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श्री लब्धिविधान प्रत कथा
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(१९X श्री लब्धिविधान व्रत कथा) प्रथम नमू जिन वीर पद, पुनि गुरू गौतम याय। लब्धि विधान कथा कहूँ, शारद होहु सहाय।।
काशी देशमें याराणसी नामकी नगरीका महाप्रतापी विश्वसेन राजा था। उसकी रानीका नाम विशालनयना था. एक दिन राजाने कौतुकपूर्ण हृदयसे नाटकका खेल करवाया। नाटक के पात्रोंने राजाको प्रसन्नतार्थ अनेक प्रकार गीत, नृत्य, काला, निमानिक पूर्वक नाटकका खेल खेलना आरम्भ कर दिया, सो राजा रानी और सब पुरजन अपने योग्य आसनों पर बैठकर सहर्ष अभिनय देखने लगे।
उन नाटकका पात्रोंके विविध भेष और हावभावोंसे सनीका चित्त पंधल हो उठा, और यह चमरी और रंगो नामकी अपनी दो सखियों सहित घरसे निकल पडी। तथा कुसंगमें पड़कर अपना शीलधर्मरूपी भूषण खो बैठी। वह ग्रामोग्राम भ्रमण करती हुई वेश्या कर्म करने लगी।
जीयोंके भाव तथा कर्मोकी गति विचित्र है। देखो रानी, रनवासके सुख छोडकर गली गलीकी कुत्ती हो गई। सत्य है, इन नाटकोंसे कितने घर नहीं उजडे? रानी जैसीको यह दशा हुई तो अन्य जनोंका कहना ही क्या है? ___ राजा भी अपनी प्रियतमाके पियोगजनित दुःखको न सह सकनेके कारण पुत्रको राज्य देकर वनमें चला गया। और इष्टवियोग (आर्तध्यान) से मरकर हाथी हुआ, सो पनमें भटकते भटकते एक समय किसी पुण्य संयोगसे श्री मुनिराजका दर्शन हो गया और धर्मवोध भी मिला, जिसे वह हाथी सम्यक्त्वको प्राप्त