Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 155
________________ १५०] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** इधर भगवान आदिनाथ आहार हेतु इर्या समितिपूर्वक प्रमण करते हुए उस नगरके राजमहलके सामने पधारे तब सिद्धार्थ नामका कल्पवृक्षा ही मानो अपने सामने आया है-ऐसा सबको भास हुआ। राजा श्रेयांसको आदिनाथ भगयानका श्रीमुख देखते ही उसी मण अपने पूर्वभवमें श्रीमती बज जंघकी अवस्था में एक सरोवरके किनारे दो चारण मुनियोंको आहार दिया था-उसका जातिस्मरण हो गया। अतः आहार दानकी समस्त विधि जानकर श्री आदिनाथ भगवानको तीन प्रदक्षिणा देकर पडगाहन किया व भोजनगृहमें ले गये। ___ 'प्रथम दान विधि कर्ता' ऐसा यह दाता श्रेयांस राजा और उनकी धर्मपत्नी सुमतीदेवी व ज्येष्ठ पंधु सोम ग़ाजा अपनी पानी पीती . सहित आदि सबोंने मिलकर श्री आदिनाथ भगवानको सुवर्ण कलशों द्वारा तीन खण्डी (बंगाली तोल) इक्षुरस नवधा भक्तिपूर्वक आहारमें दिया। तीन खण्डोंमेंसे एक खण्डी इसुरस तो अंजूलीमें होकर निकल गया और दो खण्डीरस पेटमें गया। इस प्रकार भगवान आदिनाथकी आहार चर्या निरन्तराय सम्पन्न हुई। इस कारण उसी वक्त स्वर्गक देवाने अत्यंत हर्षित होकर पंचाचर्य (रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि गन्धोदक दृष्टि देय दुंदुभि, बाजोंका बजना व जय जयकार शब्दका होना) वृष्टि हुई और सबोंने मिलकर अत्यंत पसत्रता मनाई। आहार चर्या करके वापिस जाते हुए भगय मादिनाथने सब दाताओंको 'अक्षयदानस्तु' अर्थात् दान इसी प्रक. कायम रहें। इस आशयका आशिर्वाद दिया, यह आहार वैशाख सुदी तीजको सम्पन्न हुआ था। जय आदिनाथ निरन्तराय आहार करके वापिस विहार कर गये। उसी समयसे अक्षयतीज नामका पुण्य दिवस प्रारंभ हुआ। (इसीको आखा तीज भी कहते हैं) यह दिन हिंदु धर्ममें भी बहुत पवित्र माना जाता हैं। इस रोज शादी विवाह प्रचुर मात्रामें होते हैं।

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