Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 147
________________ १४२ ] ****** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ********** *** कुम्भश्रीने पुनः दूसरीवार इस ज्येष्ठ जिनवर व्रतका पालन किया और दूसरे स्वर्गमें देव हुई। यह देव क्रमश: भुक्ति प्राप्त करेगा। भव्य जीवोंको यह यह विधि सहित पालन करना चाहिए। गहेली नगर में मुझ शुभ मतिके द्वारा वीर सं. १७५८ ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी गुरुवारको यह कथा रची गई है। जो नरनारी इस व्रतका पालन करता है उसे देवगति मिलती है और वह इन्द्र होता है, रोग, शोक, संकट आदि सब दुःख दूर होते हैं और उसके लिये जिनेन्द्र भगवान सहायी बनते हैं। जो नरनारी एकचित्त होकर इस व्रतका पालन करते हैं उन्हें मनवांछित सुख-सम्पत्ति प्राप्त होती है। WW w ३२ श्री णमोकार पैंतिसी व्रत यह व्रत १ || वर्ष अर्थात् एक वर्ष और छ: मासमें समाप्त होता है। और इस डेढ़ वर्ष अवधिके भीतर सिर्फ पैंतीस दिन ही व्रतके होते हैं। आषाढ सुदी ७ से यह व्रत शुरू होता है जिसकी विधि इस प्रकार है १- प्रथम आषाढ सुदी ७ का उपवास करे। फिर श्रावणकी रासमी २. भादोंकी सप्तमी २ और आश्विनकी सप्तमी २ इस प्रकार सात उपवास करे। पश्चात् कार्तिक कृष्ण पंचमीको पौष कृष्ण पंचमी अर्थात् पांच पंचमियोंके पांच उपवास करे। फिर पौष कृष्ण चतुर्दशीसे चैत्र कृष्ण चतुर्दशी तक सात चतुर्दशीयों के सात उपवास करे। फिर चैत्र शुक्ल चतुर्दशीसे आषाढ कृष्ण चतुर्दशी तक सात चतुर्दशीयोंके सात उपवास करे। फिर श्रावण कृष्ण नवमीसे अगहन कृष्ण नवमी तक नवलियोंके नव उपवास करे।

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