Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 107
________________ १०२] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ***************************** * * * जीयोंको अभयदान दे, इत्यादि विधि सुन, उस दरिद्र कन्याने भावसहित प्रत पालन किया और अन्त समय सन्यास सहित णमोकार मंत्रका स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर तेरे घर यह पुत्र हुआ है। यह पुत्र चरमशरीरी है, इसीसे राज्यभोगमें इसका चित्त नहीं लगता है, यह बहुत ही थोडे समय घर रहेगा। राहा इस मा. श्रीगुहा धसे जरने पुत्रका वृत्तांत सुनकर घर आया यह संसार, देह, भोगोंसे विरक्त होकर उसने अपने पुत्रको राज्यतिलक किया। पश्चात् पिहताश्रय आचार्यके पास दीक्षा ले ली। इसके साथ और भी बहुतसे राजाओंने दीक्षा ली। और राजा सुकोशल राज्य करने लगा। सो वह अल्पसंसारी राजनीतिकी कुटिलताको न जानता और सुखपूर्वक कालक्षेप करने लगा। एक समय मतिसागर नाम भण्डारीने अतसागर नाम मंत्रीसे मंत्र किया कि राजा राजनीतिसे अनभिन्न है, इसलिये इसे कैद करके मैं तुम्हें राजा बनाये देता हूँ, और मैं मंत्री होकर रहूँगा। परंतु यह वार्ता मतिसागरके पुत्र और राजाके बालसखा द्वारा राजाके कान तक पहूँच गई। राजाने मतिसागर को इस कुटिलता व घृष्टताके बदले अपमान सहित देशसे निकाल दिया और श्रुतसागरको राज्यभार सोंपकर आप अपने पिताके पास गये और दीक्षा ले ली। यह मतिसागर भण्डारी भ्रमण करते हुए दु:खने (आर्तभायोंसे) मरणकर सिंह हुआ, सो विकराल रूप धारण किये अनेक जीवोंको घात करता हुआ विचरता था कि उसी यनमें विहार करते हुये थे हरियाहन और सुकौशलस्वामी आ पहुंचे। सिंहने इन्हें देखकर पूर्व पैरके कारण क्रोधित होकर शरीरको विदीर्ण कर दिया। ये मुनिराज उपसर्ग जानकर निश्चल

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