Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 119
________________ [१४] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ****** ** ** इस प्रकार श्री मुखसे व्रतकी विधि और उत्तम फल सुनकर उन ब्राह्मणने स्त्री सहित यह व्रत लिया। तथा और भी बहुत लोगोंने यह व्रत लिया। पश्चात् नमस्कार करके वह ब्राह्मण अपने ग्राममें आया और भाव सहित १४ वर्ष व्रतको विधियुक्त पालन करके उद्यापन किया। इससे दिनोंदिन उसकी बढती होने लगी। इसके साथ रहनेसे और भी बहुत लोग धर्म- मार्ग में लग गये। क्योंकि लोग जब उसकी इस प्रकार बढ़ती देखकर उससे इसका कारण पूछते तो वह अनन्त व्रत आदि व्रतोंकी महिमा और जिनभाषित धर्मके स्वरूपका कथन कह सुनाता। इससे बहुत लोगोंकी श्रद्धा उस पर हो जाती और ये उसे गुरु मानने लगते । इस प्रकार वह ब्राह्मण भले प्रकार सांसारिक सुखोंको भोगकर अंतमें सन्यास मरण कर स्वर्गमें देव हुआ । उसकी स्त्री भी समाधिसे मरकर उसी स्वर्गमें उसकी देवी हुई। वहां अपनी पूर्व-पर्यायका अवधिसे विचारकर धर्मध्यान सेवन करके यहांसे चये, सो यह ब्राह्मण जीव अनन्तवीर्य नामका राजा हुआ और ब्राह्मणी उसकी पट्टरानी हुई। ये दोनों दीक्षा लेकर अनन्तवीर्य तो इसी भवसे मोक्षको प्राप्त हुए और श्रीमती स्त्रीलिंग छेदकर अच्युत स्वर्गमें देव हुई। वहांसे चयकर मध्यलोक में मनुष्य भव धारण कर संयम ले मोक्ष जावेगी । इस प्रकार एक दरिद्र ब्राह्मणी अनन्त व्रत पालकर सद्गतिको पाकर उत्तमोत्तम गतिको प्राप्त हुई । यदि अन्य भव्य जीव यह व्रत पालेंगे तो भी सद्गति पायेंगे। सोमशर्म सोमा सहित, अनन्त चदश व्रत पाल । लहो स्वर्ग अरू मोक्षपद, ते वन्दूं त्रैकाल ॥

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