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श्री अष्टान्हिका नन्दीभर व्रत कथा [११७ ******* * ****** *********** और सत्यप्रिय राजा चक्रयाहुकी रानी विमलादेवीके गर्भसे तू हरिषेण नामका पुत्र हुआ है। और तेरे नन्दीर प्रतके प्रभावसे यह नव निधि चौदह रत्न, छयानवें हजार रानी आदि चक्रवर्तीकी विभूति यह छ: खण्डका राज्य प्राप्त हुआ है।
और तेरे दोनों भाई जयकीर्ति और जयचंद भी श्री धर्मगुरुके पाससे श्रावकके बारह प्रतों सहित उक्त नन्दीश्वर ग्रत पालकर आयुके अन्तमें समाधिमरण करके स्वर्गमें महर्द्धिक देव हुए थे सो पहांसे आयकर हस्तिनापुरमें विमल नामा वैश्यकी साध्यी सती लक्ष्मीमतीके गर्भसे अरिजय अमितंजय नामके दोनों पुत्र हुए सो वे दोनों भाई हम ही है।
हमको पिताजीने जैन उपाध्यायके पास चारों अनुयोग आदि संपूर्ण शास्त्र पढाये और अध्ययन कर चुकनेके अनंतर कुमारकाल बीतने पर हम लोगोंके व्याहकी तैयारी करने लगे, परंतु हम लोगोंने ब्याहको बंधन समझकर स्वीकार नहीं किया
और बाह्यम्यन्तर परिग्रह त्याग करके भी गुरुके निकट दीक्षा ग्रहण की, सो तपके प्रभावसे यह चारण ऋद्धि प्राप्त हुई है।
यह सुनकर राजा बोला-हे प्रभु! मुझे भी कोई व्रतका उपदेश करों, तब श्री गुरुने कहा कि तुम नंदीश्वर प्रत पालों और श्री सिद्धचक्रकी पूजा करो। इस प्रतकी विधि इस प्रकार है सो सुनो--
इस जम्बूद्वीपके आसपास लवण समुद्रादि असंख्यात समुद्र और घातिकीखण्डादि असंख्यात द्वीप एक दूसरेको चूडीके आकार घेरे हुए दुने विस्तारको लिये हैं। उन सब द्वीपोंमें जम्बूद्वीप नाभियत् सयके मध्य है। सो जम्बदीपको आदि लेकर, जो घातकीखण्ड पुष्करवर, थारुनीयर, क्षीरयर, घृतवर, इसुयर