Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 136
________________ श्री बारहसौ चौतीस व्रतकी कथा १३१ ******************************** श्रद्धासहित यह प्रत पालेंगे तथा कषायोंको कृश करेंगे तो वे भी उत्तमोत्तम पदको प्राप्त होंगे। पुष्पांजलि व्रत पालकर, प्रभावती गुणमाल। लहो सिद्ध पद अन्तमें, नमो वियोग सम्हाल।। AMM MAM (२७ श्री बारहसौ चौतीस व्रतकी कथा) वन्द्रं आदि जिनेन्द्र यद, मन वच तन सिर नाय। बारहसौ चौतीस व्रत, कथा कहूँ सुखदाय॥ मगध देशमें राजगृही नगरका स्वामी राजा श्रेणिक न्यायपूर्वक राज्य शासन करता था। इसकी परम सुन्दरी और जिनधर्मपरायण श्रीमती चेलना पट्टरानी थी, सो जब विपुलाचल पर महावीर भगयानका समवशरण आया तब राजा प्रजासहित वंदनाको गया। और वंदना स्तुति करके मनुष्योंकी सभामें बैठकर धर्मोपदेश सुनने लगा। __पश्चात् राजाने पूछा-हे प्रभु! षोडशकारण प्रतसे तो तीर्थकर पद मिलता ही है, परंतु क्या अन्य प्रकारसे भी मिल सकता है, सो कृपाकर कहिये। तय गौतमस्वामीने कहा-राजन सुनो! जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें आर्यखण्डमें अवन्ती देश हैं, वहां उज्जयनी नगरी हैं, जहां हेमवर्मा राजा अपनी शिवसुन्दरी रानी सहित राज्य करता था। एक दिन राजा वनक्रीडा करनेको यनमें गया था, और वहां चारण मुनियोंको देखकर नमस्कार किया तथा मनमें समताभाय धरकर विनय सहित पूछने लगा-भगवान! कृपा करके बताइये कि मैं किस प्रकार तीर्थंकर पद प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करूँ? तब श्री गुरुने कहा

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