Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 120
________________ *** श्री अष्टान्हिका नन्दीश्वर व्रत कथा [ ९९५ ********************** २४ श्री अष्टान्हिका नन्दीश्वर व्रत कथा वन्दों पांचों गुरु, चौकीको जिनराज अष्टाह्निका की कहूं, कथा सबहि सुखकाज ॥ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखण्डमें अयोध्या नामका एक सुन्दर नगर है। वहां हरिषेण नामका चक्रवर्ती राजा अपनी गन्धर्यश्री नामकी पट्टरानी सहित न्यायपूर्वक राज्य करता था एक दिन वसंतऋतुमें राजा नगरजनों तथा अपनी ९६००० रानियों सहित वनक्रीडाके लिए गया । वहां निरापद स्थानमें एक स्फटिक शिलापर अत्यन्त क्षीणशरीरी महातपस्वी परम दिगम्बर अरिंजय और अमितंजय नामके चारण मुनियोंको ध्यानरूढ देखें । सो राजा भक्तिपूर्वक निज वाहनसे उतरकर पट्टरानी आदि समस्तजनों सहित श्री मुनियोंके निकट बैठ गया और सविनय नमस्कार कर धर्मका स्वरूप सुननेकी अभिलाषा प्रगट करता हुआ। मुनिराज जब ध्यान कर चूके तो धर्मवृद्धि दी, और पश्चात् धर्मोपदेश करने लगे। मुनिराज बोले- राजा ! सुनो, संसारमें कितनेक लोग गंगादि नदियों में नहानेको, कोई कन्दमूलादि भक्षणको, कोई पर्वतसे पडनेमें, कोई गयामें श्राद्धादि पिंडदान करनेमें कोई ब्रह्मा, विष्णु शिवादिककी पूजा करनेमें, कालभैरों, भवानी काली आदि देवियोंकी उपासनामें धर्म मानते हैं अथवा नवग्रहादिकोंके जप कराने और मस्तसाँडों सदृश कुतपस्वियों आदिको दान देनेमें कल्याण होना समझते हैं, परंतु यह सब धर्म नहीं है और न इससे आत्महित होता है, किन्तु केवल मिथ्यात्वकी वृद्धि होकर अनन्त संसारका कारण बन्ध ही होता है। P

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