) पूर्वमें भूमण्डलमें चन्द्रसा कमलाय नामक प्रजापालक राजा था। जिसकी पतियता रानीका नाम विनयश्री था, जो प्रजापालन न्यायनीतिसे करते थे। इतने में एक दिन राजा रानी वन उपवनमें क्रीडा करते थे तो वहां उन्होंने एक स्थान पर श्री शुभचंद्र नामक मुनि महाराजको देखा तो दोनोंने यहीं जाकर मुनिश्रीको वंदना की और उनके चरणमें विनयसे बैठे। फिर राजाने मुनिश्वरसे पूछा-महाराज! श्री कपलचांद्रायण नामक प्रत कैसे करना चाहिये, उसकी पिधि क्या है तथा पूर्व में किसने

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