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माम
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श्री जैनबत-कथासंग्रह ********************************
जय दासी लक्ष्मामती के घर वह विषला सांपका घडा लेकर गई और यथा योग्य सुश्रूषाके वचन कहकर घडा भेट कर दिया, तब लक्ष्मीमती दासीको पारितोषिक देकर विदा किया। और अपने घडेको उघाडकर उसमें से हार निकालकर पहिर लिया। (लक्ष्मीमतीके पुण्यके प्रभायसे सांप का हार हो गया है) और हर्ष सहित जिनालयकी यन्दना निमित्त गई। सो मदनावती रानीने उसे देख लिया और राजासे लक्ष्मीमती जैसा हार मंगा देनेके लिये हठ करने लगी।
इसपर राजाने अर्हदास सेठको युलाकर कहा-है सेठ! जैसा हार तुम्हारी सेठानीका है वैसा ही रानीके लिये बनवा दो, और जो दय्य लगे भण्डारसे ले जाओ। तब अर्हदास श्रेष्ठिने सेठानीसे लेकर वही हार राजाको दिया, सो राजाके हाथ पहुंचते ही हारका पुनः सर्प हो गया।
इस प्रकार यह सांप अर्हदासके हाथमें हार और राजाके हाथमें सांप हो जाता था। यह देखकर राजा और सभाजन सभी आक्षर्ययुक्त हो हारका वृत्तांत पूछने लगे परंतु सेठ कुछ भी कारण न बता सका।
भाग्योदयसे यहां मुनि संघ आया सो राजा और प्रजा सभी यन्दनाको गये। वन्दना कर धर्मोपदेश सुना और अन्तमें राजाने यह हार और सांपवाली आश्चर्यकी बात पूछी तब मुनिराजने कहाहे राजा! इस सेठने पूर्व भवमें निर्दोष सातमका व्रत किया है, उसीके पुण्य फलसे यह सांपका हार बन जाता है।
और तो बात ही क्या है, इस व्रतके फलसे स्वर्ग और अनुक्रमसे मोक्षपद भी प्राप्त होता है, और इस व्रतकी विधि इस प्रकार है सो सुनो