Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 156
________________ श्री अक्षयतृतीया व्रत कथा ******************************** श्रेयांस राजाने आदि तीर्थकरको आहार देकर दानकी उन्नति की दानको प्रारंभ किया। इस प्रकार दानकी जनति च महिमा समझकर भरतचक्रवर्ती. अकम्पन आदि राजपुत्र व सपरिवारसहित श्रेयांस व उनके सह राजाओंका आदरके साथ सत्कार किया। प्रसन्नचित्त हो अपने नगरको पापिस आये। उत सर्य वृत्तांत (कथा) सुप्रभनामके चारण मुनिके मुखसे पृथ्यीदेवीने एकाग्र चित्तसे अयण किया। वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने मुनिको नमस्कार किया। तथा उक्त अक्षयतीज व्रतको ग्रहण करके सर्द जन परिजन सहित अपने नगरको वापिस आये। पृथ्वीदेवीने (समयानुसार) उस व्रतकी विधि अनुसार सम्पन्न किया। पश्चात् यथाशक्य उधापन किया। चारों प्रकारके दान घारों संघको बांटे। मंदिरों में मूर्तियां विराजमान की। चमर, छत्र आदि बहुतसे वस्त्राभूषण मंदिरजीको भेट चढाये। ___ उक्त प्रतके प्रभावसे उसने ३२ पुत्र और ३२ कन्याओंका जन्म दिया। साथ ही बहुतसा वैभव और धन कंचन प्राप्त कराया आदि ऐवर्यसे समृद्ध होकर बहुत काल तक अपने पति सहित राज्यका भोग किया और अनंत ऐश्वर्यको प्राप्त किया। पक्षात् यह दम्पत्ति वैराग्य प्रवर होकर 'जिनदीक्षा धारण करके 'तपा ' करने लगे। और तपोषलसे मोक्ष सुखको प्राप्त किया। अस्तु! हे भर्थिकजनों! तुम भी इस प्रकार अक्षय तृतीया प्रतको विधिपूर्वक पालन कर यथाशक्ति उद्यापन कर अक्षय सुख प्राप्त करो। यह प्रत सब सुखॉको देने याला है य क्रमशः मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है। इस व्रतकी विधि इस प्रकार है यह ग्रत वैशाख सुदी तीजसे प्रारंभ होता है। और वैशाख सुदी सप्तमी तक (५ दिन पर्यंत) किया जाता है। पांचों दिन शुद्धतापूर्वक एकाशन करे या २ उपवास या ३ एकाशन करे।

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