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श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** पांच पांच लाकर जिनालयमें भेंट दे और समादान (दीपी) घण्टा, पानीके लिये घडा, झारी मंदिरमें पधरावे य अष्ट दय्यसे भाव सहित अभिषेकपूर्वक पूजन करे। पांच पायक तथा श्राविकाओंको भोजन करावे तथा दु:खित भूखितको करुणावुद्धिसे आहारादि थारों प्रकारके दान देखें।
चारित्रमतीने नमस्कार कर उक्त प्रत ग्रहण किया। पश्चात् गुरुने कहा-पुत्री! यह व्रत तू अपने पीहर (पितृगृह) में जाकर करना और गन्धोदक अपने पिताके गलेमें लगाना, इससे यह मूर्ज रहित हो जायगा। और प्रावण सुदी ५ के दूसरे दिन श्रायण सुदी ६ को नेमिनाथस्वामीका व्रत है सो उस दिन अर्हन्त भगवानके छः अटक और छ: माला जपना, पूजन अभिषेक करना, हयन करना, और पूजनादिके पश्चात् ककड़ी नारियल शुभ फल प्रत्येक छ: छ: सौभाग्यवती स्त्रियोंको देना।
पश्चात् इसका भी उद्यापन करना अथवा दूना व्रत करना। इस प्रकार दोनों व्रत ग्रहण कर चारित्रमती अपने पितार्क घर गई और यथाविधि प्रत पालन किया तथा अपने पिताको गन्धोदक लगाया जिससे यह मूळ रहित हो स्वस्थ हो गया।
यह सब नगरमें फैल गई और इस प्रकार यह गरुड (नाग) पंचमी प्रतका प्रचार संसारमें हुआ।
कुछ दिन बाद चारित्रमती घर (श्वसुर गृह) जाने लगी परंतु पिताके आग्रहसे और ठहर गई।
एक दिन पह चारित्रमति अपने पिताके खेतमें निर्मल सरोवर पर जाकर पूजा करने लगी। इस बीचमें वे ही मुनिराज, जिन्होंने ग्रत दिया था, वहां भ्रमण करते हुए आ पहुंचे।