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श्री जिनरात्री व्रत कथा
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चयकर तुम हेमध्वज नामका राजा हुआ। यह सुनकर राजाने व्रतकी विधि पूछी।
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तय श्री गुरुने बताया कि फाल्गुन वदी १४ (गुजराती भाघ वदी १४) को उपवास करे, श्री जिनालय में जायें और पंचामृत अभिषेकपूर्वक अष्टद्रव्योंसे भगवानकी त्रिकाल पूजन सामायिक और स्वाध्याय करे | रात्रिको भी धर्मध्यानपूर्वक भजन व आराधना करें।
दूसरे दिन अतिथिको भोजन कराकर आप भोजन करें सुपात्रोंको चार प्रकारका दान देये। इस प्रकार १४ वर्ष यह व्रत करके पश्चात् उद्यापन करें।
अतीत, अनागत और वर्तमान चौवीसीका विधान (पाठ) रचावे, चौदह ग्रंथ (शास्त्र) मंदिरोंमें पधराये तथा अन्य उपकरण सब चौदह चौदह मंदिरों में भेट करें। कमसे कम चौदह श्रावक और चौदह श्राविकाओंको श्रद्धा भक्तिपूर्वक सादर मिष्ठान्नादि भोजन करावे, नवीन वस्त्र पहिरावे, कुमकुमका तिलककर उनका भले प्रकार सम्मान करें। चौदह विजौरा देवे। चतुर्विधि दान शालाएं खोले इत्यादि उत्सव करें और जो शक्ति न होवे तो दूना व्रत करे।
इस प्रकार राजा हेमध्वजने व्रतकी विधि सुनकर भक्तिभावसे व्रत धारण किया और उसे यथाविधि पालन भी किया। फिर अन्त समयमें जिन दीक्षा लेकर बारह प्रकारके तप करते हुए आयु पूर्ण कर आठवें स्वर्गमें देव हुआ ।
वहांसे चयकर अवन्ती देशकी उज्जैन नगरीमें वज्रसेन राजाके सुशीला रानीके हरिषेण नामका पुत्र हुआ । सो योग्य वय होनेपर पंचाणुव्रत पालन करते हुए कितनेक काल तक राज्य किया । पश्चात् दीक्षा ले उग्र तप कर सन्यास पूर्वक प्राण त्याग कर दर्शायें स्वर्ग में देय हुआ ।