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श्री जिनराधी व्रत कथा ********************************
इस समय राजा विशाखनंदि अपने महलोंमें बैठा यह सब दृश्य देख रहा था सो अविचारी, मुनिका अपहास करके कहने लगा कि सब बल अब कहां गया? इत्यादि।
मुनिराज विशाखनंदी राजाके वचन सुनकर और अन्तराय हो जानेसे पनमें चले गये और उन्होंने निदान करके आयुको अन्तमें प्राण छोडकर दश स्वर्गमें देयपद प्राप्त किया।
कुछ कालके बाद विशाखनंदि भी दीक्षा ले, तप कर दशयें स्यर्गमें देव हुआ । सो ये दोनों देय देयोचित सुख भोगने लगे और अन्त समय यहांसे चयकर विशाखभूतिका जीव, सौरम्यदेश पोदनपुर नगरीके प्रजापति राजाकी मृगावती रानीके गर्भसे विश्वनंदिका जीय दस स्वर्गके चयकर त्रिपृष्ठ नामका नारायण पदधारी पुत्र हुआ।
स्थनपुरके राजा ज्यलनजटीकी प्रभावती नामकी कन्याके साथ नारायणका व्याह हुआ। सो विशाखनंदिका जीव जो विजयाईगिरिका राजा अश्वग्रीव प्रति नारायण हुआ था उक्त व्याहका समाचार सुनकर बहुत कुपित हुआ। और बोला कि क्या ज्वलनजटीकी कन्या त्रिपृष्ठ जैसा रंक व्याह कर सकता है? चलो, इस दुष्टको इसकी इस घृष्टताका फल पखावें।
यह विचारकर तुरन्त ही ससैन्य त्रिपुष्ठ राजा (जो कि होनहार नारायण थे) पर जा चढा, और घोर संग्राम आरम्भ कर दिया जिससे पृथ्वी पर हाहाकार मच गया परंतु अन्यायका फल भी अच्छा नहीं हुआ, न होगा।
अंतमें त्रिपृष्ठ नारायणकी ही विजय हुई और अपनीय अपने कियेका फल पाकर विशेष दुःख भोगनेको नर्कमें चला गया। क्या कोई किसीकी मांग या विवाहित स्त्रीको ले सकता है या लेकर सुखी हो सकता है।