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श्री जैनवत कथासंग्रह
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इसलिये परम पवित्र अहिंसा (दयामई धर्मको धारणकर) जो समस्त जीवोंको सुखदायी है और निर्ग्रन्थ मुनि (जो संसारके विषयभोगोंसे विरक्त ज्ञान, ध्यान, तपमें लवलीन है, किसी प्रकारका परिग्रह आडम्बर नहीं रखते हैं और सबको हितकारी उपदेश देते हैं) को गुरु मानकर उनकी सेवा वैयावृत्त कर, जन्म, मरण, रोग, शोक, भय, परिग्रह, क्षुधा तृषा, उपसर्ग आदि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित, वीतराग देवका आराधन कर, जीवादि तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान करके निजात्म तत्वको पहिचान, यही सम्यग्दर्शन है। ऐसे सम्यग्दर्शन तथा ज्ञानपूर्वक सम्यक् चारित्रको धारण कर, यही मोक्ष (कल्याण) का मार्ग है।
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सातों व्यसनोंका त्याग, अष्ट मूलगुण धारण, पंचाणु व्रत पालन इत्यादि गृहस्थोंका चारित्र है, और सर्व प्रकार आरम्भ परिग्रह रहित द्वादश प्रकारका तप करना, पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति आदिका धारण करना सो, अठ्ठाइस मूलगुणों सहित मुनियोंका धर्म है ( चारित्र है), इस प्रकार धर्मोपदेश सुनकर राजाने पूछा- प्रभो ! मैंने ऐसा कौनसा पुण्य किया है जिसे यह इतनी बडी विभूति मुझे प्राप्त हुई है।
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तब श्री गुरुने कहा, कि इसी अयोध्या नगरीनें कुबेरदत्त नामक वैश्य और उसकी सुन्दरी नामकी पत्नी रहती थी, उसके गर्भसे श्रीवर्मा, जयकीर्ति और जयचन्द ये तीन पुत्र हुए।
सो श्रीवर्माने एक दिन मुनिराजको वंदना करके आठ दिनका नन्दीश्वर व्रत किया, और उसे बहुत कालतक यथाविधि पालन कर आयुके अंतमें सन्यास मरण किया जिससे प्रथम स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ, वहां असंख्यात वर्षोंतक देवोचित सुख भोगकर आयु पूर्णकर चया, सो अयोध्या नगरीमें न्यायी